सोमवार, 9 जून 2008

लौटते हुए परिन्दे


वह कहाँ से चला था...और,आज कहाँ पहुँच गया है...! वह रूका नहीं, ...बस यही सबसे बड़ी बात थी । रूक-रूक कर चलना और बिना रूके चलने में काफी अंतर होता है । उसने अपनी आँखों से ज़्यादा दिल पर भरोसा किया और ईमान को सामने रखा । आज ज़रूर उसे ‘ईमान’ शब्द का इस्तेमाल करने पर भीतर ही भीतर हँसी आती है, पर बाहर वह इस शब्द पर कभी हँस नहीं सकता । वैसे वह बाहर कभी हँसता भी नहीं । लोग तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि उसे हँसी आती ही नहीं । यह तो ठीक ऐसी बात हुई कि ‘पंछी हो और उसे उड़ना न आये...।’ आदमी और हँसी दोनों को अलग नहीं किया जा सकता । यह अलग बात है कि आज ‘हँसी’ और ‘ईमान’ जैसे शब्द उसके सामने पुराने कोट की तरह खूँटी पर टँगे हैं । उन्हें उठाकर ट्रंक या आल्मीरा में रखना अच्छे कपड़े की तौहीन करना लगता है । पर, वह जानता है कि वह कभी भी हँस सकता है और पंछियों के साथ...या फिर पंछियों की तरह उड़ सकता है ।

वह जब चला था, तब ऐसा नहीं था । तब घर में फ़ालतू कमरा हुआ करता था । फ़ालतू कमरा, यानी अभी की प्रचलित भाषा में घर सा स्टोर अथवा कबाड़खाना, जहाँ गैरज़रूरी या फिर, कम काम में आने वाली चीज़ों को डाल रखा जाता है । वह तो जब चला था, उसने कल्पना ही नहीं की थी कि उसके पास इतना बड़ा घर होगा । बहुत से कमरे होंगे । चार-छह कमरों की बात उसे तब सपना लगती थी, पर आज उसे दस-बारह बड़े-बड़े कमरे भी छोटे पड़ रहे हैं । टेरेस और लॉन की लम्बाई-चौड़ाई उसे कम लगने लगी है । पर, लॉन का एक पेड़ और एक कोना उसका ध्यान हमेशा खींचता है, वर्ना उसका मन कई बार यह कहता कि यह कॉटेज बेच कर नई आलीशान कोठी बनवा ले । कम से कम बीस कमरे तो उसके पास ग्राउण्ड फ्लोर पर होने चाहिए...और एकड़ दो एकड़ से ज़्यादा में फैला लॉन...। अब टेरेस में पल भर रूकने से वह बेचैन हो जाता है । वह नई कोठी में कोई नई व्यवस्था की बात सोचेगा । पर, उसे बार-बार यह क्यूं याद आ रहा है कि वह कहाँ से चला था...और, आज कहाँ खड़ा है!

उसने अपने हाथ की घड़ी देखी । वही काले धागों से बनी साधारण पट्टे वाली और बेहद साधारण घड़ी । क़ीमत से आज यदि कोई उसका आकलन करे तो डेढ़-दो सौ रूपये की घड़ी उसे कह सकता है । ...‘बीस से पच्चीस करोड़ का कॉटेज और हाथ में सौ रूपल्ली की घड़ी...।’ एक बार उसे अनुज रमन ने टोका था, तब उसने कोई जवाब नहीं दिया था । कई लोग उससे जब-तब घड़ी के बारे में पूछ लेते और वह हमेशा चुप रहता । चुप बना नहीं रहता, बल्कि चुप रहता । धीरे-धीरे करके यह बात सारे लोगों तक फैल गई कि रमाशंकर की घड़ी में ज़रूर कोई जादू है ।... वर्ना, वह घड़ी की बात करने पर लम्बी चुप्पी में क्यूं चला जाता है । कभी किसी को उसने इस बार में कोई उत्तर क्यूं नहीं दिया ....? वह जानता है कि घड़ी उसका अतीत है । और व अपने अतीत को कतई खोना नहीं चाहता । पुराना समय, आज भी उसके सामने चलने लगता है, जब-तब और कभी भी । वह घड़ी को जब चाहे देख सकता है और अपने अतीत को भी उसे लोगों ने कई बार बहाने से मँहगी-मँहगी घड़ियाँ उपहार में दीं । पर, उसने उन घड़ियों के डिब्बे तक कभी नहीं खोले । पर्सनल आल्मीरा में ऐसे बीसों डिब्बे उसके पास पड़े हैं । ऐसा नहीं कि, दिन भर उसे अपनी घड़ी का ही ध्यान बना रहता है, बल्कि वह तो यह भी ख्याल नहीं कर पाता कि साल-घह महीन के भीतर उसने अपनी घड़ो को एक बार भी ठीक से देखा हो । वह यंत्रवत् उसे ऑफ़िस चलते समय पहनता और लौटते समय अपने सबसे सुरक्षित लॉकर में रख लेता । उसे कभी इस बात का डर नहीं ला कि घड़ी गुम भी हो सकती है । कम से कम पच्चीस बरसों से तो गुमी नहीं है ।

पच्चीस बसरों का समय कम नहीं होता त। कभी-कभी तो मिनट-दर-मिनट काटना कठिन हो जाता है । यही समय तो उसे याद दिलाता है कि वह कहाँ से चला था...., आज कहाँ खड़ा है, और कल जाकर कहाँ खड़ा होगा । वह चलता रहा । रुक-रुक कर नहीं बल्कि, लगातार । उसे ख़ुद नहीं मालूम कि चलते-चलते आगे कहाँ जाएगा । पर, वह इतना जानता है कि वह रुकेगा नहीं । वह मुड़ेगा नहीं... और थकेगा भी कभी नहीं...। उसे निगाहें सामने थीं । नाक की सीध के स्तर से कुछ ऊपर उठी हुईं । वह ज़्यादातर नीचे देखकर... या फिर, निगाहें मिलाकर किसी से बात नहीं करता था । उसे लम्बी बात...अथवा देर तक बात करते किसी ने नहीं देखा । वह न तो कभी जल्दबाजी में नज़र आता... और न ही कभी सोच में डूबा लगता । उसके चेहरे पर हमेशा स्व-स्फूर्त ताज़गी बनी रहती और जुबान मिठास से भरपूर । उसे किसी ने कभी डाँट-फटकार करते नहीं देखा । वह उदास भी कभी नहीं लगा । पर, अक्सर जब कभी मौका मिलता, वह एकांत में चला जाता ...। अपने ऑफ़िस में भी...और घर पर भी । तब, उसे कोई डिस्टर्ब नहीं कर सकता था । वह अपनी मर्जी से ही ख़ुद एकांत से बाहर निकलता । पर, एकांत के उसके क्षण दिन के वक्त आधा घंटे से अधिक नहीं होते । सुबह भी लोगों को कभी उसका इंतजार नहीं करना पड़ता । वह पाँच सवा पाँच बजे पूरी तरह से तैयार हो जाता । उसकी दिनचर्या अगले दिन के लिए कम सेकम 36 घंटे और व्यस्तता ज़्यादा रहने पर 48 घंटे पहले तय हो जाया करती । उसके सारे कार्यक्रम सबके सामने होते...। कोई भी उससे मिल सकता था । कोई भी उसके बात कर सकता था, वह किसे उत्तर देगा और किसे नहीं, इसका अनुमान पहले से लगाना कठिन था । वह कभी-कभी बड़ा रहस्यवादी नज़र आता । सारे अनुमानों को तब दरकिनार करता हुआ उसका व्यवहार बेहद अतिवादी हो जाता ।...तब वह अपनी मान्यताओं और आदर्श की परवाह नहीं करता ।

... ऐसा वह क्यूं करता... । बाद में उसके पास स्वयं उसका उत्तर नहीं रहता । ऐसा नहीं कि वह अपने ऐसे कृत्य पर पछताता हो । वह ऐसा करने के बाद कभी पछताता नहीं । भीतर से विचलित ज़रूर हो जाता । ऐसे ही वक्त वह घड़ी देखता... और फिर वह एकांत के लिए चल पड़ता । वह जब बेहद अतिवादी स्थिति में होता तो अपने तयशुदा सभी कार्यक्रम रद्द कर देता....और भविष्य में उन कार्यक्रमों को अपनी दिनचर्या की अगली सूची में कभी रिपीट नहीं करता । ऐसे वक्त उसे सिर्फ़ निशि भर की फटकार झेलनी पड़ती । सिर्फ़ यही कार्यक्रम उसकी दैनिक सूची में रिपीट होता । रद्द होने के बाद रिपीट । रिपीट शब्द से ही उसे चिढ़ थी । ... या तो काम हो जाए पूरा..या फि र्द्द...। पर, निशि के लिए रिपीट - रिपीट - रिपीट जैसा शब्द उसकी सूची में हज़ार बार भी आये तो वह कुछ कह नहीं सकता था । बल्कि, एक माह पहले उसके कार्यक्रम रद्द हुए तो पर्सनल फ़ोन पर उसने निशि से गुस्से वाली स्थिति में डाँट खाई थी और माफ़ी माँगनी पड़ी थी । वह आधी रात को गाड़ी उठाकर भागा था और सुबह सबसे पहले निशि के सामने हाथ जोड़े खड़ा था । इसके बाद उसने अपने दफ़्तर के सभी लोगों को वार्न किया था कि निशि के कार्यक्रम में पहले हाईरैड से मार्क करें और फिर दोनों किनारों पर ग्रीन ऐरो लगायें...। वह जानता है कि इस मार्क के बाद दिनिया इधर से उधर हो जाऐ, वह अपना यह कार्यक्रम नहीं बदल सकता ।

....कहाँ से चला था और वह आज कहाँ आ गया । और,...वह कल, ... हाँ कल, कहाँ पहंचेगा...। उसने यह सोचा तो कल शब्द आँखों के सामने विस्तार लेकर फैलने लगा । फिर मन में आया कि कल वह अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर देगा । आज दिन भर के आठ घंटे बचे हैं ।ज़रूरी सभी काम अभी...और बाक़ी पेंडिंग,...लौटकर देखेंगे । वह अपने भीतर लौटने लगा । उसे अतीत याद आने लगा । आख़िर कब तक काम करता रहेगा वह ? पूरी ताकत लगाने के बावजूद भी क्या उसका काम कभी ख़त्म हो पाता है ? सुबह चार, साढ़े चार बजे से लेकर रात एक से दो बजे तक वह काम ही करता रहता है । कभी प्लनिंग, तो कभी मीटिंग और कभी प्रोजेक्ट रिपोर्ट की दफ़्तर में मानीटरिंग तो कभी फील्ड में जायजा । उस पर भी घर पर मिलने वालों की भीड़ और दिन भर आमंत्रित करने वालों की अर्जियाँ । कभी-कभी वह इन सबसे ऊब भी जाता । पर, ठीक उसी समय मन को समझाता कि ‘इसी-सब’ के लिये तो वह सारी कसरत करता रहा है । अब इससे छुटकारा नहीं है...और, उसे छुटकारे का प्रयास भी नहीं करना चाहिए । ...वह छुटकारे का प्रयास नहीं करेगा । उसने तो यह तय कर रखा है कि वह रूक-रूककर नहीं, बल्कि लगातार चलता रहेगा । चलना ही उसकी पहचान है । वह तो ज़्यादा से ज़्यादा पाकर भी कभी ठहरा नहीं । उसने हमेशा यही समझा कि जो ‘पा लिया है’ वह अब अपना कहाँ रहा...? जो नहीं पाया है- उसे ‘पाना’ चाहिए । हासिल की गई सभी चीज़ें...बातें, अनुभव उसके ‘स्टोर’ की सामाग्री ही तो हैं...। वह अपनी रफ़्तार भले तेज़ न करे...पर उसे कम भी नहीं करेगा ।
उसने ध्यान से घड़ी देखी । तीनों काँटों पर नज़र फेरी । तारीख वाले हिस्से पर निगाह डाली । सत्ताइस तारीख । नौ बजकर बाइस मिनट और उसके ऊपर से घूमता सेकेण्ड़ का लयबद्ध तरीके से आगे बढ़ता काँटा । दिन, महीना और साल उसे याद है । वह इन सबको नापता हुआ ही तो आगे बढ़ रहा है । उसे पहले अपने पिता याद आये । फिर उसने महसूस किया कि वह छोटा बच्चा हुआ जा रहा है । वह बाबू के साथ ऊँगली पकड़ कर चल रहा है । ऊँगली पकड़ कर चलते-चलते वह बार-बार ऊँगली के बंधन से अपने को मुक्त करके आगे-पीछे हो जाता । बापू उसे देखते, पर न तो उसे डाँटते...और,न ही उसे फौरन पकड़ने का प्रयास करते । वह कई बार काफी दूर तक अकेले चला जाता । कभी-कभी तो वह लगभग खो-सा जाता । बाबू जानते कि वह आसपास ही कहीं होगा...और वे उसे ढ़ूँढकर निकाल लोते । वह जान-बूझकर कभी छुपता नहीं । बाबू और वह एक-दूसरे का बर्ताव समझने लगे थे । वह बाबू के साथ अक्सर घूमने जाया करता । बाबू की याद उसे हमेशा आती है । और, जब वह घड़ी के पट्टे पर नज़र डालता...,या फिर, काँटों को ध्यान से देखता तो उसे बाबू याद आ जाते । आज वह पिता हो गया है । आज बाबू की जगह उसने ले ली है । पिता तो वह हो गया है, पर उसके पास आज बाबू नहीं हैं, बाबू नहीं है...। उनकी ऊँगली हथेली के भीतर नहीं है । बाबू की ऊँगली से उसकी हथेली फिसल गई है । वह आगे निकल आया है...। वह बाबू से बहुत आगे निकल आया है ।...नहीं-नहीं ...। वह नहीं, बल्कि बाबू आगे निकल गये हैं । वह तो पीछे चल रहा है । उसकी हथेली से बाबू की ऊँगली फिसल गई है । वह बाबू को ढूँढ़ रहा है । चारों तरफ़ बेचैनी से ढूँढ़ रहा है । बाबू उसे कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं, तो कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं । फिर, उसे लगता है कि नहीं...बाबू तो उसके पास हैं । उसके साथ चल रहे हैं । लगातार साथ । वह बाबू के साथ क्रमशः चलते हुए दृश्यों, चित्रों और वर्षों में खो गया । सात वर्ष, बारह वर्ष, पन्द्रह वर्ष, बीस वर्ष.... और बाइस वर्ष का हो गया, वह बाबू के साथ चलते-चलते । पर, उसे पता ही नहीं चला कि यह समय कैसे बीत गया । से बाबू याद आये तो दूसरी तरफ़ निशि भी याद आई । उसके व्यस्तता के कारण निशि उसे कितना मिस करती है । उसे निशि को इतना मिस नहीं करना चाहिए । उसे तेज़ी से अहसास होता है कि वह बाबू के साथ नहीं चल रहा, बल्कि वह स्वयं बाबू हो गया है । और, उसकी ऊँगली पकड़कर निशि चल रही है । निशि कितनी बड़ो हो गई, व्यस्तता जानती है वह उसकी... वह कभी कड़ा सवाल नहीं करती, पर जब पूछेगी तो वह क्या जवाब देगा ? और...कैसे जवाब देगा ? उसे कुछ समय में नहीं आ रहा । जब यह विचार उसके सामने गंभीरता से खड़ा होता तो वह उसे समय के हवाले कर देता वह मन ही मन सोचता है कि जब सवाल का हल तुरंत न निकलता नज़र आये तो उसे समय के हवाले कर देना चाहिए । वह ऐसा ही करेगा ।

