बुधवार, 21 मई 2008

अपनी बात

मैंने माँ के कहे हुए सोचा था कि अपनी बात में अपने सेवा क्षेत्र के प्रारंभिक काल से लेकर वर्तमान काल की कथा-दशा का एक साफ-सुथरा खाका सबके सामने रख दूँ, क्यूंकि लेखक, लिखने के अलावा अपनी जीवन कैसे जीता है और उसे जीने के लिए किस जद्दोजहद से गुज़र कर लिखने के लिए फिर कलम उठानी पड़ती है, यह भी महत्वपूर्ण बात है । आज पूर्व की तरह सिर्फ़ ‘साहित्य-साहित्य’ करके नहीं जिया जा सकता...... और भी बेहद ज़रूरी चीज़ें सामने होती हैं । मुझे लगता है कि यह सबके साथ होता है या नहीं, पर मेरे साथ तो हुआ है । इसीलिए मैंने सोचा था कि अपने बारे में सारा कुछ लिखकर पाठकों के सामने रखूं, पर मुझे बताया गया कि आज लेखक के बीते बीस-बाइस बरसों के सफर से किसी को क्या-लेना देना !........ तो, मैंने कुल चार पन्नों की ‘अपनी बात’ से लगभग तीन पन्ने तो हटा दिये, पर कुछ हिस्सों को हटा पाना मेरे लिए ख़ुद संभव नहीं हो पा रहा है और ‘कतरने’ के बाद बचा हिस्सा सोचता हूँ कि आपके सामने रख दूँ ।श्रीकांत वर्मा एक प्रसंग विशेष पर टिप्पणी करते हैं कि ‘जीवन-दृष्टि शिक्षा से नहीं, आत्म संघर्ष से प्राप्त होती है ।’ यह बात मुझे पूरी तरह जमती है । मेरे जीवन का बहाव कुछ ऐसा रहा कि सन् 1980 से आज सन् 2003 की स्थिति तक लगातार लिखता ही आ रहा हूँ । जल्दबाजी में इसे आप पूरे समय का साहित्य लेखन मान लें, ऐसा नहीं है । एल।एल.बी. की शिक्षा पूरी करने के बाद हालात् अचानक ऐसे बदले कि मुझे ‘उस तरफ़’ यानी अदालत की ओर जाने की बजाय अख़बार की दुनिया में आना पड़ा । सन् 1980 को मैंने रायपुर से प्रकाशित ‘देशबन्धु’ समाचार पत्र के सम्पादकीय विभाग में नौकरी शुरु की । इस नौकरी में जो मुख्य बात रही, उसने मुझे इस तरह घेरा की आज तक उससे ठीक तरह से निकल नहीं पाया हूँ ।सन् 80 से सन् 84 तक ‘देशबन्धु’ की नौकरी के दरम्यान शुरु के थोड़े दिनों को छोड़कर सम्पादकीय विभाग में मुझे ‘सिटी’ यानी नगर-समाचार इकट्ठा करने का दायित्व मिला । जब अगस्त चौरासी में सम्पादक ललित सुरजन जी से ‘सम्मति’ लेकर बिदा हुआ तो इस कड़ी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि ‘देशबन्धु’ और ‘नवभारत’ रायपुर में लगातार छपीं । उस वक्त रायपुर के इन दोनों अखबारों में किसी की भी कहानी छपना बहुत बड़ी बात होती थी । अख़बार के साथ ही रेडियो के लिए भी लगातार कहानी लिखने का क्रम जारी रहा । पर, सर्वाधिक समस्या इस दौरान समय की थी । सम्पादकीय विभाग के ‘सिटी डेस्क’ में नौकरी होने के कारण ख़बरों के लिए दोड़ ज़्यादा रहती.... और रात बारह-एक बजे के बाद समय निकालकर मैं कहानियाँ लिखने का अपना काम पूरा करता । कभी-कभी तो लिखते-लिखते आँख जब ऊपर उठती तो सूरज खिड़की से कमरे के भीतर झाँकता नज़र आता । ‘ऐसा कुछ’ मैंने महत्वपूर्ण उस दौर में लिखा.... या आज लिख रहा रहूँ, यह बात नहीं, पर ख़बरों की ‘अल्पजीवी ज़िंदगी’ के बीच साहित्य के लिए कुछ भी लिख पाना एक चुनौती तो अपने आप में थी । खुशी उस समय और भी होती जब अख़बार के सहकर्मी कहानी पर कोई बात करते या सम्पादक की स्नेहिल नज़र कहानी छपने के बाद मुझ पर पड़ती । ‘देशबन्धु’ का यह चार वर्षों का ‘काल’ ऐसा था, जिसने न केवल मुझे ‘कहानी’ ‘ख़बरों’ की लिए रेखांकित किया, बल्कि बाद के लगभग बारह-तेरह वर्षों तक विशिष्ट पहचान दी । यही विश्वास ही है जो कि आज मुझे पहला कहानी संग्रह ‘मछली को दिखता नहीं समुद्र’ के बाद दूसरा कहानी संग्रह ‘नौटते हुए परिन्दे’ आपके सामने रखने के लिए प्रेरित कर रहा है ।