भावना, हाँ अपने भीतर की भावना... भाषा और व्याकरण से कहीं ऊँची है । तभी तो भावना के बाद वेदना का पता चलता है । जब आदमी को अपने दुःख का पता चलता है, तभी वह दूसरे के दुःख में सहभागी हो सकता है । सम्-वेदना का इजहार कर सकता है वह सोचता है कि निशि कुछ कहती नहीं, पर क्या उसे उसकी वेदना का पता नहीं है । आज वह अपने सभी ज़रूरी काम तेज़ी से निपटाकर निशि की तरफ़ निकल जाएगा । पहाड़ो की सैर...। और, पंछियों के साथ रहना निशि को अच्छा लगता है । उसे भी तो पंछियों का साथ बहुत भाता है । ...वह भी तो बाबू का हाथ पकड़कर दूर तक निकल जाता था । उसे कई बार लगता था कि हाथ बढ़ाकर किसी पंछी को पकड़ लेगा...। पर, आश्चर्य उसकी हथेली...और यहाँ तक कि ऊँगलियों के दायरे में आने के बावजूद उसके हाथ कोई पंछी कभी नहीं आया । उसकी हथेली और ऊँगलियाँ वैसी की वैसी बनी रहीं । ऐसा नहीं कि इस प्रयास में असफल हो जाने के बाद वह दुःखी हो जाता, बल्कि उसे तो इस केल में मजा आता था । वह तो बढ़-बढ़कर और चारों तरफ़ दौड़कर इस खेल में देर तक खोया रहता, जब तक बाबू उसे आवाज़ नहीं दे देते- ‘रमा...अब चलो भी...।’ वह बाबू की आवाज़ सुनकर फौरन खेल बंदकर उनकी तरफ़ लौट पड़ता । उसने किसी बात के लिए बाबू को कभी दुबारा आवाज़ नहीं देने दी । ...चाहती तो निशा भी ऐसा कर सकती थी । पर, निशा ने कभी उसकी आवाज़ नहीं सुनी । वह भावना नहीं समझी । निशा ने तो निशि तक ख्याल नहीं किया । उसने तो आवाज़ पर ध्यान ही नहीं दिया...। उसने बार-बार बताने पर भी पर एक बात का बुरा माना । बातों का अर्थ वह अपने ढ़ंग से निकालती रही । वह सोचता है कि जब किसी को कोई बात नहीं मानना है तो वह बात का अर्थ भी फिर, अपने हिसाब से निकालता है...। उसे नये-नये अर्थ देकर परिभाषित करता है । शायद निशा ने भी ऐसा किया । अब निशा के बारे में ज़्यादा सोचने की इच्छा उसे नहीं होती । जब निशि छोटी थी तब उसे ज़रूर लगता था कि- ‘निशि का क्या होगा ?’ पर निशि हॉस्टल में रहते-रहते अब सत्रह साल की हो गई है । पाँच साल की उम्र से उसे हॉस्टल में डाला था । दिल्ली के स्कूल में उसे असुविधा तो कुछ नहीं थी, पर वह अपनी माँ को ज़रूर मिस करती थी । ...और इसी कारण उसे निशा की याद आती थी ।

धीरे-धीरे करके निशि ने माँ को याद करना कम कर दिया था । उसने अपने आप यह बात कभी नहीं निकाली कि ‘पापा! उसे माँ के बारे में कुछ बताते क्यूं नहीं...।’ जैसे उसने बाबू से ज़िद करके अपने किसी सवाल का जवाब कभी नहीं चाहा, ठीक निशि को भी वैसा स्वभाव मिला है । उसने कभी इस विषय में गैर-ज़रूरी जिद्द नहीं की । उसने निशि से कहा था कि- ‘वह उसकी में के बारे में समय आने पर उसे सब बता देगा, पर तब तक उसे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है । सिर्फ़ पढ़ाई...।’ निशि ने इसके बाद फिर कभी माँ के बारे में कोई जिद्द नहीं की, पर यह ज़रूर चाहा कि- ‘पापा...लाख व्यस्तता के बीच मुझे आपकी कमी नहीं महसूस होनी चाहिए..., नहीं तो मैं यह पढ़ाई-वढ़ाई जहाँ-तहाँ छोड़कर आपके पास चली आऊँगी । फिर आपसे ज़रा भी दूर नहीं रहूँगी । मुझे आपके पास होने पर फिर माँ की उतनी याद नहीं आती । पर दोनों न हों, तो कितनी अकेली हो जाती हूँ मैं...। पापा, आप तो मुझे सबसे ज़्यादा समझ सकते हैं..., टीचर और वार्डन से भी ज़्यादा ।’ वह चुप रहा । उसने कभी वायदा किया था- ‘बेटा मेरा चाहे कितना भी ज़रूरी काम क्यूं न हो...हफ्ते में एक बार तुझे मिलने ज़रूर आऊँगा...।’ और, जब तुझे लगे...तो मुझे बुलाने में संकोच न करना...। एक दिन सब ठीक हो जाएगा । ...तू समझदार है बेटा । ...बेटा...बेटा...बेटा ! वह निशा को समझाते-समझाते उसे गले से चिपकाकर रो पड़ा था । वह दस साल पुरानी बात है । अब तक निशा को गये पन्द्रह साल हो गये थे । निशा के जाते समय निशि की उम्र दो वर्ष ही तो थी । जब निशि माँ के बारे में जब-तब सवाल करने लगी थी तब उसकी उम्र सात साल के आसपास हो गई थी । पाँच वर्ष की उम्र में उसे हॉस्टल में डाल दिया था उसने । शुरू में उसने बात समझी नहीं । पर, जब स्कूल में और बच्चों के मम्मी-पापा आते तो उसे लगता कि उसकी माँ उसके पास क्यूं नहीं आती । हॉस्टल में भी जब समय-समय मम्मी-पापा अपने-अपने बच्चों के पास आते तो उसे अपनी माँ की याद आती । और, यह सब बातें उसने पापा से कही भी थीं ।

अब निशि समझदार हो गई है । बस दो-एक साल और...फिर, निशि अपने साथ लेता चलेगा । निशि की परीक्षा भी तो छह महीने दूर है । वह थोड़ा काम समझने का प्रयास इस बीच कर सकती है । ...मोटी-मोटी दो-चार बातें तो समझ ही सकती है । बिजनेस में, बस दो-चार चीज़ें ही समझने की होती हैं, बाक़ी सब तो धीरे-धीरे करके ख़ुद ही आ जाता है । निशि जब बिजनेस संभालेगी तो उसे भी सब अपने आप आ जाएगा । निशि है भी तो होशियार...। उसे निशि की कुशलता औऱ होशियार होने पर कोई संदेह नहीं था । उसे निशि पर इस समय बहुत ज़्यादा प्यार आ रहा था । उसने अपने अंतिम कुछ कागजों पर साइन किये । पी.ए. को सारी बातें समझाईं । फिर टेबिल पर रखे सभी कागजात हटाने का इशारा किया । वह बाहर लॉन में आया । उसने आँखों से इशारा किया । ड्राईवर सामने था । इसके बाद उसे आगे कुछ कहना नहीं पड़ा ।

गाड़ी सड़क पर दौड़ रही थी और उसकी आँखों के सामने निशि से जुड़ी बातें । वह जाते ही निशि से क्या-क्या कहेगा । वह उसे सरप्राइज देने के बाद सबसे पहले पहाड़ों की तरफ़ ले जाएगा । उसके साथ खूब दौड़ेगा..., भागेगा ।... इस बार वह पंछियों के झुण्ड के पीछे चला जाएगा । उनके पीछे भागेगा । और, इस बार वह अपने हातों से कोई न कोई पंछी पकड़ लेगा । शाम उसकी गाड़ी के शीशों के बाहर घिरती आ रही थी । उसने अपनी तरफ़ की खिड़कियों के दोनों शीशे खोल दिये । उसे ड्राइवर से भी कहा कि वह सामने के शीशे भी खोल दे । ड्राइवर ने ऐसा ही किया ।

रमाशंकर ने देखा घिरती शाम के बीच उसकी कार तेज़ी से भाग रही है । पंछी उसकी कार के शीशे के बिलकुल पास लहरदार हिचकोले खाकर फिर ऊपर उठ जाते । उसे अपनी कार के अगल-बगल और सामने की ओर रंग-बिरंगे पंछी लगातार नज़र आ रहे थे । वह अपने विचारों के साथ पंछियों की लहरदार उड़ान में काफी देर खोया रहा । तभी उसकी कार के ब्रेक चरमरा उठे । झटका खाकर कार रुकी ।
- क्या हो गया ? रमाशंकर ने ड्राइवर से पूछा ।
- साहब, सामने से एक हिरण निकला... गाड़ी से टकराकर ही गया समझिये । ठीक है...चलो ।
- ठीक है...चलो ।
- साब... झटका पड़ने से कहीं आपको लगा तो नहीं ।
- नहीं.... । रमाशंकर ने कहा । हालाँकि, इस झटके से उसका सिर शीशे की तरफ़ टकरा गया था और उसका चश्मा पाँव पर आ गया था । सने झुककर चश्मा उठा लिया था । पर, उसने यह बात ड्राइवर से नहीं कही ।

कार सड़क पर दौड़ रही थी और वह अपने विचारों में खोता चला जा रहा था । बाबूजी के समय की बात....निशा का साथ... कारोबार का लगातार विस्तार और फिर निशा का साथ छोड़ जाने का अहसास, निशि का बचपन और फिर पढ़ाई के बढ़ते चलने वाले सालों के बारे में सोचता चला गया । उसके सामने निशि का भविष्य भी था । वह निशि को एक बड़ी शख्सियत के रूप में देखना चाहता था । उसने अपनी सारी ख्वाहिशें और तैयारियों को दस्तावेज एवं फाइल की शक्ल देकर एक आल्मीरा में कैद कर रखा था । उसने अपने पी.ए और खाता-बही संभालने वाले लोगों का बता रखा था कि तुम्हें कछ दिनों अब सारी बातें निशि से पूछनी पड़ेंगी... निशि यहाँ आई...और समझो, मेरी छुट्टी...। मैं भी सालों- साल यह सब देखकर थक गया हूँ । निशि सारे कामों को समझेगी, देखेगी और मैं थोड़ा आराम करूँगा...। थोड़ा क्या, पूरा आराम करूँगा । निशि के आने के बाद क्या से संदेह करना चिहिए कि निशि कोई काम ठीक से नहीं कर पायेगी ...। नहीं, न तो वह संदेह कर रहा है...और न ही किसी को आगे इस बात पर संदेह रहेगा ।

उसने निशि के लिए तैयार अलग-अलग फाइलों के क्रम में निशा के बारे में भी मोटी-मोटी सामान्य तौर पर समझ में आने वाली बातें लिखकर रख दी है । वह सारी बातें आज अपनी जवान बेटी के सामने तो कह नहीं पाएगा, पर निशि अपनी समझ से लिखी बातों के जरिये सारे संकेत और अर्थों को समझ जाएगा । उसे आगे चलकर फैसले करने हैं और, वह अपनी माँ के बारे में भी फैसला कर सकती है । रमाशंकर को आज निशि के साथ-साथ निशा की भी बहुत याद आ रही है । उसे लग रहा है कि इस समय निशा को भी उसके पास होना चाहिए । निशि को पढ़ाने एवं ठीक तरह से तैयार करने के लिए अपनी उम्र का लम्बा हिस्सा लगा दिया है ।अब उसे लगता है कि निशि के समझदार होने और सारा कुछ संभाल लेने में देरी नहीं लगेगी । वह निशि से कहेगा कि वह चाहे तो अब अपनी माँ निशि से मिल सकती है और लगे तो उसे भी अपने साथ लेकर चल सकती है । निशि ने कुछ बरसों तक अजय शंकर के साथ रहकर फिर उसका साथ छोड़ दिया है । अब वह पुणें में अकेले रह रही है । दो बार उसने फ़ोन भी किया । पर, जान-बुझकर रमाशंकर ने उससे बात नहीं की । अब रमाशंकर को लग रहा थि कि उसे निशा से बात तो कर ही लेना चाहिए था ।पता नहीं वह किसी तकलीफ में न हो ।वह उसे माफ भले न करे, पर उसकी तकलीफ तो कम कर ही सकता था । अगर उसे अपने किये पर पछतावा हो, तो उसे साफ भी किया जा सकता है, पर यह फैलला अब उसे नहीं, निशि को करना है । निशि समझदार है और यह फैसला वह आसानी से कर भी लेगी थ

रमाशंकर काफी देर तक निशा के बारे में सोचता रहा । उसने घड़ी देखी । अब कितना समय और लगेगा दिल्ली पहुँच ने में । उसने हिसाब लगाया कि रात8-9 बजे तक वह पहुँच जाएगा । पहले अशोका में रुकेगा । अशोका उसका ख़ुद का फार्म हाऊस है । फिर सुबह-सुबह वह निशि से मिलने जाएगा । निशि को लेकर वह पहाड़ की तरफ़ निकल जाएगा । इस बार वह कम से कम सप्ताह भर निशि के साथ रहेगा । सिर्फ़ पहाड़ और पहाड़...स निशि और निशि...। उसने ड्राइवर से कारथोड़े देर के लिए सड़क किनारे लगाने कहा । उसे निसि के साथ अपने पूरे कार्यक्रम की जानकारी दी ।उसने ड्राइवर से न जाने किस मूड में यह भी कहा कि इस बार वह निसि के साथ पहाड़ पर पंछियों के पीछे दौड़ेगा । इस बार वह कोई न कोई पंछी ज़रूर पकड़ लेगा । वह बहुत ख़ुश था और भीतर खुशी महसूस कर रहा था । उसे लगने लगा था कि निशि को तैयार करने में उसने अपनी पूरी जिम्मेदारी निबाह ली है ।अब उसे निशि को लेकर कोई डर नहीं है । निशि भी उसकी तरह ही मजबूत और पूरी तरह तैयार है । बस थोड़ा सा काम समझने भर की देर है । फिर उसका हाथ कोई पकड़ नहीं पाएगा । इस बार वह निशि को और भी बहुत सारी बातें समझा देगा । निशि, देखना उससे भी ज़्यादा काबिल बनकर दिखला देगी । उसके दिमाग में इस समय सिर्फ़ निशि ही निशि थी । वह निशि के बास ज़ल्दी से ज़ल्दी पहुँच जाना चाहता था ।
रमाशंकर ने कार से नीचे उतरकर चाहों तरफ़ नज़र डाली । शाम पूरी तरह से उतर चुकी थी ।पेड़ जो उसके पास दौड़ रहे थे । अब अँधेरे का हिस्सा बनते जा रहे हैं । ऊपर आसमान में सितारे चमकने लगे थे । हवा तेज़ थी और लुभावनी लग रही थी । रमाशंकर न कुछ पल रुकने के बाद ड्रायवर से कहा कि- अब गाड़ी मुझे चलाने दो । ड्रायवर ने स्टेयरिंग छोड़ी और बगल में बैठ गया । रमाशंकर कार की स्टेयरिंग पर था । उसका पैर एक्सीलेटर पर कुछ ज़्यादा ही दबाव बना रहा था । रमाशंकर को इसका अहसास ही नहीं था कि उसकी कार की रफ़्तार कितनी है... वह अपने विचारों में ही डूबा हुआ था । सामने से आती गाड़ियों की तेज़ रौशनी उसकी आँखों को बार-बार उलझन में डाल रही थी । रमाशंकर ने लम्बी सड़क पर बहुत समय बाद कार की स्टेयरिंग को संभाला था । उसे एकाध बार तो सामने की गाड़ियों से अपनी कार को बचा ले जाना बहुत कठिन पड़ा । कार पेड़ से लगभग टकराते-टकराते बची थी । एक मोड़ पर ऐसी, स्थिति आइ कि रमाशंकर से कार संभली ही नहीं और वह तेज़ रफ़्तार के कारण सामने की दो-तीन गाड़ियों से टकराती-फिसलती बगल की ढलान में उतर गई । कार का बगल वाला दरवाजा ड्राइवर के हाथ से न जाने कैसे खुल गया ता जिससे ड्राइवर घिसटता हुआ एक पेड़ की टहनी से उलझकर ठलान में अटक गया लेकिन रमाशंकर कार के साथ नीचे ढलान में फिसलता चला गया । कार ने कई पलटियाँ खाईं । ड्राइवर कुछ समय की बेहोशी के बाद लहुलूहान हालत में उठा । वह मदद के लिए पुकारता रहा । किसी ने आवाज़ सुनी और लोग भी रके । जमा हए लोगों ने कारऔर रमाशंकर कीतलाश शुर की । बड़ी टार्च और सर्चलाइट की मदद से रमाशंकर को आख़िर ढूँढ लिया गया । रमाशंकर की हालत देखकर उन्हें तलाशने गये लोगों के सामने सारी तस्वीर स्पष्ट थी । पास पहुँच ने पर ड्राइवरने देखा कि रमाशंकर का मोबाइल बज रहा है । उसने रमाशंकर लोगों की मदद से ठाया और ठीक जगह पर लिटाकर मोबाइल का बटन दवाया तो आवाज़ उभरी- पापा,पारा... कब से ट्राइ कर रही हूँ...आपने मुझसे बात क्यूं नहीं की...स जाओ मैं आप से नहीं बोलती..., आप तो शाम 6-7 बजे तक मेरे पास आ जाने वाले थे । रात के दस बज रहे हैं । बोलो न पापा, अभी आप कहाँ हैं, अभी आप कहाँ हैं पापा...
दिल्ली सी बीस किमी की दूरी बची थी । ड्राइवर ने मोबाइल पर निशि की आवाज़ सुनी, पर वह कुछ उत्तर नहीं दे पाया । रमाशंकर उसके सामने थे...और निसि के पास उसे पहुँच ना था । रात अभी बहुत ज़्यादा गहरी नहीं हुई थी, पर उसे उथली रात भी नहीं कहा जा सकता था । पेड़ अँधेरे में डूब गये थे और उन पर तैरकर उतरने वाले पंछी गायब थे । ड्राइवर ने कान के पास से मोबाइल हटा लिया था । निशि की आवाज़ नहीं, बल्कि विचारों में निशि उसके सामने मौजूद थी । रमाशंकर नहीं यही तो कहा था- निशि सब पूरी तरह से समझदार हो गई है । वह सारा कुछ संभाल लेगी ।

मौन हो जाता है समुद्र भी कभी


हम एक चढ़ाई से उतरकर दूसरी चढ़ाई पर चढ़ रहे थे । पेड़ ऊंचे और घने थे । आजकल उसे चढ़ाई और उतार दोनों के बीच भेद करने में बड़ी परेशानी होने लगी है । पहले वह अपने शहर की सबसे ऊँची चली गई सड़क की चढ़ाई धूपभरी दोपहर में और पैदल चलकर आसानी से चढ़ लेता था, पर आज उससे कार पर भी चढ़ाई चढ़ी नहीं जा रही है । कार ऊपर चढ़ रही है और भीतर वह हाँफ रहा है ।
गर्मियों का मौसम नहीं है । गर्मी अभी पास से होकर गुजरी है । हवा के झूले पर झूलते पेड़ उसके सामने से गुज़र रहे हैं । पर, उसका द्यान उसकी ओर नहीं है ।अखिल उतर गया था । रास्ते में । शिशिर से उसकी बहस हुई थी । वह सोच रहा था कि कितनी सड़ी-सी बात पर शिशिर ने उससे बहस की । शिशिर के पास अनुभव नहीं है । वह क्या नहीं कर सकता …? आज उसके इशारे से हर बात हो सकती है, पर शिशिर मानता नहीं, इस बात को ....खैर, कभी समझेगा ।...मुझे क्या...। समय के साथ वह भी समझ जाएगा कि सच क्या है । सिर्फ़ लड़की और बीयर को ज़िंदगी बनाकर नहीं जिया जा सकता । एक समय तक ठीक है, फिर..., उसके बाद ज़िंदगी अलग हो जाती है । शिशिर के पास स्टील फैक्टरी है । दो-तीन कृषि फार्म हैं । महानगर की सबसे महंगी कॉलोनी में उसका घर है । उसकी अच्छी स्थिति और बुरी लगने वाली चाल को सबने मान्य कर लिया है । अब किसी को दिक्कत नहीं है ।
फिर, कार सड़क की ढलान पर है । चक्करदार सड़क पर कभी नीचे उतर कर कभी ऊपर खिंचते हुए वह सोच रहा है । कार के शीशे के बाहर उसकी नज़रें आकाश पर हैं । उसने एक बीयर पी थी । नशा थोड़ी देर में हल्का लगने लगा है । उसने ड्राइवर से कार सड़क से थोड़ा नीचे उतारकर रोकने कहा ।फिर उसने ड्राइवर से कहा कि दो-बीयर निकाल लाये । बर्फ के बड़े बॉक्स में पड़ी बीयर ठंडी थी । उसे कल वाली लड़की याद आ गई । लड़की क्या...एक नाम था । रात भर को बिस्तर पर आने वाली लड़की । कोई नाम दे सकते हैं उसे । पर उसकी एक लाइन बीयर की झनझनाहट में अब भी गूँज रही थी ।... हर लड़की एक दिन औरत बन जाती है । एक पूरी औरत...। उसे थोड़ा नशा चढ़ रहा था .लड़की ने आगे कहा था-... पर लड़की से औरत बनती हुई लड़की को यह मालूम कभी नहीं पड़ता है कि पत्नी और औरत में कितना अंतर होता है ...। समाज खूब नया हो गया है ...। लोग नये हो गये हैं । होटल नये हो गये हैं । होटलों की सज़ावट नई से नई होती जा रही, पर...। वह रुक गई । उसने पूरे गिलास भर बीयर डाली और आधा गिलास एक झटके में गटक गई । अब वह अधलेटी से उसके ऊपर थी और उसने उसी अंदाज़ में लम्बी सिगरेट जला ली । कमरे की छत की तरफ़ उसने धुएं के गुब्बारे उड़ाये । वह कुछ पल ऊपर देखती रही ।
वह चुप था । उसने अपनी बीयर का गिलास मुँह से लगा लिया । वह काली सिगरेट पीता था और उस पर लदी सफेद सिगरेट पी रही थी । उसने लड़की को अपने ऊपर से उठाया नहीं और न ही फिलहाल उसे उसके बदन से खिलवाड़ का मूड था । वह गटागट नहीं, बल्कि धीरे-धीरे बीयर पीना चाहता था । एक गिलास बीयर को एक घंटे में । जबकि, लड़की आधी बोतल बीयर दस मिनट में पी गई थी । उसे लगा कि एक सिगरेट और पी ली जाए । वह कुछ सोच रहा था । अभी उसका लड़की पर ध्यान नहीं था । लड़की उस पर लदी थी । लड़की सुंदर थी... उम्र को वर्ष से नापने वाले अंदाज़ से कहीं ज़्यादा सुन्दर । वह यह नहीं सोच रहा था कि लड़की सुन्दर है...और रात के बाद चली भी जाएगी...। से लड़की से ज़्यादा सिगरेट और बीयर में मजा आ रहा था । अधलेटी लड़की उसके ऊपर चढ़ती आ रही थी ।
उसकी कार चक्करदार पहाड़ी रास्ते पर आधी दूरी तक चढ़ आई थी । बीयर की झनझनाहट में रात साथ छूट जाने के बाद भी वह लड़की अभी तक सकेध्यान से क्यूं नहीं उतरी ।पहले तो ऐसा नहीं होता था । शिशिर के साथ यह ज़रूर था कि वह बिस्तर सी चली गई लड़की को लम्बे समय तक और बार-बार याद करता था । यहाँ तक कि वह अपनी पत्नी को छोटी-छोटी सी बात का जब-चब जिक्र करता रहता था । सड़क के किनारे खड़ी कार के भीतर एक गिलास बीयर वह एक झटके में पी गया । उसने दूसरी बार भी एक गिलास भर बीयर डाली और पी गया । एक-साथ दो गिलास बीयर पी जाने के बाद सोचा- इस तरह एकसाथ और एक झटके में उसने कब बीयर पी थी । उसे इस समय ऐसा कुछ याद नहीं आ रहा था ।
एक बार फिर कल वाली लड़की उसके ख्याल में आ गई । उसे मालूम है कि वह उस लड़की के ख्याल से बचने के लिये... या, फिर उसकी मीठी याद से जुड़ने के लिए बीयर नहीं पी रहा था । उसे एक लड़की सिर्फ़ एक लड़की से ज़्यादा और कुछ नहीं लगती थी । पर, यह लड़की उसे दूसरी बार क्यूं याद आ रही है ।
वह उसके ऊपर अधलेटी है । वह सिगरेट के छल्ले बवा में उछाल रही है ।उसने कहा था- हर लड़की एक दिन औरत बन जाती है, एक पूरी औरत । पर लड़की से औरत बनती लड़की को कभी नहीं मालूम पड़ता कि पत्नी और औरत में कितना अंतर होता है। वह पूरी रात उसके ऊपर और नीचे होती रही । वह समय को कभी गिन कर अथवा केलकुलेटर के हिसाब से नाप नहीं पाता । उसे इतना ज़रूर याद है कि उसने जाते समय कहा था कि वह अब तसल्ली से एक पूरी बोतल बीयर पीना चाहती है । उसने तब अपने पैकेट में पड़ी दस-बारह सिगरेंटे एक-एक करके ऊँगलियों से तोड़-तोड़कर फेंक दी थीं । हर लम्बे घूंट के बाद वह सिगरेट को लगभग झटके से तोड़कर फेंकने का प्रयास करती । कभी उसकी ऊंगलियाँ तेज़ चलती थीं ... कभी धीमी हो जातीं । वह बीच में कुछ रही हो, ऐसा भी नहीं लगात था सने अपनेबांये पैर को दायें पैर के ऊर रख लिया था । उसे अपी सुन्दरता का न तो भान था और न उसने कभ यह जताने का प्रयास किया । वह बोतल भर बीयर पीने तक उसी में उलझी रही और सिगरेट तोड़ती रही । बीयर का आखिरी गिलास पीते समय उसने उसकी तरफ़ आँखें उठाई । वह उनींदी और नशे में थी । उसने जाते समय तक कोई बात नहीं की.... न रात की... और न ही किसी शिकायत की बात वह उनींदी थी, पर उदास नहीं । पर उसकी आँखें दूर बहुत दूर चली गई थीं । उसने जाते समय बस एक सिगरेट माँगी थी ।
-‘तुमने तो इतनी सारी सिगरेटें तोड़ ड़ालीं...,पूरा ढ़ेर लगा है नीचे...,यहाँ से वहाँ तक...दूर-दूर तक उछाल कर फेंकी है तुमने सिगरेटें...।’ पूरी रात लगभग न बोलने की स्थिति के बाद पहली बार वह लड़की के सामने खुला था ।
-‘मुझे काली वाली सिगरेट पीनी है...मुझे लगा कि बड़े लोग ऐसी सिगरेट पीते हैं...तो मुझे भी काली सिगरेट पीनी चाहिए ।’ उसकी जुबान लड़खड़ा नहीं रही थी । वह उनींदी तो ज़रूर थी ।
उसने लड़की को सिगरेट निकाल कर दी । बारिश थमने के बाग जुलाई के महीने के आखिरी दिन थे । हवा में काफी ठंडक है और वह खिड़की से टकरा कर भीतर चली आ रही है । हलकी सुबह आकाश से उतरने लगी है ।
-‘पूरा पैकेट रख लो ।’ उसने कहा था ।
-‘नहीं...। मैं यह नहीं कहूँगी कि बाक़ी आपके काम आएगी...पर, एक चाहिए । यह ज़रूर कहूँगी कि रईस बनने का अपना ही मजा है । एक दिन ऐसी ही काली सिगरेट के साथ फिर मिलूंगी ।’ यह कहते हुए पहली बार लड़की उदास हुई थी । उसने लड़की को पूरी रात न तो उदास देखा और न ही कुछ सोचता हुआ पाया ।
वह तोड़कर फेंकी गई लम्बी सफेद सिगरेटों के टुकड़ों के ऊपर से चलते हुए उसका हाथ दबाकर निकल गई । न उसने नज़रें झुकाईं और न ही नज़रें मिलाईं । उनींदी लड़की मस्त चाल में उसके सामने से निकल गई । एक बार कुछ दूर जाकर वह लौटी । बीच में रूक कर कुछ सोचा । पर, उसके पास लौटी नहीं । मुड़ कर वह कार की तरफ़ बढ़ी । लड़की की कार सड़क पर दौड़ रही थी ।
सड़क के किनारे खड़ी कार में उसने सटासट दो गिलास बीयर पीने के बाद कुछ सोचा । उसे याद आया कि वह आनंद को बीयर का ऑफर करना भूल गया था । ऐसा अक्सर होता है । उसने न तो आनंद से इसके लिए माफ़ी माँगी और न इसे ज़रूरी समझा । उसने कहा- ‘आनंद तुम भी लो ।’ आनंद ने दूसरी बोतल ली और एक गिलास उठा लिया । अब वह बोल रहा है- ‘यकीन मत करो...तुम किसी पर यकीन मत करो...।’ मेरी बात मानो...और यह थोड़ा समय...समय का एक पूरा टुकड़ा बीतने के बाद बताऊँगा मैं...। मैं...यानी हम...हम बतायेंगे यह बात...। हम पर तुम्हें यकीन करना चाहिए...विश्वास करना चाहिए...। यदि ‘हाँ’ बोलो तो आगे चलूं ।’ उसने कहा और वह चुप रहा ।
‘...।’
- ‘समझो...चुप रहने से भी कुछ नहीं होगा...और, हाँ, ज़्यादा बोलने से भी नहीं...। हमें अपना संतुलन बना कर रखना चाहिए...और ‘संतुलन’ हमेशा बनाए रखना चाहिए । और यह भी कि...जब अपने मन में लगे कि ‘संतुलन’ तोड़ देना चाहिए...तो, संतुलन तोड़ देना चाहिए...। ऐसा करते समय लम्बा सोचना नहीं चाहिए...। ‘संतुलन’ बनाने के लिए सोचना चाहिए, तोड़ने के लिए कतई नहीं । तोड़ना है तो, फिर सोचना क्या...? देखो नदी कभी नहीं सोचती...। नदी कई बार समृद्धि का कारण है तो कई बार विनाश का कारण भी । यह मानो कि समृद्धि और विनाश एक साथ घूमते रहते हैं...ऊपर-नीचे...। किसी को तुम ‘ऊपर-नीचे’ मान कर पक्के तौर पर...और हाँ पक्के तौर पर परिभाषित नहीं कर सकते...। अब बोलना है तुम्हें...? तुम बोल सकते हो...? बोलना चाहिए, तुम्हें भी? पर, विरोध के लिए बोलना है या तर्क करने के लिए बोलना है तो मत बोलो...? इससे बेहतर तुम्हें चुप रह जाना चाहिए तुम्हें नहीं...तुम जैसे तुम जैसे सब लोगों को चुप रह जाना चाहिए...। क्यूंकि, बोलने से कभी कुछ नहीं बदलता...। बदल सकता है जो कुछ भी, वह भीतर से...। हमें अपने ‘भीतर’ को बेहतर बनाना चाहिए..., ‘भीतर’ यानी आत्मा को बेहतर बनाना चाहिए...। अपने आप को बेहतर बनाना चाहिए ।
‘...।’ उसने कुछ नहीं कहा । वह अपने बोलने का अधिकार मन ही मन छोड़ता जा रहा था ।