‘देशबन्धु’ से सन् 84 में अलग होकर मैंने फिर दैनिक अमृत संदेश में अपनी सेवाएं दी । नवभारत के सम्पादक पद से अलग होकर श्री गोविन्दलाल वोरा ने अपना स्वयं का अख़बार शुरू किया था । अमृत संदेश के प्रकाशन के शुरुआती दौर में नवभारत और देशबन्धु से अनेकानेक वरिष्ठ साथियों ने अपनी सेवाएं अदला-बदली की । इस तरह सन् 84 से 97 के बीच की तेर वर्षों की अवधि का ज़्यादातर समय मुझे सिटी के ख़बरों को देना पड़ा...... और नये अख़बार के जमने की व्यवस्थाओं के बीच तथा ख़बरों के आगे-पीछे दौड़ने की ज़रूरत ने एक हद तक मुझे कहानी- लेखन के क्षेत्र से अलग कर दिया । इसी सेवावधि में न्यूज की मारामारी ने साहित्य-अध्ययन से भी काफी विरक्त किया ।यहाँ यह भी बता हूँ कि अमृत संदेश के लम्बे सेवाकाल के बीच मैंने लगभग चार वर्षों के लिए दैनिक भास्कर के तब नव भास्कर के नाम से प्रकाशित अख़बार में काम किया । जब पुनः अमृत संदेश अख़बार ज्वाइन किया तो वहाँ बाद के वर्षों में कुछ कहानियाँ लिखने की स्थितियाँ बनीं । कुछ शुभचिंतक बार-बार कहानी लिखने के लिए दबाव डालते तो कभी स्वयं ही मन बन जाता कि कोई कहानी समय निकालकर लिखी जाए । फिर भी जितनी कहानियाँ शुरू के चार वर्षों में लिखी गई, उतनी कहानियाँ लगभग बाद के सत्रह वर्षों में यानी सन् 2003 के बीच तक नहीं लिखी जा सकीं । साफ बात यह है कि अख़बार जगत के सिटी डेस्क पर काम करते हुए कहानी लिख पाना बहुत आसान काम भी नहीं था । जो भी कहानियाँ इस बीच मैंने लिखीं, उसमें कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ अमृत संदेश में ही छपीं और पाछकों से उन्हें सराहना मिली । सन् 1997 को अमृत संदेश अंतिम रूप से छोड़ने के बाद मैंने त्रैमासिक पत्रिका रश्मि प्रवाह का प्रकाशन शुरु किया, जो कि छत्तीसगढ़ की विशिष्ठता,, विविधता, राजनीति, कला, साहित्य और विचारों पर केंद्रित पत्रिका के रूप में आज जानी जाती है, उसका सन् 97 से लगातार आज 2003 तक सम्पादन कर रहा हूँ ।अख़बार जगत से थोड़ा हटकर किसी पत्रिका का प्रकाशन करना और भी जोख़िम भरा काम था । अख़बार जगत के लोग मेरा यह काम देखकर शुरू में तल्खी के साथ हँसते । अपनी जमात से हटकर नया काम करने में मुझे भी शुरु के दो वर्षों में बहुत ज़्यादा कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । पत्रिका के लिए कोष और प्रसार दोनों का सवाल था । पर, साफ शब्दों में कहूँ तो अख़बार जगत के बहुतेरे संबंध पत्रिका प्रकाशन की कठिन राह में भागीदार बने । मतलब साफ है कि पहले नये-नये अखबारों के जनमे-जमाने के प्रयासों में बेशक़ीमती समय गया और फिर यही बात अपनी पत्रिका रश्मि प्रवाह को जमने-जमाने में लागू हुई । पत्रिका प्रकाशन की राह आज के तेज़ संचार युग में न केलव बहुत जोख़िमभरी है, बल्कि ख़ून देने वाली भी लगती है ।