- ‘बोलो! आनंद..., बोलना चाहिए । पर, क्या बोलना चाहिए...यह ज़रूर पता हो । बोल कर कोई भी बड़ा नहीं होता...। और मानो कि बोल कर कोई बड़ा हो भी नहीं सकता...। इसलिए, बोलने से बचना चाहिए । आज मजाक का विषय हो सकता है- कि, ... ‘कर्म करो और फल की चिंता मत करो...।’ पर, मजाक कभी भी गंभीर चीज़ों का नहीं किया जा सकता...। लोग करते हैं तो करें...। तुम, इससे बचो नहीं...पर, इस तरह के मजाक में शामिल मत हो...रहो..., जहाँ ‘उपस्थिति’ को सहमति माना जाना है...। वहाँ तो तुम्हें बिल्कुल भी नहीं जाना चाहिए...यदि, इसमें सलाह भी ज़रूरत पड़े तो ‘अतीत’ और ‘इतिहास’ पर नज़र डाल सकते हो...। सहमति हमें बनानी चाहिए...पर, हम सहमत हैं ऐसा कोई मान ले...इससे बचना चाहिए । तुम तो आनंद हो...तुम्हें इसकी समझ स्वतः होनी चाहिए । अगर आनंद को यह बताना पड़े कि सही-क्या...और गलत क्या...! तो, फिर यही सही कि मुझे तुम्हें चुप रहने की बात कहने की बजाय स्वयं चुप हो जाना चाहिए...। और, सच मानो! चुप रहने से ज़्यादा आनंद कहीं नहीं है ! तुम..., चुप रहोगे तो... तुम ख़ुद देखोगे कि जगत की सारी मौन चीज़ें बोलने लगती हैं..., ये मौन चीज़ें हमारी हमारे सामने क्यूं बोलने लगती हैं...। हमारे मौन होते ही जंगल की सारी चींजें क्यूं बोलने लगती हैं । अगर, आनंद तुम्हें समझ में न आए कभी तो अखिल से पूछना...! अखिल, मुझसे अच्छी व्याखअया कर लेता है... बस !
- आनंद फिर भी चुप रहा ।
उसे मालूम था कि आनंद कुछ भी नहीं बोलेगा । वह जानता है कि आनंद चाहे तो बोल सकता है । पर, क्यूं नहीं बोलते आनंद...। उसकी निगाह खड़ी कार के बाहर के दृश्यों पर दौड़ जाती है । दोपहर से शाम की तरफ़ बढ़ता समय । जुलाई महीन के आखिरी दिन । चढ़ाई की चक्करदार सड़क के बीच के हिस्से में खड़ी कार से अब वह बाहर निकल आया । पेड़ के तने से टिककर उसने एक गिलास बीयर अब धीमी गति से पीने का मन बनाया । अब वह धीमी रफ़्तार से बीयर पी रहा है । उसके ख्याल से लड़की की तरह अब आनंद भी उतराता जा रहा है । बीयर उसके भीतर उतर रही है और वह अपने भीतर ।
उसे चढ़ने-उतरने, ऊपर-नीचे होने और बार-बार उसी खेल में उतरते रहने का अर्थ कभी समझ में नहीं आता । पहले तो वह अर्थ समझना चाहता था । बीच-बीच में उसने इन अर्थों को समझने का प्रयास भी किया । लेकिन अब वह ऐसे किसी अर्थ को समझना नहीं चाहता । उसने पेड़ के तने से अपनी पीठ हटा ली । अब वह एक बड़े से चौड़े पत्थर पर बैठा है । उसने दो घूंट बीयर और पी । एक सिगरेट निकाली । वह धुएं के छल्ले बनाने लगा जो हवा पर ऊपर उठने लगे । उसकी निगाह सिगरेट के छल्लों पर नहीं थी...और न ही वह बादलों को देख रहा ता । ज़मीन की तरफ़ सिर झुका कर वह आँखें बद कर कुछ सोच रहा था । ज़मीन पर झुके सिर और बंद आँखों के बावजूद उसके चैतन्य मन्य पर तस्वीरों की झिलमिल कतार चली जा रही थी, जो बंद आँखों के बावजूद उसके चैतन्य मन्य पर तस्वीरों की झिलमिल कतार चली जा रही थी, जो बंद आँखों के बावजूद उसकी नज़रों के सामने चल रही थे । जब उसके कुछ पराने चित्र...चित्र नहीं, बल्कि अपनी पुरानी तस्वीरें नज़र आईं तो ठहर गया । न तो उसने सिर उठाया और न ही आँखें खोलीं ।
कोई दिन का नौ सवा नौ बजा होगा । उसके हाथ में अर्जी है । उसे वह अर्जी बी साफ दिख रही है और जिसे अर्जी दिना है, वह भी साफ दिख रहा है । अर्जी लेने वाला उसे दिखता है । मुस्कुराता है । वह कोई बात नहीं करता है । जोर से आवाज़ देता है- पी.ए...., पी.ए. को बुलाओं । पी.ए आता है, वह उसकी अर्जी पर देके लिखता है । तुरंत घंटी बजाता है । विधानसभा जाना है, गाड़ी लगाने कहो । पी.ए दौड़ता है । वह खड़ा है । देख रहा है । गाड़ी लगती है । आगे वह है, पीठे गन मैन चल रहा है ।उसने देखा वह उसे देख रहा है और वलह जाते समय उसके हाथों में रखी अर्जी पर लिख गया है- देखें । वह अर्जी को देख रहा है । वह समय को देख रहा है । वह अपने आपको देख रहा है । सब लोग उसे देख रहे हैं ।
उसे किसी का ख्याल नहीं है । वह अपने हाथों पर रखी अर्जी को पढ़ने लगता है । उसे इस बात पर गुस्सा नहीं आता है कि उसका मित्र जैसा भाई मंत्री बन गया है । वह मित्र जो ज़मीन पर उसके साथ बैठा रहता था । राजधानी के दफ्तरों पर, बैंच पर उसके साथ बैठा रहता था...वही भाई उसके हाथों पर लिखकर चला गया...देखें.... देखें.... देखें...। कितना छोटा सा शब्द है न देखें...। वह देख रहा है । समय को भी...और उसे भी जो लिखकर चला गया .... देखें..। अब उसका लिखा यह शब्द वह किस-किस को दिखाता रहेगा । उसे लगा कि यह अर्जी उसने फेंक कर वापस उसके मुँह पर क्यूं नहीं मार दी ।... वह क्यूं इतना सहनशील हो गया । उसे कतई सहनशील नहीं होन चाहिये था । पर, उसे याद आया कि यह अर्जी, उसे नहीं फाड़नी चाहिए... और साफ-सीधी बात यह है कि वह अर्जी फाड़ ही नहीं सकता ।पर, उसने यह ज़रूर तय किया कि वह भी देख लेगा । वह समय को देखने लगा । वह बदलते समय को गेखने लगा । वह उस सफेद टुकड़े को लिए कुछ पलों तक चुप खड़ा रहा । लोग उसे देख रहे थे । वह लोगो को नहीं देख रहा था । वह सोच रहा था । वह यह नहीं सोच रहा था कि उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था...बल्कि, वह यह सोच रहा था कि उसने ठीक ही किया जो यहाँ आ गया । वैसे वह विश्वास कर रहा था कि मंत्री-जैसा वह भाई उसकी ‘अर्जी’ पर ‘देखें’ लिखने की बजाय उसके साथ चल पड़ेगा । वह भीड़ में अपनी बात बोलने की बजाय अपनी तकलीफ का उसे बारीकी से अहसास कराना चाहता था । उसे आश्चर्य तब भी नहीं हुआ कि ‘भाई’ ने बिना पढ़े अर्जी पर लिख दिया...‘देखें ।’ वह सिस्टम जानता था कि ‘देखें...’ मतलब चक्कर खाना है । सिर्फ़ चक्कर नहीं बल्कि चक्कर-दर-चक्कर...। उसे अब चक्कर से चिढ़ नहीं...। पर वह इस अर्जी के लिए चक्कर लगायेगा । शर्म नहीं करेगा । उसे लगा कि उसे ठीक समय पर अपनी बात के लिये मंत्री-जैसे भाई का नजरिया समझ में आ गया । अब उसे दूसरे के मामले में कोई दिक्कत नहीं होगी । वह तो यह बाजी ख़ुद जीत लेगा । वह चाहे तो ‘चक्कर’ न भी लगाये...पर वह चक्कर लगायेगा ।
उसने धीर-धीरे कदम बढ़ाये । वह बाहर निकल आया । ...‘कबीर तेई पीर है, जो जाने पर पीर...,जो पर पीर न जानहि है...सो काफिर बेपीर ।’ उसे यह लाइनें आज कितनी गंदी लग रही थीं । अचानक उसने देखा कि चलती तस्वीरों से उसका चेहरा गायब हो गया । वह ऐसे ही आठ-दस गड्ड-मड्ड दृश्यों पर एकसाथ खड़ा है । वह उम्मीद में है कि उसे प्रथम प्राथमिकता मिलेगी । ...आश्चर्य...वह खड़ा है । ...वह खड़ा है । ...वह खड़ा है । ...और वह खड़ा ही है...।
यह दृश्य आज उसे क्यूं अचानक दिख रहे हैं । उसने अचकचा कर आँखें खोल दीं । वह बहुत जोर से चीखा- ‘ड्राईवर...ड्राईवर...।’ वह चाहता तो ड्राईवर को नाम लेकर बुला सकता । उसे याद नहीं पड़ता कि उसने अपने कार के ड्राईवर को कभी चींख कर अथवा जोर से बुलाया हो । ड्राईवर ख़ुद उसकी निगाह और ऊँगलियों की तरफ़ आँख टिकाये रहता ।
ड्राईवर आया । वह कुछ बोला नहीं । उसने आने के बाद गिलास की बची बीयर एक झटके से पी ली । वह समझ नहीं पा रहा है कि उसे आज क्या हो गया है । वह समझना भी नहीं चाहता था ।
‘बीयर बाक्स’ से एक बीयर खोल कर दो और शिशिर के फार्म हाउस...।’ उसने जोर से कार का ढ़क्कन बंद किया । वह कार के दरवाजे को कार का ढ़क्कन ही कहता...और बड़ी बेहूदगी से उसका इस्तेमाल करता । कार का ड्राईवर और आनंद की जगह कोई साथ होता तो सोचता कि वह बेहद गुस्से में है । उसने करीब दस बरसों से गुस्सा छोड़ दिया था । ...वह कभी कहता भी कि- ‘गुस्सा करो भी किस स्साले पर...।’ पर, यह बात भी वह गुस्से में नहीं कहता था ।
वह मौन होता चला जा रहा है । वह उनींदा है अभी । वह गुस्सा हो सकता था । उसे लग रहा ता कि शिशिर की कल की बहस के लिए उससे लड़े, कहे कि एक स्टील फैक्टरी और तीन फार्म- हुऊस रखने के बाद क्या औकात है तेरी...। वह शिशिर से, पर यह नहीं कहेगा । उसने तो तय कर लिया है कि वह किसी से कुछ नहीं कहेगा ।
वह खुली बीयर इस बात गिलास से नहीं, बल्कि बोतल से पी रहा है । उसने ड्राइवर से कहा- गृह मंत्री...और फिर शिशिर से बात कराऔ .उसने मोबाइल पर कहा- शिशिर तुम फार्म हाऊस पहूँचो... मैं आ रहा हूँ ।.....थोड़ी देर में गृह मंत्री पहूँचेंगे । उसने शिशिर से कल हुई बहस का कोई जिक्र नहीं किया । अपने मोबाइल पर शिशिर केतीन शब्द सुनाई दिए- आ रहा हूँ ।
कार सड़क पर दौड़ रही है । वह गिलास से नहीं बोतल से मुँह लगाकर बीयर पी रहा है । बोतल आधी खाली हो चुकी है । उसे पहले नींद आ रही थी । पर, अब वह जाग गया है । उसके हाथों पर मंत्री-जैसी भाई का यह शब्द अभी भी टंका है- देखें । पर, उसके हाथ पर कभी की रखी हुई अर्जी आज गायब है । अर्जी की जगह उसके हाथों पर यह शब्द लिखा है- देखें । वह अपने हाथों को देख रहा है । वह हाथों को देख रहा है । वह हाथों को झटकता है । ऐसा नहीं हो सकता है । उसके हाथों पर देखें शब्द आज भला कौन लिख सकता है । वह हाथों को बार-बार झटकता है, पर अर्जी पर लिखा- देखें....। शब्द उसकी खांखों के सामने लगातार बड़ा होता जा रहा है । उसके मोबाइल पर अचानक आवाज़ उभरती है- सब, मैनेजिंग डायरेक्टर्स की बैठक आपने बुलाई है । दो घंटे से सभी आपका इंतजार कर रहे हैं । .......ठीक है.... उसने कहा और मोबाईल की बटन बंद कर दी ।
बोतल की बीयर एक तिहाई से कम बची थी । वह इस बार भी एक झटके से सारी बीयर पी गया । उसने बीयर की बोतल को अपनी हथेलियों पर नचा कर सकड़ पर फेंकना ही चाहा था कि रुक गया । लेबल पर लिखेनाम पर नज़र पड़ी । वह अपनी ही बनाई फैक्टरी की बीयर पी रहा था ।.... देश की सबसे बड़ी कंपनी की बीयर.... अपनी फैक्टरी की बीयर ।
शिशिर के फार्म हाऊस पर गृह मंत्री की कार पहुँच रही थी । वह ठीक सामने से होकर अपनी फैक्टरी की तरफ़ बढ़ जाना चाहता था । उसे गृह मंत्री से मिलकर बैठने की बजाय अपनी मैनेजिंग डायरेक्टर्स की मीटिंग ज़्यादा ज़रूरी नज़र आ रही थी । उसने फैक्टरी के गेट तक पहुँच ने के ज़रा पहले ड्राइवर से कहा- निखिल अनुज से कहो कि मीटिंग लेकर बस अभी आया । ड्राईवर्स को मालूम है निखिल अनुज गृह मंत्री हैं । उसकी हथेलीयों से देखें शब्द गायब था । वह अपने चेम्बर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था । उसने सिगरेट जलाई । सिगरेट केकाले रंग पर नज़र प़ड़ी तो उसे लम्बी सफेद सिगरेट तोड़ने वाली लड़की यकायक याद आई उसने तीरसी बार यह नहीं सोचा कि यह लड़की उसके जेहन में क्यूं आई । वह धुएं के छल्ले हवा में बनाता ऊपर सीढियाँ चढ़ रहा था ।

मोड़


दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई वह जल्द सब काम छोड़ दरवाजे की तरफ़ बढ़ी । दस्तक की आवाज़ जानी-पहचानी थी....। सदा की भाँति दरवाजे पर हल्का प्रहार । दो हल्की-सी चिरपरिचित थपथपाहट...। बरामदे से होकर वह दरवाजे तक पहूँची, ज़ल्दी से कुण्डी खोल दी । लेकिन सामने एक अपरिचित सा चेहरा नज़र आया...। वह चौंक गयी...। आज पहली बार उसे भ्रम हुआ । सामने एक अपरिचित सा चेहरा नज़र आया...। वह चौंक गयी...। आज पहली बार उसे भ्रम हुआ । सामने अमित की जगह एक अंजान आकृति थी...जिसे देख वह सहसा चौंक गई । ज़ल्दी से पीछे हटती हुई, दरवाजा बंद करने के लिये हाथ बढ़ाने लगी तभी आवाज़ सुन उसके हाथ वहीं रुक गये...। ‘आप अमितजी की श्रीमती हैं ।’ हवा में तैरते हुए शब्द उसके जेहन में प्रवेश कर गये...। अपनी घबराहट को छिपाते हुए ख़ुद को संयत करते वह बोली- ‘जी हाँ ।’ ...फिर कुछ पल ख़ामोशी छा गई । वह अंजान युवक कुछ क्षण तक उसके चेहरे तो पढ़ने की कोशिश करता रहा । अपनी इस हरकत को छुपाते हुए दुबारा बोला- मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं, इतना कहकर उसने नज़र इधर-उधर दौड़ानी शुरू कर दी । घर की साज-सज्जा...सलीके से लगी तस्वीरें...कुछ फर्नीचर ।
इन सबको भेदती हुई उसकी नज़र फिर वहीं लौट आई जैसे जवाब का इंतजार कर रही हो और उसे अपनी बात कह देने की उत्सुकता हो । ‘देखिये, अमित जी घर पर नहीं हैं और उनसे बाद में बात कर लीजियेगा...,इतना कह वह चुप हो गई...मगर वह अपनी बात कह देना ही चाहता था । उसने मिसेज अमित की ओर देखकर फिर कहना शुरू किया- ‘मुझे मालूम है...अमित जी घर पे नहीं हैं..वो कुछ देर पहले ऑफ़िस की तरफ़ जा रहे थे । शायद आज ज़ल्दी थी उन्हें । नहीं तो मेरे पास रोज़ आते...फिर हम ऑफ़िस की ओर चल पड़ते मगर...।’ वह युवक कुछ गंभीर हो गया । चेहरे में एक गहरी गंभीरता उभर आई । -‘मगर आज किस्मत को कुछ और मंजूर था । कुछ दूर जाने के बाद उनकी मोटर सायकिल तेज़ रफ़्तार से आ रही ट्रक से टकरा गई...।’ फिर अजीब सी ख़ामोशी उन दोनों के बीच फैल गई...। ‘अब वो अस्पताल में हैं ।’ इतना कह वह युवक फिर न ठहर सका ....। थके क़दमों से आगे बढ़ता हा दरवाजे और मुख्य द्वार की दूरी तय कर धीरे-धीरे ओझल हो गया । किरण उसे देर तक देखती रही । फिर उसने ज़ल्दी से टैक्सी की और अस्पताल के बरामदे तक पहुँच कर रुक गई । वह युवक यहाँ भी नज़र आ गया । वह उसे देखते हुए आगे बढ़ी और पूछने के बाद उसे अमित के कमरे का पता चला । वह कमरे में पहूँची । सामने अमित निश्चल पड़ा था । बिल्कुल शांत व स्पंदनहीन । उसकी आँखों में आंसू तैर आये । अमित ख़ामोश था, ठीक अस्पताल के वातावरण की तरह...। किरण को जब अमित की दुर्घटना की सच्चाई का पता चला तो वह चीक कर रह गई । अमित का आधा हिस्सा दुर्घटना के बाद बेकार हो गया था । वह अमित के पास ही बैठ गई और उसके सर पर हाथ फेरने लगी । किरण की बेचैनी और भी बढ़ गई । ज़ल्दी-ज़ल्दी हाथ फेरते हुए वह अमित के चेहरे को ताकती रही । उसके सामने के दृश्य धुंधले होते गये और अतीत सजीव हो आया ।
आज से ठीक चार साल पहले के व सुखद व स्मरणीय दिन...। सारा का सारा जीवन प्रेम से सरोबार था...। उसे घर से असीम प्यार मिला..। दौलत भी बेशुमार थी...। कालेज के दिन । सब कुछ तो उसके लिये खुशी लिये चले आ रहे थे । इसी बीच उसकी पढ़ाई समाप्त हुई ।....और फिर शादी । हाँ, अमित ही उसकी ज़िंदगी में हमसफर बनकर आया...। जहाँ से ज़िंदगी में नया मोड़ शुरु हुआ और वह नई दुनिया की ओर बढ़ चली ।
हाँ याद आया । अमित की छबि मन दर्पण में उस दिन पहली बार उतनी थी...। अमित कॉलेज के रंगमंच पर... नाटक के संचालन के साथ उस नाटक में अबिनय भी कर रहा था...। बहुत ही ह्रदयस्पर्शी भूमिका चुनी थी उसने...। उसकी भूमिका सभी के दिलों में उतरती चली गई थी...। नाटक समाप्त होने के बाद लोग अमित को बधाई देने पहुँचे...। मगर वह ऐसा न कर पायी । दिल तो हो रहा था मगर कदम उस ओर बढ़ नहीं पा रहे ते...। वह चुपचाप बैठी रही...। लोग वापस लौटने लगे...। हाल धीरे-धीरे खाली होने लगा था... वह भी उठी और तेज़ क़दमों से हाल के बाहर आ गई...। बाहर चंचल पवन उसके ज़िस्म से लिपट रही थी और खुले केश बार-बार चंचल हवा में लहरा जाते । उसने आकाश की ओर निहारा...चांद गगन में सम्पूर्ण आभा लिये हुए तीरे-धीरे बढ़ा जा रहा था । जैसे उसे भी कहीं पहुँच जाने की ज़ल्दी हो ...। वह घर की ओर चल पड़ी ।
सुबह कुछ देर से नींद खुली ।वह बालकनी में पहूँची । लॉन की ओर देखा और चौंक पड़ी ...। सामने वही छबि नज़र आ गई...लॉन में पड़ी चार-पाँच कुर्सियों में से एक अधलेटी मानव आकृति...। हाँ अमित ही तो था... उसे आश्चर्य भी हुआ । वह यूँ खड़ी एकटक देएखती रही...। कुछ देर बाद अमित उठा और नमस्ते कर जाने लगा...। किरण दूर खड़ी उसे अपने से दूर जाते देखती रही । फिर वही छबि कुछ दूर जाकर मुख्य मार्ग में प्रविष्ट हुई और भीड़ में गुम गई ।
फिर यूँ न जाने कितनी बार अमित से आमना-सामना होता रहा । कभी घर में तो कभी कहीं और...। फिर यह मुलाकात जान-पहचान में बदल गई और फिर अमित हमेशा के लिए उसका जीवन साथी बन गया । माँ व पिताजी ने किरण की राय ली...। सामाजिक रीति-विराज के अनुसार किरण और अमित की शादी कर दी गई...।
छोटा सा फ्लैट...। सभी सुविधाओं सहित था जहाँ सिर्फ़ अमित और किरण...भविष्य की कल्पनाएं व सपने थे । अमित इंजीनियर था । अभी दो वर्ष पहले ही उसे सर्विस मिली । वह भी किरण का साथ पाकर ख़ुश था ।दिन यूँ ही बीतते रहे । छः महीने गुज़र गये । एक दिन बात ही बात में अमित ने कहा- किरण मैं स्वतंत्र विचारों पर विश्वास नहीं करता...। हाँ अगर तुम किसी बात को छिपाने की कोशिश करोगी तो शायद बर्दाश्त न कर पाऊँ, किरण ने कहा- आज कैसी बात कर रहे हो अमित ... इसके पहले कभी तुमने ऐसे सवाल नहीं किये ।
-किरण मैं अतीत को नहीं कुरेदता...भविष्य पर विश्वास नहीं करता । सिर्फ़ आज पर जीना चाहता हूँ । आज में रहना चाहता हूँ । इसलिए चाहो तो तुम भी मेरा साथ दे सकती हो ।वैसे तुम्हारी अलग विचारधारा हो... पर मैं अपनी बात कर रहा हूँ ।
-अमित... रहा मेरी स्वतंत्र इच्छा का सवाल तो वह उस दिन ही समाप्त हो चुकी थी जब तुम मेरे जीवन में आये ते । अब तो तुम्हारी इच्छा ही मेरी इच्छा है । वैसे भी विवाहित नारी की स्वतंत्र इच्छा का महत्व बहुत कम होता है । वह तो पुरुष पर निर्भर होती है ।
-किरण मैं यह प्रश्न तुमसे किसी संदेह क वशीभूत होकर नहीं पूछ रहा बल्कि मैं हर क्षेत्र में उसे महत्व देता हूँ, जहाँ तक संबंधों का सामंजस्य बना रहे... जहाँ आपस में टकराहट की स्थिति न आये... मैं निर्भरता की बात नहीं मानता । बल्कि समानता पर विश्वास करता हूँ । हम अपने विचारों को एक-दूसरे पर लादना नहीं चाहते । बल्कि परस्पर एक-दूसरे को समझते हुए चलना चाहते हैं ।
-जहाँ तक संबंधों की बात है... तो नारी, पुरुष की अपेक्षा ज्लदी ही संदेह का शिकार हो जाती है, क्यों समाज यथार्थ पर विश्वास नहीं करता बल्कि कमजोर पक्ष को और कमजोर बनाता है । फिर भी अमित तुम वि्श्वास रखो, हम कभी संबंधों में दरार न आने देंगे...। हम एक-दूसरे के लिए जियेंगे...। हम हर संभव उस स्थिति को लाने का प्रयास करेंगे जो हमारे लिये अनुकूल व उचित हो ।
किरण इतना कह चुप हो गई थी…। अमित ने इधर-उधर की कुछ और बातें की । उसके पश्चात टहलने लगा । सोचने की मुद्रा में सिर पर हाथ फेरते हुए फिर एकाएक बोल पड़ा- ‘किरण चलो सैर कर आयें...। अभी वक्त क्या...अरे पाँच ही तो बजे हैं...। चलो आज का डिनर भी किसी रेस्तरां में लेंगे । देखो न ऑफ़िस के कारण टाइम ही नहीं मिलता । मेरी बातों से तुम नाराज़ तो नहीं हो किरण...। बात ही बात में शायद कुछ गलत कह गया, बुरा मत मानना...। मुझे लगता है, तुम बुरा मान गई, मुझे ऐसा नहीं करना था...।’
- ‘नहीं तो...मुझे कुछ नहीं हुआ...चलो चलें ।’ इतना कहकर किरण तैयारी में जुट गई । उसे अमित की ये बातें अजीब ज़रूर लगीं । मगर इन सब बातों का वह मतलब नहीं समझ पाई थी । कुछ समय के बाद वे घर से बाहर निकले । मुख्य मार्ग की भीड़ में खो गये । किरण चुपचाप अमित के साथ सूनी राह पर बढ़ती जा रही थी, मगर उस वक्त उसमें वो उत्साह नहीं था । किसी कोने में दबी निराशा ने मस्तिष्क को शिथिल बना दिया था । रास्ते में बहुत कम बातें हुईं । जो भी बातें हुईं उनका जवाब किरण ने ‘हाँ’ या ‘न’ सें दिया । वह किसी बात के बारे में उस वक्त अधिक कहना नहीं चाहती थी । काफी समय तक किरण उन्हीं विचारों की उधेड़-बुन में लगी रही । दूसरे दिन अमित ने किरण को सभी बातें समझा कर मना लिया । किरण अमित की बातों से नाराज़ तो थी पर अमित ने उसे यकीन दिलाया...। वैसे भी किरण जानती थी कि अमित ज़रूर मनायेगा...। अमित प्यार भी बहुत करता था किरण को...। मगर जज्बात के साथ ही यथार्थ पर उसे अधिक विश्वास था । इस तरह किरण और अमित के वे तीन साल अत्यधिक खुशी से प्रेमानुभूति में गुज़र गये...। इस बीच उनके जीवन में एक फूल सी बच्ची भी आ गई..। बड़े प्यार से अमित ने...उसका नाम ‘प्रीति’ रखा...उसकी तोतली बोलियों के साथ उन दोनों का वक्त यूँ ही गुज़रता रहा ।
वह यूँ ही अपने अतीत की दुनिया में खोई थी और अमित से जुड़े चित्र एक-एक कर उसके सामने उभर रहे थे । ...तभी ‘प्रीति’ की आवाज़ ने उसकी क्रमबद्धता भंग कर दी...। -... ‘मम्मी मेली गुड़िया पानी में गिल गई...चलो मम्मी मेरी गुड़िया ला दो ।’ किरण ने उसे गोद में उठाते कहा- ‘हाँ बेटे, हम तुम्हें दूसरी गुड़िया ला देंगे, बहुत अच्छी...खूब...बडी़...। साथ में खूब से और भी खिलौने ला देंगे । हमारी मुन्नी खूब खेलेगी...।’ इतना कहते-कहते किरण की आँखों में आंसू आ गये । - ‘मम्मी तुम लो रही हो...-प्रीति ने कहा ।’ किरण चौंकी और उसने कहा- ‘नहीं तो बेटे...और ज़ल्दी से आंसू पोंछ लिये ।’ ...इधर-उधर देखा, घड़ी की ओर नज़र ड़ाली । काफी वक्त बीत गया था...उसे अमित कहीं नहीं आ रहा था...उसे वे सब बातें स्वप्न सी लग रही थीं...। वह अपने मन को किसी भी तरह समझा नहीं पा रही थी । भविष्य में काले साये से उसका मन घबरा रहा था ।
एकाएक वह चौंक गई । उसने प्रीति को एकदम से गले लगा लिया । प्यार से प्रीति के सर पर हाथ फेरती रही । वक्त धीरे-धीरे गुज़रता रहा । अमित का स्वास्थ्य भी सुधरने लगा । इस तरह चार-पाँच माह में अमित काफी स्वस्थ्य हो गया, लेकिन सामान्य मनुष्यों की भाँति वह जी नहीं सकता था । किरण के बारे में भी सोचकर उसे दुख ही होता । उसके मन में आता था कि वह कहीं दूर चला जाए क्योंकि किरण का दुःख उससे देखा नहीं जाता । किरण निरन्तर चिंताओं से घली जा रही थी । मगर फिर भी उसने उफ तक नहीं किया, हमेशा अमित को समझाती रही । अमित तुम बेकार की बातें मत सोचा करो, ज़िंदगी ही है, कैसी भी गुज़र जाएगी, मगर तुम मझेस दूर जाने की बात मत कहना ।किरण की भावनाओं के कारण अमित कुछ भी नहीं कह पाता ।
पर, वह भीतर काफी दुःखी था । उसका मन बार-बार उसे कहीं चल देने को खींचता । कभी उसे प्रीति की याद घेर लेती, तो कभी किरण की । वह बेबस था ।उसे किरण से कही ई पुरानी और कठोर बातें याद आ रही थीं । कितना कुछ कह गया था उस दिन वह । अब लगता है कि शायद ठीक नहीं था वह । अपने जीवन में आये मोड़ से वह अचंभित था । पर, किरण ने उसे मना लिया था । प्रीति का हवाला दिया था ।.... यह भी कहा था कि घर के लिए आज भी अमित की उतनी ही ज़रूरत है जितनी पहले । सोच-सोचकर उसकी आँखें नम हो रही थीं ।
(प्रकाशितः युगधर्म रायपुर, 4 अप्रैल 1982)