समय बदलता है तो अपने साथ बहुत सारा बदलाव लाता ही है । पर, मेरे लिए जैसा कि पहले ‘कहानी’ लिखना कठिन लगता था, आज भी कहानी लिखना वैसा ही कठिन बना हुआ है । आज भी अख़बार के लिए न सही पत्रिका रश्मि प्रवाह के लिए लगातार दौड़-भाग लगी रहती है । ऐसे में ठहरकर लिखना कठिन लगता है । फिर भी पत्रिका प्रकाशन के पाँच बरसों के अंतराल में चार या पाँच कहानियाँ मैंने नई लिखीं, जो कि लौटते हुए परिन्दे कहानी संग्रह में शामिल हुई हैं । इन कहानियों का परिवेश प्रारंभ की कहानियों से अलग है ।एक बात साफ-साफ यह भी कह दूँ कि पहले कहानी संग्रह मछली को दिखता नहीं समुद्र की तरह दूसरे कहानी संग्रह लौटते हुए परिन्दे को प्रकाशित करने की मैंने कभी भी अपने भीतर से ज़रूरत नहीं समझी । प्रथम संग्रह के प्रकाशन ने बहुत ज़्यादा उत्साह भी नहीं दिया । कहा जाता है कि साहित्य की राह कठिन है, तो वैसा अनुभव इस दरम्यान मुझे भी हुआ । एक बार फिर अख़बार जगत में लौटा, लेकिन पहले जैसी बात नहीं बनी । अभी भी लगता है कि सन् -80 में जैसे कुछ सीखने आया था, उसी तरह लगता है कि लेखन के क्षेत्र में तेईस वर्षों की सेवा के बावजूद प्रारंभिक रूप से अथवा नये सिरे से सीख रहा हूँ ।लौटते हुए परिन्दे के प्रकाशन की तैयारी और उसके छपकर आने के पीछे का सारा श्रेय श्रद्धेय शिवशंकर पटनायक जी को देना चाहूँगा, जिनसे मेरी मुलाकात देशबन्धु सेवाकाल के वरिष्ठ सहयोगी सैयद लियाकत अली ने करवाई थी । लियाकत अली जी ने ही मेरी पत्रिका रश्मि प्रवाह के प्रारंभ काल में अपना आत्मीय स्नेह दिया था, जो कि आज तक जारी है । श्रद्धेय शिवशंकर पटनायक ने केवल मुझे दुबारा कलम उठाने के लिए विवश किया, बल्कि नया कहानी संग्रह प्रकाशित करवाने का संकल्प मुझसे ले लिया..... और आज यह संकल्प पूरा हो रहा है । मेरे छोटे से हाथ यह काम कैसे पूरा कर गये हैं, इस पर मैं प्रथम संग्रह मछली को दिखता नहीं समुद्र के प्रकाशन-समय जैसा आश्चर्यचकित भी हूँ ।अंत में अपनी बात मैं श्रीकांत वर्मा के कथन के साथ समाप्त करता हूँ जो कि उन्होंने विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध के लिए लिखी थी- मुक्तिबोध का सारा जीवन एक मुठभेड़ है मुक्तिबोध का साहित्य भी उस यथार्थ से मुठभेड़ है, जिससे जूझते हुए वे नष्ट हो गये । श्रीकांत वर्मा ने इसी क्रम में यह भी लिखा है कि कहानी मुक्तिबोध की सबसे प्रिय विधा नहीं । उनके जीवनकाल में बहुतों को यह जानकारी नहीं थी कि उन्होंने कहानियाँ लिखी हैं । जाहिर है कि मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आंदोलन नहीं था । हर रचना, उनके लिए, एक भयानक, शब्दहीन अंधकार को-जो आज भी भारतीय जीवन के चारों ओर, चीन की दीवार की तरह खिंचा हुआ है- लाँघने की एक और कोशिश थी । अपना संग्रह लौटते हुए परिन्दे आपके होथों में सौंपते हुए बस इतना ही ।

00सुरेश तिवारी00

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