वापसी

वापसी
बड़ा सा शहर और फिर बड़े शहर की व्यस्तता । लोगों का हुजूम । आदमी एक बार भीड़ में गुम जाए तो दुबारा सहज नहीं मिल पाता । ये तो हालत है शहर की । डेढ़ साल हो गया मकान की तलाश करते-करते । मगर मकान नहीं मिला तो नहीं मिला । थक-हार कर तलाश ही छोड़ दी और डेढ़ साल की तरह आगे भी दड़बेनुमा घर में वक्त काटने का निश्चय कर लिया । घर...और दिन भर की तकलीफ सहना अब रोज़ की बात थी ।
ऐसे में एकाएक बड़े भईया ने खबर सुनाई कि शहर में मकान मिल गया है । खबर सुनते ही एक बार खुशी की लहर दौड़ गई । शहर में मकान मिल गया...। चलो अब फायदे हैं । घूमना...मिलना...जुलना...सब होगा । शहर से दूर की बस्ती भी कोई बस्ती है । तो हम लोगों ने बिना जांच-वांच किये नये घर में प्रवेश किया । दो तीन गली पार की...। फिर एक गली में मुड़े और दूसरी गली, तब जाकर बड़े नाले के पास का मकान दिखा । पहले तो मकान अजीब-सा लगा । लेकिन शहर में मकान मिलने की जो खुशी थी । हम अंदर पहुँचे ।
- ‘दो कमरे हैं न...।’ स्मिता पूछ पड़ी ।
- ‘हाँ दो कमरे हैं आओ देखो...। ये रहा पहला कमरा..., ये दूसरा ।’ इस तरह भईया ने दोनों कमरे दिखा दिये ।
- ‘नल-पानी की तो सुविधा है ?’ माँ ने पूछा ।
- ‘ये सामने नल है...और वो बाजू से रहा पाखाना...।’ एक टूटी सी कोठरी की ओर भईया ने इशारा किया ।
- ‘और लाइट...?’
- ‘वो भी है...।’ संतुष्ट होते हुए भईया ने कहा ।
- ‘अच्छा...आसपास और भी किरायेदार हैं । माँ ने पूछा ।’
- ‘हाँ एक है...बड़ा अच्छा है...। एक से दो भले...।’
- ‘पड़ोसी तो घर समान होते हैं...अच्छे-बुरे वक्त का साथी...पड़ोस अच्छा हो तो फिर क्या...। माँ ने अपनी राय दी ।’ स्मिता, अमिता और मैं...घूम-घूमकर मकान देखने लगे । बड़े भईया और माँ सामने बैठे बातें करते रहे । मुझे घर देखकर रत्ती भर भी संतोष न हुआ । ये भी कोई घर है । दो कमरे दोनों के लिए अलग – अलग रास्ता......। सिर को छूती छत.... । छोटे – छोटे से दरवाजे... । दीवारों पर झूलते वीजली के तार और उखड़ी – उखड़ी दीवारें । ये गर है या कोई कबाड़खाना । मन ही मन सोचता रहा । कहा कीसि से नहीं । डर था कहीं बड़े भईया नाराज़ न हो जाएं। बड़ी मेहनत के बाद ुन्होंने घर ढूंढा है । जैसे – तैसे सब्र कर लिया ।
पहला दिन तो कटा । पड़ोसी का व्यवहार भी काफी अच्छा सहसूस हुआ । कमरे ज़रूर कष्टदायक थे । छोटे – छोटे दो कमरे..., जीसमें एक कमरा तो बिल्कुल वेकार । सामने पाखाना जो था । फिर उससे उड़ती दुर्गन्ध । बचा एक कमरा तो ुसी में किचन... उसी में तरफ़ सामान भर गया और उसी में निस्तार...! किसी तरह संतोष कर लिया ।ा साथ ही बात भी सोच लिया कि दूसरे मकान की तलाश भी जारी रखी जाए । मकान तलाशने का सिलसिला भी जारी रहा ।
अगली सुबह जब आँख खुली तो देखा माँ सीढ़ी के पास बैठी नल को ताक रही है । सामने पड़ोसी गुप्ता जी चबूतरे में बैठे मंजन कर रहे हैं । पानी की टंकी में थोड़ा – सा पानी है । पहले तो पानीकी इतनी सुविधा भी कहाँ थी । रोज़ कुंए से पानी खींचना और ढ़ोना बड़ा अखरता था । संतोष की साँस ली, चलो पानी का चक्कर तो छूटा .... ! चढ़ती धूप को देख लगा नौ बज रहे होंगे । गुप्ता जी जा चुके थे । पानी की छटपटाहट से नगा माँ नहा रही है, बहुत दिनों बाद अच्छी नींद आई थी । नहीं तो सबह हुई नहीं कि पानी खींचने का वही पराना चक्कर....! और माँ की एक सी आवाज़ ।
‘अखिल...अरे उठेगा भी .... देख तो सही कितना बज गया ... !’
छः बजे सुबह ही ुठना पड़ जाता । ‘कितना बज गया’समझने के लिए काफी था । यहाँ की कुछ सुविधाएं मुझे भी अच्छी लगीं । पन्द्रह दिन बीते । इस बीच गुप्ता जी से मामली सी बात को लेकर झगड़ा हो गया था और उनका व्यवहार अब प्रतिद्वंद्वी की तरह था । बात – बात में लड़ना – झगड़ना । कभी रौताइन... तो कभी पानी ... कभी और किसी बात पर आये दिन झगड़ा होता रहता । गुप्ता जी पत्नी का ही पक्ष लेते । अपनी आदत के मताबिक में प्रायः चुप रह जाता । लेकिन शायद मेरी ख़ामोशी को उन्होंने मेरा दब्बूपन समझा , जबकि में सोच रहा था कि नई – नई जगह कौन बात बढ़ाये । फिर मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे । आये नहीं और लड़ना शरू । इस बात का भी संकोच था ।
इसी बीच एक बार मकान मालिक का भी आना हुआ । उनके हाव-भाव से लगा जैसे वे मकान देने के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने बात-बात में कहा- ‘हम तो मकान को फिर से बनाना चाहते हैं । पक्का जो बनाना है । खैर आप आ ही गयें हैं तो...!’ मुझे लगा कि वे मुझ पर एहसान कर रहे हों या हम दया के निरीह पात्र हों । इसके बाद वे घूम-घूमकर घर देखने लगे । उनकी पैनी नज़रों के आगे मैं खतावार सा खड़ा रहा । वे कुछ देर बाद मुझसे मुखातिब हुए और पहला सवाल किया-
-आप क्या करते हैं ?
-‘मैं सर्विस में हूँ ।’
-खोजबीन का क्रम जारी रखते हुए उन्होंने अगला सवाल फिर दागा ।
-‘घर में कौन-कौन हैं ?’
- ‘दो भाई, दो बहन और माँ ।’
-‘भाई क्या करते हैं ?’
-‘वो भी सर्विस में हैं ।’
-‘कहाँ...?’
-‘इस ‘कहाँ’ से लगा जैसे वे कोई छानबीन में यहाँ आयें हों और मुजरिम-सा मुझे हर सवाल का जवाब देना है । मानो किराये से घर न लिया ओर कोई चोरी कर ली हो । सवाल-दर-सवाल ।’
-‘यहीं सांख्यिकी विभाग में...।’
-‘अच्छा...।’
-‘मैं चुप हो गया ओर सोचा चलो पिंड़ छूटा । ज्यों ही मुड़ने को हुआ वे फिर बोले-
-‘सुनिये..., ज़रा साफ...सफाई का ध्यान का ध्यान रखा करिये...।’
-‘वो तो रखते ही हैं ।’ नम्रता से मैंने कहा ।
-ये आँगन में कागज पड़े हैंं, धूल ही धूल है...। गली में भी थोड़ा पानी डाल दिया करिये ।
-अच्छा...।
-‘हमारे यहाँ तो सभी साफ-सफाई पसंद करते हैं ।’ –मकान मालिक ने कहा ।
तो यहाँ कौन मैले में रहने का आदी है । मैंने मन ही मन सोचा । फिर आगे कोई बात नहीं हुई । मुझे लगा कि सारी उम्र क्या यूँ ही लोगों को पता-ठठिकाना बताते गुज़र जायेगी या फिर कभी अपना घर भी होगा । एकाएक आँखों में घर का बिम्ब उतर आया । खूबसूरत सा मकान । पक्के कमरे...। सामने लॉन...। हरे-हरे दीवारों के ऊपर तक उभरे पेड़...। स्मिता....अमिता उछल-उछल कर खेल रही हैं । माँ लॉन में कुर्सी डाले अख़बार में उलझी है । सामने स्कूटर खड़ा है ...। टेप रिकार्डर पर बजता एक प्यासा सा गीत वातावरण को मधुर बना रहा है । अचानक किरकिराहट सी हुई । आँखों पर बाथ फेरा । सारा द्स्य गायब था । क्या कभी ख़ुद का मकान भी बन पाएगा...। मैंने सोचा । शायद ही कभी...। सारी आय तो घर ख़र्च में चुक जाती है । इस घटना के बाद मैं गुमसुम सा एक पुस्तक पढ़ने बैठ गया । तभी गुप्ताजी ने पास रखी सायकल निकाली । बाहर तक आये । फिर छोटे से बच्चे से कहकर मुजे बुलवाया । थोड़ी झल्लाहट हुई । फिर मैं बाहर आया ही था कि वे बोले-
-आप जानते हैं कि आपकी अमिता ने हमारी गुड्डी के कान खींचे...?
-मुझे नहीं मालूम...। मैंने सरलता से कहा ।
-ये अच्छी बात नहीं है..., आपको यहाँ आये चार दिन नहीं हुए...।
-आप कहना क्या चाहते हैं । माँ बीच में बोल पड़ा- और ये भी कोई बात हुई.....आपस में खेलती हैं...कोई मजाक किया होगा ।
-‘मजाक नहीं...बल्कि सचमुच में ऐसा किया है ।’
मुझे ऐसा लगा मानो अभी दो हाथ दूँ और कहूँ ये भी बात करने की तमीज है । दिमाग तो खराब था ही । सालों के पास कोई काम तो है नहीं । बस चला आया लड़ने । बात भी कोई लड़ाई लायक है । गुड्डी का कान खींच दिया...। कैसे-कैसे लोग हैं । मन ही मन सोचा । बात बढ़ जाएगी, यह जानकर उल्टा-सीधा कुछ नहीं कहा । बल्कि सुलह के अंदाज़ में बोला-
- ‘आपको भी समझना चाहिए, बच्चों की बात लेकर...।’
- ‘नहीं-नहीं मैने समझा आपको बता दूँ...आईंदा से मुझे तो ये सब बर्दाश्त नहीं होगा ।’
- ‘तो यहाँ किसे बर्दाश्त होगा ।’ मैंने आवेश में कहा ।
- ‘आप बातें ही ऐसी कर रहे हैं ।’
- ‘एक तो गल्ती ऊपर से ताव तो देखो...।’ तीसरे बुजुर्गनुमा व्यक्ति ने उपेक्षित भाव से कहा । मेरे पास स्मिता और अमिता भी आ गई थीं । इसलिए मैंने बात आगे न बढ़ाते हुए वहीं मामला ख़त्म कर लिया । इसके बाद तो आये दिन की तकरार । मोटे थुलथुल गुप्ता जी, अब तो सुबह से नल पर जम जाते । निस्तार में तकलीफ । माँ भी परेशान । अमिता, स्मिता परेशानी देख बार-बार खीझ पड़तीं । मुझे भी ये सब अच्छा न लगता । गर्मी की छुट्टी थी । घर के सभी लोग परसों ही बाहर चले गये । मैं रात देर से घर लौटा । कुंड़ी खटखटायी...और लगातार 10-15 मिनट तक खटखटाता रहा । लेकिन कोई प्रत्युत्तर नहीं । सब चुप्पी साधे पड़े हैं । न तो दरवाजा खुला...न कोई आहट आई ।
मैं खीझ उठा- ‘साले बाप का घर समझते हैं । कहीं अपना घर होता और ऐसी बात तो हो जाती ? ये तो साला किराये का घर है । दस बात सुनो और पड़े रहो । आदमी होकर कुत्तों सी ज़िंदगी । यूँ ही बड़बड़ाते हुए मैं वापस लौटा । कार्यालय मे बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचता रहा, फिर न जाने कब टेबिल से सिर टिका सो गया, पाता नहीं चला ।’
इतने कम दिनों का शहराती मकान का कटु अनभव मुझे भेद रहा था । हमदर्दी...। ऊंह...लगता ही नहीं...कहीं है...। इससे भला तो शहर से दूर...वो ही मकान भला था । ऐसी झंझट तो न थी । वहाँ तो कुछ बात हुई नहीं कि दस लोग जमा हो गये, उस दिन स्मिता ही बीमार पड़ी तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था, फिर एक बार माँ फिसल गई थी । बाजू वाली मिसेस शर्मा ने कितना ख्याल किया था । तुरन्त दवा लायी, मालिश की... कितनी राहत मिली थी माँ को । वहाँ किसी बात की फिकर नहीं थी । कितनी हमदर्दी रखते थे वहाँ के पास-पड़ोस के लोग । यहाँ तो पहले तो कोई पानी को न पूछे बल्कि कोई मरता हो तो मर जाने दे । ये तो घर होकर भी घर नहीं लगता । मुझसे भले तो सड़क और फुटपाथ में जीने वाले लोग हैं । बस पुलिस के सिपाही का झगड़ा है...। दो-चार रूपये लेने के बाद वह भी रोज़-रोज़ तंग नहीं करता । वे तो रात हुई और सो गये । और फिर अगले दिन का धंधा देखा । मैं अपनी तुलना अपने से कम सुखी लोगों से करने लगा ।
हम मध्यम वर्गीय लोगों के साथ यही रोना है, सारी उम्र खप जाती है, मगर ख़ुद का घर नहीं हो पाता । बस गली-गली डेरा लिये फिरते रहो । आज यहाँ तो कल वहाँ की कूच । मैं सोचने लगा । यह घर किराये से लिया है या ख़ुद को निगरानी शुदा बना लिया है । आने-जाने उठने-बैठने, खाने-पीने से लेकर हरेक बात में पाबंदी...., भावना और तकलीफ की ओर तो किसी का ध्यान जाता ही नहीं । बस उठाया और प्रहार कर दिया । आज फैसला हो ही जाए । रोज़-रोज़ से ध्यान तो एक दिन की सर फुटव्वल भली....., अगली सुबह गुप्ता जी से काफी बहस हुई । बात भी बढ़ी । फिर मैं ही चुप हो गया । मैंने बाद में नया रुख अपनाया । अब रोज़ शाम को मस्ती भरा आलम रहता । टेप रिकार्ड की कोई धन चलती और दस-पाँच लोग उस खासी धौंस भी जमा दी । गुप्ता जी ये तो तोंद दिख रही है...साले...मार-मार के अंदर कर दूँगा । कुछ भद्दी गालियों की बौछार भी उसने कर दी थी ।
एक-दो दिन गुज़रने के बाद गुप्ता जी बोले- आपको इस तरह लड़के इकट्ठे करके हो-हल्ला नहीं करना चाहिए । याँ औरतें भी रहती हैं...कोई सराय तो नहीं है ।
-मैंने कब कहा सराय है ।
-व्यवहार से तो यही लगता है ।
-और आप जो करते हैं...वो बड़ा अच्छा है ? चिढ़ते हुए मैंने कहा ।
-हम यहाँ चार साल से रह रहे हैं, और कल के आये....हमें ही सिखा रहे हो ।
-देखिये गुप्ता जी ये सब फ़ालतू बातें हैं । आप भी किरायेदार हैं...हम भी ।
-कल से यहाँ कोई नहीं आयेगा...? मैंने कह दिया सो कह दिया । वे बोले ।
-आपने कह दिया...और सोचा कि ऐसा हो जाएगा । आपकी अपनी तकलीफ...तकलीफ है और हमारी तकलीफ.....।
-ऐ मिस्टर ज़्यादा बात नहीं तो सामान फिकवा दूँगा ।
-सामान फिंकवा दोगे...बड़े ताकतवर हो । ज़रा हम भी देखें कौन सामान छूता है । मुझे भी क्रोध आ गया ।
-एक बात सुन लो... कल से कोई नहीं आएगा यानी कोई नहीं आएगा बस...।
-आयेंगे सौ बार आयेंगे । मैंने भी उसी लय में कहा ।
ऐसे-ऐसे बात बढ़ गई । और, मैंने गुप्ता जी को हाथ जड़ दिये । फिर तो हाथापाई की स्थिति आ गई । इस बीच आसपास के कुछ लोग जमा हो गये थे । बाद में लोगों ने समझाया और बपात आई-गई हो गई । इसके बाद गुप्ताजी शांत पड़ गये और उन्होंने कोई बात नहीं की ...। लेकिन मुझे घर का वातावरण अब एक पल भी नहीं जंचा । मेरी आंखो के सामने एक बार पूर्व के मकान का सारा दृश्य उजला होने लगा ।कितनी आत्मीयता थी वहाँ और कितना प्यार था...। फिर लगा कि क्या शहर में ऐसे ही मकान होते हैं ? क्या किरायेदार बनकर रहना उठाईगिर होने के सबूत है ? क्या किरायेदारों की कोई इज्जत-आबरू नहीं होती ? आज अपना घर नहीं हुआ तो क्या और कहीं जगह भी नहीं मिलेगी ? गुप्ता जी क्या समझते हैं ? क्या घर नहीं मिलेगा ? चलो शायद इस घटना के बाद वे सुधर जायें । आने वाले पड़ोसी के साथ उनका व्यवहार बदल जाये । आज जब ख़ुद पर गुजरी तो तकलीफ का अहसास हुआ वर्ना दूसरों की तकलीफ तो उनके लिये तकलीफ ही नहीं थी । अब बार-बार मैं इस घर और उस घर की, जहाँ हम पहले रहते थे, तुलना करने लगा । गुप्ता जी और मकान मालिक का बर्ताव बार-बार मस्तिष्क में कौंधता रहा । वातावरण में दम घुटता सा नज़र आया । मैं घर से बाहर निकला तो एक रिक्शा बुला सारा सामान उस पर लोदा और चल पड़ा वापस उस घर की ओर । दबड़ानुमा ही सही वहाँ शांति और प्यार तो है ।
(प्रकाशितः युगधर्म रायपुर, 6 जुलाई 1982)

फाईल


- ‘...नींद नहीं आ रही...?’ रात..., बल्कि आधी रात के आसपास तीन-चार बार बाहर आने-जाने पर रेणु ने टोका ।
- ‘न....ई...। काम में थोड़ा मन उलझा है ।’ उसने कहा ।
‘अच्छा...।’ कहकर रेणु फिर नींद में सो गई ।
रात दो सवा दो बज गये होंगे । उसने अनुमान लगाया । फिर कमरे के भीतर स्विच आन कर लाईट जलाई । ...दो बजकर दस मिनट । वह बाल्कनी पर निकल आया । उसने ईजी चेयर खींच ली । पास पड़े टेबल को उसने पैरों के पंजों से अधलेटे-अधलेटे खींचा और उस पर पैर फैला लिये । सामने खुला आकाश था । पूर्णिमा के बीच की रात । सर्दी ख़त्म होने और गर्मी शुरू होने के बीच की यह रात । गर्मी की घट-बढ़, उमस...और मौसम के बदलने ने दो-चार दिनों में उसकी रोज़ की दिनचर्या को अस्त-वयस्त कर दिया था । दिन को सोना, रात को जाग जाना । फिर चहलकदमी करने लगना । उसने महसूस किया कि वह अटपटे से काम इस बीच कर रहा है । उसने पैरों को थोड़ा मोड़ा और एक पैर ज़मीन पर रख लिया । हल्की हवा बह रही थी । चारों ओर असीम शांति । उसने अपनी आंखे दूर बादलों के बीच डाल दीं । फिर उसे लगा कि उसने हवा में ख़ुद ही यह सवाल जैसे उछाला हो –
-‘ ...मुझे नहीं पहचानते...?’ मैं...श्याम किशोर...आपको याद नहीं!...मैं श्याम-किशोर...। याद करें तो याद आएगा आपको...मैं श्याम किशोर...। कितने साल हो गये...। कितना समय बीत गया...। नहीं याद आया न आपको । ...खैर, धीरे से आ जाएगा । ...यह भी याद या जाएगा कि श्याम किशोर को आप जानते थे...पर, शायद आप अभी ठीक से याद नहीं कर पा रहे हैं...कि, कौन श्याम किशोर...?
उसने तय किया कि वह अगली सुबह सारी बातें स्पष्ट कर देगा । एक पूरे दिन के भीतर वह इतना कुछ कर डालेगा कि उसे न तो फिर कुछ मलाल रहेगा और न ही बेचैनी, कि वह अपनी बात कभी नहीं कह सकता । या फिर, वह सिर्फ़ राय मानकर चलने वाला एक आदमी भर रह गया है...। कल, जो कुछ भी वह करेगा, उसके बाद कोई उससे यह नहीं कह सकेगा कि उसके पास स्पष्ट सोच नहीं है...। कोई यह भी नहीं कह सकेगा कि उसका फैसला गलत था...? वह यह भी स्पष्ट कर देगा कि वह सिर्फ़ ‘पुर्जा’ नहीं है!
वह कल दिन भर में दो दर्जन लोगों से मिलना चाहता है । वह कल की सुबह चार बजे ही उठ जाएगा । वह पूरा ‘शेड्यूल’ पहले ही बना लेगा । आजकल यूँ ही किसी के पास चले जाने से समय खराब हो जाता है । उसके साथ तो अक्सर यही होता है कि वह कभी भी, और कहीं भी ‘यूँ ही’ चला जाता है । वह सोचता है कि उसे ठीक से ‘दूकानदारी’ चलाना कभी नहीं आया । लोग कैसे सालों साल बाबू-मास्टरी जैसी एकरस जगहों पर अपना समय काट लेते हैं, और ख़ुश हैं । समाज में यही लोग प्रतिष्ठित भी हैं । वह ठीक से अपनी दूकान या यूँ कहें अपनी व्यवस्था कभी जमा नहीं पाया । उसे अपने आसपास की हर एक चीज़...रिश्ते-नाते...कारोबार...बात-विचार...मेल-मुलाकात...और भी तमाम तरह की बातें...,एक तरह की ‘दूकानदारी’ लगती । कभी लगता कि नहीं, यह ‘दूकानदारी’ नहीं है । यह तो दस्तूर है । किसी ऑफ़िस की व्यवस्था है...बल्कि, किसी भी ऑफ़िस की व्यवस्था है...वह ‘व्यवस्था’ क्या है, इस बात को कभी ठीक से समझ नहीं पाया, जो काम लोग अपने नौकर-बाबुओं से करवा लेते हैं, वह ख़ुद होकर भी वह काम नहीं कर पाता । वह सोचता है कि कल दिन भर में वह बहुत सारे काम कर लेगा ।
वह मन ही मन कामों की सूची बनाने लगा ।...अरे! अब याद आया आपको...? ...श्याम किशोर...? फिर, याद नहीं आ रहा है न आपको...! ...कितनी बार तो आप उससे मिल चुके हैं । ...कलेक्टर बंगले में...। कलेक्टर-एस.पी.ऑफ़िस में । ...मंत्री-बंगलो में । अभी आपने दो दिन पहले ही उसे सी.एम., गवर्नर हाऊस में देखा था । बीते महीने वह आपको ‘पी.एम.हाऊस’ के गलियारे में मिला था । ...बिल्कुल याद नहीं आ रहा है न आपको! ...याद करें...श्यामकिशोर...श्या...म...कि...शो...र...।’ खैर, छोड़िये भी । धीरे-धीरे याद आ जाएगा । थोड़ी देर के लिए मान लीजिए, मैं ही तो हूँ श्यामकिशोर...! कितनी बार आपसे मिला हूँ । ...आगे भी आपसे मुलाकात होगी । उम्मीद है धीरे-धीरे आपको सब याद आ जाएगा ।
-‘…हाँ...।’ उसने मन ही मन दोहराया । कल दिन भर में मुझे दो दर्जन लोगों से मिलना है । ...इतना बड़ा शहर । राजधानी वाला यह शहर । दर्जन भर लोग उसे अपने मतलब के नहीं मिल पाते, तो फिर दो दर्जन लोगों से मुलाकात...! वह मन में प्राथमिकता सूची बनाने लगा । तीन लोगों से फ़ोन पर भी चर्चा कर लेगा । दो मंत्रियों से भी उसे मिलना है । डायरेक्टर साहब ने भी उसे मिलने का समय दिया है । उसने प्राथमिकता सूची पर नज़र दौड़ाई । फिर झट से उसने सूची के सबसे ऊपर के क्रम में डायरेक्टर से मिलने का मन बना लिया । रास्ते में वह एक मंत्री से भी मिलता जाएगा । उसे लगा कि आज उसके मंत्रियों से रिश्ते कितने काम आ रहे हैं । वह सोचता है कि जब वह बेहद अपनों की भीड़ में ‘अकेला’ पड़ जाता है तो मंत्रियों को बंगले की चमक के बीच मौजूद भीड़ में उसे सुकून मिलता है । ...कई बार ऐसे समय वह किसी पेड़ की छांव में दीवार से पैरों के उलटे पंजे लगाकर उतनी देर खड़ा रह जाता, जब तक पंजों में दर्द न शुरू हो जाए । फिर वह पैरों का दर्द दूर करने के लिए इधर-उधर टहलने लगता । इस बीच नज़र भीड़ के चेहरों को पढ़ने का प्रयास करती रहतीं । वह महसूस करता कि भीड़ उतनी-की-उतनी बनी रहती है, घटती तो कभी नहीं है । वह अक्सर प्रयास करता है कि मंत्री के बंगले से फौरन निकल ले । उसे हमेशा कोई डर बना रहता कि कोई चेहरा आगे बढ़ेगा, उसके पास आएगा और अपना काम बता देगा...और, उसके लिए उसे टालना कठिन हो जाएगा । वह आजकल लोगों से मिलने से बचने लगा है । उसके सामने काम, आजकल ‘चेहरों’ में बदल गया है । फलां काम यानी फला चेहरा...फलां स्टाइल वाला चेहरा । उसके सामने अक्सर या तो कोई काम झूलता रहता...या फिर कोई चेहरा । या फिर, इन दोनों से जुड़ी गुलाबी...हरी...नीली-पीली फाईल ।
उसने तय किया था तो आज सुबह वाकई चार बजे उठ बैठा । सबसे पहले वह बाल्कनी पर आया । इजी-चेयर खींची और पैर फैलाकर अधलेटा-सा आकाश की ओर निहारने लगा । स्याह चादर पर टके चमकीले मोती...। और, चमकीले मोतियों की कतारें । उसे बेचैनी के समय में आसमान अपने बहुत करीब लगता । वह आज का शेड्यूल बनाने लगा ।
- ‘श्याम...। आज तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या...? घड़ी देखी ?’ रेणु ने अचानक पास आकर कहा ।
- ‘नींद...तो ठीक से, कई दिनों से नहीं आ रही है...। हाँ, चार सवा चार बजा होगा ।’ उसने बात यूँ टाली ।
- ‘श्याम! क्यूं परेशान होते हो...समय अभी खराब है तो कभी अच्छा भी आ जाएगा ।’
- ‘तुम सो जाओ रेणु...मैं कुछ देर यूँ ही बैठूंगा ।’
- ‘जैसी तुम्हारी मर्जी...।’ रेणु ने इतना कहा और भीतर चली गई ।

उसे लगा कि उसकी स्थिति आज ऐसी हो गई है कि कोई उसे ठीक तरह से समझना क्यूं नहीं चाह रहा है । जैसा वह अपने बारे में समझना चाहता है, उस पर कोई ध्यान क्यों नहीं देता ? सामने देखा तो उसे घड़ी कुछ ऐसी चलती नज़र आई, जैसे उसके काँटों पर बड़े-बड़े पत्थर रख दिये गये हों । वह सोचने लगा कि सुबह कब होगी...! उतरती रात की ठंडी हवा उसे इस बेचैनी के बीच कुछ राहत दे रही थी ।
ऑफ़िस समय के बीच वह सड़क पर था । उसने मन ही मन मुलाकातों का क्रम जमा लिया था । मंत्री जी से उसकी मुलाकात अपेक्षाकृत और भी सुकून से भरी हुई । वह दो मित्रों से भी औपचारिक मुलाकात कर आया । एक रेडियो के अफसर से मिला । दो अन्य दफ्तरों के काम भी उसने निपटा लिये । इस बीच उसने अपनी प्राथमिकता सूची के क्रम में सबसे ऊपर वाले नाम यानी डायरेक्टर से तीन बार मिलने का प्रयास किया । पर, वह हर बार वहाँ से यही जवाब लेकर फिर सड़क पर निकल आया कि-‘अभी मीटिंग चल रही है ।’ चौथी बार जब वह गया तो चपरासी ने बताया कि ‘साहब अभी तीन ऐसे लोगों के साथ बैठे हैं, कि उन्होंने साफ मना करवा रखा है कि अब जो भी मिलने आये, उससे कहो कि शाम पाँच या छह बजे के बीच आये ।’
श्यामकिशोर के सामने आज के दिन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा डायरेक्टर से मिलने का था । वह चाहता था कि आज बहुत ज़रूरी-सी बातें कर लेगा । चार बार, जब वह नहीं मिल पाया तो उसके मन में आया कि आज इस मुलाकात को टाल देना चाहिए । पर, मन माना नहीं । उसे यह डर भी था कि बार-बार एक ही दफ़्तर के चक्कर काटने से उसका अपमान भी हो सकता है । ...श्यामकिशोर को एक बात हमेशा सालती थी कि भले ही उसका कोई काम बने या न बने, पर ऐसी प्रक्रिया के बीच उसका अपमान न हो । वह अपने अपमान के ख्याल तक से डर जाता था । वह याद करता है कि आज वह इसलिए नहीं डर रहा कि कहीं से उसे नीचा देखना पड़ेगा । वह, इस बात से डर रहा है कि उसे किसी अपने आदमी के सामने नीचा न देखना पड़ जाए । समय ने आज उसे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि उसके सामने आग्रह के साथ खड़ी रहने वाली भीड़ न केवल आज गायब है, बल्कि उसे लोगों के सामने ख़ुद आग्रह के साथ खड़े होना पड़ रहा है ।
वह याद कर रहा है, यह भी कि, उसने उस दिन एक फैसला गलत लिया या कि सही...पर, वही फैसला आज उसकी बेचैनी का कारण बना हुआ है । उसने अपने ऑफ़िस में बॉस से यही तो कहा था- ‘आप, मुझसे बड़े हैं, यह बात अलग हो सकती है, पर ‘यह बात’ मैं नुकसान की पूरी स्थितियों को जानकर भी कहना चाहूँगा कि आपको तटस्थ और ऊर्जावान आदमी की ज़रूरत नहीं .....। बल्कि, ‘बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी’ चाहते हैं आप ।... और देखिये..., ऐसे आदमियों की भीड़ लगी हुई है, यहाँ से लहाँ तक । याप क्या, आपका पूरा सिस्टम ही बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी चाहता है । ... टेबिलों के पास झुकी पीठ लेकर खड़े हुए लोग...। ...लोग क्या बटन सरीखे पूर्जे चाहिए आपको ।....और, आप मानिये... मैं आपका पुर्जा नहीं बन सकता...। उसके कानों तक दो ही शब्द आये थे - ‘ठीक है ।’ .... ठीक है....., यह आवाज़ आज तक उसके कानों में गूँजती रहती है ।
‘ठीक है’ के बाद उससे ऑफ़िस में और कोई बात नहीं हुई । उसके घर क्रमशः एक, दो और तीन लिपाफे पहुँचे । पहला, नौकरी से निलम्बन का, फिर बर्खास्तगी का...और तीसरा लिफाफा था, पूरे कामकाज के हिसाब को चुकता करने वाले चेक का । वह कहीं से भी हैरान नहीं था । वह नतीजा जानता था । उसने कहीं भी कोई अपील नहीं की । वह चाहता तो दौड़-भाग कर सकता था ।अपने परिचय का लाभ उठा सकता था । उसके परिचय की लम्बी फेहरिश्त थी । पर, उसने ऐसा कुछ नहीं किया । वह चुप रहा ।
वह धीरे-धीरे करके यह भूलने का प्रयास करने लगा कि वह ‘श्याम किशोर’ है...। या फिर, वह ‘वहीं श्याम किशोर’ है, जिसकी जुबान से कोई बात निकली नहीं... कि वह बात पूरी हुई नहीं...। वह पूरी उम्र न तो कभी गिड़गिड़ाया, और न ही वह तीन लिफाफों को पाकर गिड़गिडा़ने का मन बनाने वाला था । उसने यथास्थिति को स्वीकार कर लिया था । पर, न जाने क्यूं उसे इस जिट्ठी ने परेशान कर दिया था, चिट्ठी थी कि उसे ‘क्लेम’ का कुछ पैसा और मिल सकता है ।... उसे अपनी अर्जी ‘फार्मल’ तौर पर डायरेक्टर को देनी थी ।
लोगों ने श्यामकिशोर को बताया था कि डायरेक्टर बड़ा मूडी है । वह बच्चों- सा मन रखता है, यानी पल में तोला, पल में मासा...। और, चरण स्पर्श उसे अत्यधिक आनंदित कर देता है । वह प्रभु की सत्ता को तो स्वीकार करता है, पर उसे अपनी सत्ता पर भी कम गर्व नहीं । उसके हाथ या तो घंटी के बटन पर होते... या फिर वह फ़ोन पर उलझा रहता ।... फाइलों को वह रद्दी का ढ़ेर समझता ।...और अक्सर आधी रात के समय वह फाइलों पर ‘टीप’ लिखा करता । इस समय उसके सामने सिर्फ़ चरपासी होता... दूसरा कोई नहीं ।वह सिफारिश से चिढ़ता था ।... उसे इस बात का पूरा अहसासा था कि काम करते समय कम से कम चपरासी तो सिफारिश नहीं कर सकता ...और आधी रात के समय न तो उसकेफ़ोन की घंटी बजेगी और न ही कोई इस वक्त उससे निलने आएगा ।लोग यह भी बताते हैं कि डायरेक्टर न केवल मुडी है, बल्कि ‘न्याय पसंद’ भी है ।... उसे डराया नहीं जा सकता... और न ही व डरता है । उसे ‘जंगल में शेर’ की तरह मानते हैं लोग । वह लोगों को कभी-कभी मिलनसार भी लगता है ।... श्यामकिशोर को भी वह पहली मुलाकात में अच्छा-ही लगा था । पर, श्यामकिशोर को यह नहीं मालूम था कि कोई आदमी जब एक बार अच्छा लगता है तो उसे लगातार कैसे अच्छा बनाये रखा जा सकता है । वह तो अपना छोटा-सा काम कर निकलवाना चाहता था । पर, दफ्तरी किस्सों नें उसकी कचूमर निकाल दी थी ।

श्यामकिशोर ने अपने जीवन में जो सबसे ज़्यादा कोफ्त की जगह पाई थी तो, वह जगह थी दफ़्तर । उसे लगता था कि ‘दफ़्तर’ नहीं... ‘दब कर मर’ जैसी जगह है कोई । .... यहाँ कहीं कोई बात न तो ठीक से सुनता है...और न ही ठीक समय पर किसी समस्या का निपटारा हो पाता है । चौथी बार टर काये जाने पर पाँचवीं बार जब फिर दफ़्तर पहुँचा तो उसने पूछा-
-साहब, बैठे हैं क्या भीतर ?
-हाँ,... मिलना है आपको...! चपरासी ने सफेद कागज की स्लिप उसे पकड़ाते हुए कहा ।
-मिलना है...पर, यह तो बताओ उसका मूड कैसा है ?
-अभी दो लोग बैठे हैं ? चपरासी ने उत्तर दिया ।
-क्या मुलाकात हो जायेगी ?
-आप अपना नाम वगैरह लिख दें । चपरासी ने जोर दिया ।
-अब तो ऑफ़िस बंद होने का समय हो आया... क्या अभी भी मिल लेंगे वो ...। श्याम किशोर ने पूछा ।
-साहब तो मर्जी के मालिक हैं..उनका क्या... । मन आया तो देर तक बैठे रहते हैं ।
-अच्छा...। कहकर श्यामकिशोर ने पर्जी चपरासी को थमा दी ।

श्यामकिशोर ने चपरासी को भीतर डायरेक्टर के कमरे में जाते देखा । वह सोचने लगा कि चार बार वह असफल हुआ । पता नहीं पाँचवी बार उसकी मुलाकात हो पाती है या नहीं । चपरासी फौरन बाहर आया । उसने हाथ से खाली सोफे की तरफ़ इशारा किया ।संकेत साफ था- आप वहाँ बैठ जायें । वह सोफे का एक कोना पकड़कर बैठ गया ।

श्यामकिशोर को आश्चर्य हुआ कि बैठे-बैठे रात के दस बज गये । न भीतर बैठे वे दो लोग बाहर निकले...और न ही डायरेक्टर ने उसे इस बीच बुलाया । वह याद करने लगा कि जब वह अपने हिसाब से काम करता था तो वह कभी भी किसी अफसर या मंत्री के यहाँ पाँच मिनट से ज़्यादा इंतजार में नहीं बैठा । कुछ उसका व्यक्तित्व और कुछ उसकी भाषा से जुड़ी स्टाइल थी कि कोई उसकी बात कभी टाल नहीं पाया । पर, आज न जाने कैसी आफस आई है । न तो जाते बन रहा है और न ही रुकते । अचानक उसे दरवाजे पर हलचल महसूस हुई । डायरेक्टर साहब ख़ुद निकल रहे थे । उनके साथ भीतर बैठ वे दो लोग भी बाहर आते दिखे । उसकी नज़र सोफे पर बैठे एक अकेले आदमी पर पड़ी । डायरेक्टर ने चपरासी को बुलाया और कहा- बुलाओ उसे...। श्यामकिशोर को अपने लिये यह सम्बोधन जंचा नहीं । वह आया तो डायरेक्टर ने सपाट शब्दों में कहाँ- ...बोलिए ! मैं आपकी पर्ची देखना ही भूल गया ...।
-मेरा एक क्लेम था । आप चाहेंगे तो तुरंत मुझे न्याय मिल जाएगा ।
-हाँ, देखते हैं...। कल एक अर्जी बनाकर लेते आना । डायरेक्टर ने बस इतना ही कहा ।फिर वह चपरासी से मुखातिब हुआ- गाड़ी लगाने को कहो । पल भर में गाड़ी सामने आई श्याम किशोर ने देखा । गहरी हो चली रात के बीच गाड़ी एक फर्राटे के साथ न्यॉन लाइट की कतार नापती हुई न जाने कहाँ खो गई ।
श्यामकिशोर सूने दफ़्तर से अकेले निकल रहा था । चपरासी अब दफ़्तर में ताला लगाने में जुटा था । पर, उसके हाव-भाव ऐसे नहीं थे कि लग रहा हो कि उसे घर जाने की बहुत ज़ल्दी हो । श्यामकिशोर के मन में सवाल आ-जा रहे थे । पर,उसने चरपासी के सामने कोई सवाल रखना ठीक नहीं समझा । भारी क़दमों से वह आगे बढ़ने लगा । उसने एक आटो रिक्शा को रुकने का इशारा किया ।

आज रात उसे फिर नींद नहीं आ रही थी । आधी रात के करीब वह उठ बैठा । फिर बॉल्कनी के छोटे से हिस्से में यहाँ से वहाँ डोलता रहा । तकरीबन बेचैनी में उसने पूरी रात गुजारी । उसने आज सुबह ज़ल्दी निकलने का मन बना लिया था । उसने सड़क पर आने के पहले दो लिफाफे तैयार कर लिये थे . वह चाहता था कि पुराने सभी पेंडिंग काम आज ख़त्म कर लिये जाएं । जिस किसी काम में नतीजा आता हो आये, जिसमें नतीजा न आना हो, न आये । ...पर, वह आज पुराने सभी कामों को अंजाम देने के मूड में था ।कामों के पेंडिंग रहते चले जाने ने उसे कमजोर बना दिया था । वह ठीक से फैसला नहीं कर पा रहा था कि क्या वह वही श्याम किशोर है, जो कि चुटकियों में सारा काम निपटा लेता था । उसके सामने पड़ते ही काम मानो...यूँ... हो जाता करते थे ।....आज उसके छोटे-छोटे काम नहीं निपट पा रहे हैं । श्यामकिशोर को लगा कि- उसे श्यामकिशोर हो जाना जाहिए । दिनिया दो-बातों से ही डरती है- एक दो बेहद सादगी से...और दूसरी बात, पावर से ...। सादगी और पावर दोनों का उपयोग उसे बखूबी आता है . पर, इन दिनों उसे हो क्या गया है कि वह सही बातों के लिए भी ठीक से पेश नहीं आ पाता है ।

उसने तय किया । वह अपने आपको बदलेगा । उसे अपने आपको बदलना पड़ेगा । पेंडिंग कामों ने उसका जीना मुश्किल कर दिया है । उसे कल दिन भर का वाक्या याद हो आया । किसी फिल्म की रील की तरह ह्श्य उसके सामने चलने लगे । उसे लगा कि आज वह सबसे पहले डायरेक्टर से मिलेगा । काम होना हो तो, और न होना तो हो तो न हो, पर वह बात को आज से आगे नहीं बढ़ने देगा ।
उसने आज दोपहर का वक्त मुलाकात के लिये चुना । वह दोपहर एक बजे के आसपास डायरेक्टर के दफ़्तर के सामने खड़ा था । एक बार उसने चारों तरफ़ नज़र डाली । ऑफ़िस में सामान्य दिनों जैसी हलचल थी । बाहर ऊंघते चपरासी थे... और इधर-उधर इंतजार में घूमते-बैठे लोगों के लटके चेहरे ।.... उसे लटके चेहरे और ढीले लोग कभी पसंद नहीं आये । पर, वह ख़ुद बीते कुछ समय से काफी डीला चल रहा है । थोड़ी गड़बड़ है, पर उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि वह श्यामकिशोर है...। वही श्याम किशोर... जिससे आप पहले भी कई बार मिल चुके हैं । आपको याद आ रहा है न.....। कल डायरेक्टर से ठीक बात न हो पाने के कारण मायूसी से जाते अथवा लौटते देखा था आपने उसे । आज... सब याद आ रहा है न आपको...!
श्यामकिशोर को लगा कि उसे डायरेक्टर से मुलाकात के लिए अब एक मिनट की भी देरी नहीं करने चाहिए । उसने आज चपरासी के हाथों अपने नाम की पर्ची भीतर नहीं भिजवाई । वह पहले कुछ सोचता रहा । फिर उसनेदरवाजे पर लगी तख्ती पर नाम पढ़ा- एस सुदर्शन...। कल भी यही तख्ती थी । पर, कल उसने मन में नाम पढ़ने का ख्याल नहीं आया । ...न ही सच मायने में, कल उसका ध्यान नाम की तख्ती पर था । नीचे लिखे डायरेक्टर शब्द को वह ठीक से पढ़ पाता, इसके पहले उसने दांये हाथ से दरवाजे को धकेला....और अब वह भीतर डायरेक्टर केसामने था ।
दरवाजा खुलने से डायरेक्टर की निगाह एकाएक उस पर गई । डायरेक्टर को कल रात वाला श्यामकिशोर का चेहरा अभी याद था । उसने आश्चर्य भरे भाव से श्यामकिशोर को देखा, जैसे सवाल कर रहा हो- अचानक आप भीतर कैसे चले आये ? डायरेक्टर ने पानी लाने को कहा । चपरासी आया। डायरेक्टर ने पानी लाने को कहा । चपरासी चला गया । श्यामकिशोर की तरफ़ अब डायरेक्टर की नज़र थी। डायरेक्टर अपने आपको व्यस्त दिखाने का पूरा प्रयास कर रहा था। उसने फ़ोन मिलाया। कुछ फाइलों पर दस्तखत किये । पी.ए को बुलाया। उसने श्यामकिशोर से दो-तीन मिनट तक कोई बात नहीं की। कुर्सी खींचकर श्यामकिशोर सामने बैठ गया। श्यामकिशोर को यह अहसास कहीं से हो रहा था कि- ‘उसका यह बर्ताव ठीक नहीं है।’ पर उसे भीतर से लगा कि- ‘डायरेक्टर ही कौन-सा शिष्टाचार बरत रहा है।’ वह भी चाहता तो कह सकता था- ‘बैठो।’ पर...नहीं। उसने इतना भी नहीं किया।

श्यामकिशोर ने अब और समय गंवाना ठीक न समझकर अपने हैण्ड बैग से दो लिफाफे निकाले। उसने पहले सोचा कि दोनों लिफाफे डायरेक्टर के हाथ पर रख दे । ...पर, उसे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि डायरेक्टर ही कौन-सा शिष्टाचार बरत रहा है।’ वह भी चाहता तो कह सकता था- ‘बैठो।’ पर...नहीं। उसने इतना भी नहीं किया।

श्यामकिशोर ने अब और समय गंवाना ठीक न समझकर अपने हैण्ड बैग से दो लिफाफे निकाले। उसने पहले सोचा कि दोनों लिफाफे डायरेक्टर के हाथ पर रख दे।... पर, उसे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि डायरेक्टर उन्हें बिना पढें ही कहीं रख दे। ....या, जान –बूझ कर पढ़ना न चाहे तो....। श्यामकिशोर ने लिफाफों के भीतर के दोनों कागज अलग-अलग निकाले ....और उन्हें एक-एक करके डायरेक्टर के सामने रखा । पहले लिफाफे में दो लाइनें लिखी थीं और दूसरे लिफाफे में भी उतनी ही लाईनें थीं। पहले लिफाफे में लिखा था-‘आशा है कि मेरी फाइल पर (विवरण सहित) दोपहर तक आप निर्णय ले लेंगे। अर्जी, फाइल के ही साथ है।’ और दूसरे लिफाफे के कागज पर लिखा था- ‘मंत्री जी, चाहते हैं कि आप डेढ़-दो बजे के बीच उनसे ज़रूर बात कर लें। याददाश्त के लिए नम्बर है....। टेलीफ़ोन के नम्बर और ‘नम्बर से जुड़े आंकड़े डायरेक्टर की आँखों के सामने घूम गये। कल डायरेक्टर से ठीक मुलाकात न होने के दरम्यान उसे मालूम हुआ था के डायरेक्टर की मंत्री जी से कहा-सुनी हो गई थी। कुछ कड़े निर्देश उन्हें मिले थे। श्यामकिशोर को लगा था। कि उसकी आज की तरकीब काम कर जाएगी...। उसे विश्वास था कि उसकी स्थिति कल-जैसी नहीं होगी। कल दिन भर में उसने छह-सात बार डायरेक्टर से मिलने का प्रयास किया था। कितनी कोफ्त के साथ उसका कल का समय बीता था। आज उसे इतनी तसल्ली तो हुई कि उसमें श्यामकिशोर वाली बात अब भी है.....। वह अपने आपको जैसे भरोसा दिलाना चाहता है कि उसके भीतर का श्यामकिशोर अभी मरा नहीं है।वह हमेशा श्यामकिशोर है...औ, श्यामकिशोर बना रहेगा।....आपको याद है न....कल का दिन श्यामकिशोर ने कितनी बेचैनी से गुजारा था। और फिर, उसे रात भर ठीक से नींद नहीं आई थी। आज सुबह वह घर से ज़ल्दी निकल गया था उसने सोचा खा कि आज वह अपने सारे पेंडिंग काम निपटा लेपटा लेगा। वह रोज़ की तुलना में आज कुछ ज़ल्दी में था। उसे बीतर ही भीतर लग रहा था कि वह वापस फिर श्यामकिशोर बन जाएगा..रखा क्या है श्यामकिशोर बनने में। उसने मन ही मन दोहराया कि- ‘रखा क्या है श्यामकिशोर बनने में ।’

उसने हाथ की ऊंगलियाँ फ़ोन के डायल पर घूम रही थीं। शाम उतरने में अभी घंटे भर की देरी है। डायरेक्टर ऑफ़िस में उसने फ़ोन मिलाया। यह अत्तफाक भी हो सकता है, पर उसे भरोसा था, डायरेक्टर से फौरन उसकी बात हो गई । डायरेक्टर ने बताया कि- फाइल पर निर्णय हो गया है । क्लेम का चेक लेकर चपरासी उनके दफ़्तर की ओर निकल गया है । श्यामकिशोर को लगा कि चपरासी उसके दफ़्तर की तरफ़ नहीं रहा है .... बल्कि, भीतर से वापस श्यामकिशोर निकल कर चला आ रहा है । वही श्यामकिशोर जिससे आप बार-बार मिल चुके हैं । पहले कलेक्टर बंगले में...कलेक्टर-एस.पी. ऑफिस में.... फिर मंत्री, सी.एम. हाऊस में उससे आप मिलते रहे हैं । और, बीते माह उससे आप पी.एम.हाऊस के गलियारे में भी तो मिले थे । ... श्यामकिशोर को अब तो नहीं भूलेंगे न आप ! याद आया न अब आपको श्यामकिशोर ...
डायरेक्टर से फ़ोन मिलाने के बाद वह ऊपर से नीचे तक अपने आप पर नज़र डालने के बाद यह सोचने लगा कि उसने उस दिन गलत नहीं कहा था – आप सिर्फ़ बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी चाहते हैं....। आप क्या आपका पूरा सिस्टम यही चाहता है । श्यामकिशोर को लगा कि उसने शायद ठीक ही कहा था कि वह जीवन भर बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी नहीं बनेगा । घर लौटते समय आज उसके बर्ताव में गजब की फुर्ती थी ।
(प्रकाशितः मई 2002 को आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित)

पतले तारों सी ज़िंदगी


चलो, एक कहानी यहीं से शुरु करें । वैसे कहानी कहीं से भी शुरु हो सकती है । मसलन घर की सुबह । ऑफ़िस की सुबह । या फिर, किसी सड़क पर से गुज़रते हुए । रात नौ बजे घर लौटा । शाम से ही प्रोग्राम बनाना शुरु कर दिया था कि ऑफ़िस से आठ बजे झुटने के बाद घर पहुँच कर क्या-क्या करना है । वैसे करने को कुछ खास रहता नहीं । पढ़ने का माहौल नहीं बन पाता । मसलन टी.वी. का शोर और बेडरूम में पहुँच ते ही लाइट बंद करने का जोर । लाइट बंद न करो तो मुँह बनाती हुई नीरजा । उसका चेहरा यूँ लटका होता जैसे पहाड़ टूट पड़ रहा हो । उसके सामने कल ऑफ़िस जाने की तैयारी और आँखों में गहरी नींद हमेशा बनी रहती । हर रात वह इसी चिंता में डूबी रहती और अखिल को । आख़िर सामा्य क्रम कैसे बने, यह ऊहापोह बनी रहती । बातों के तार कुछ इस तरह से पतले और उलझने-उलझने को तैयार रहते कि उन्हें छुआ नहीं कि, वे उलझे नहीं.... यानी कि बातों के तार को छूना ही अपने ऊपर मुसीबत को बुलावा देना है ।
ऐसा हर सुबह, हर शाम और कभी तो दऋपहर अथवा देर रात भी होता । आख़िर ऐसा क्यूं होता है ? इसकी वजह तलाशना अखिल के लिए मुश्किल था । फिर उसे लगता कि ‘क्या सोचता था’ और ‘हुआ क्या...।’ सोचा था-‘ऐसा होगा’ और हुआ ठीक उल्टा...। हर दिन कुछ न कुछ ऐसा ही होता रहता । सब कुछ अनायास सा...जैसे अपने हाथों में कुछ हो ही नहीं । पर ऐसा होना एक सिलसिले की तरह बन गया ।
अखिल को आप अखिल मानिये अथवा न मानिए ! आप स्वयं भी अखिल हो सकते हैं या बन सकते हैं । वजह साफ है कि बातों के तार कब सुलझे-सुलझे उलझ जायेंगे, आपको मालूम नहीं होगा । अखिल सोचता है कि आख़िर ऐसा क्यूं होता है ? क्या दिनभर मन में बैठी कोई खीझ अथवा चिढ़ मौका पाते ही निकलने को बेताब नहीं हो जाती ? अगर भीतर कुछ जल अथवा तप नहीं कर रहा हो तो ठंड़ी बातों पर तीखी प्रतिक्रिया क्यूं कर आती है ? क्या, ऐसा उसी के साथ होता है...या फिर सभी के साथ ऐसा होता होगा ? पर कुछ तो है जो सामान्य सी बातों को उलझाकर असामान्य बना देता है ? फिर व्यर्थ की अंतहीन बहसें...। फिर-फिर समझौता...टूटती-बनती बातों के बीच हार-जीत अथवा व्यर्थता से बीते क्षणों का अहसास...। ऐसा अहसास जो पूरे दिन भर की बोझिलता तो और बोझिल बना जाता । अखिल को लगता कि क्या ऐसी स्थितियों को टाला नहीं जा सकता...? फिर उसे लगता कि आख़िर ऐसी स्थिति क्यों बनती है...? क्या सारा दोष उसी का है...? नीरजा कहीं के भी दोषी नहीं है ? वह तो लगता है किसी बहाने का इंतजार करती बैठी रहती है । कब बहाना मिले और बातों का बतंहड़ बना दे । पर, क्या वास्तव में उसके मन के भीतर ऐसा करने का भाव रहता है...? या फिर, अनायास बन जाता है । चाहे जो होस पर नीरजा और अखिल वार्तालाप से उकताने लगे हैं । ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा तकरार के हवाले चढ़ जाता । दिन की तकरार का रात तक असर रहता और रात की तकरार का दिन भर । फिर समझौते की राह । न चाहते हुए भी बात खींचने की बजाए टालने की विवशता से भरी ज़िंदगी लम्बे समय तक जी जा सकती है ? क्या यह टकराव विचारों का टकराव है अथवा अहम् का ? पूर्वाग्रहों की वजह से उपजा टकराव है ? या फिर ‘आत्मोपलब्धि’ में खोये वजूद से न छूट पाने से बनते-बिगड़ते विचारों का टकराव है ? पर, अखिल और नतीजा को तकरार के बीते क्षणों के बाद हर बार महसूस होता है कि टकराव टाला भी जा सकता था...। अखिल और नीरजा अलग-अलग यह बात महसूस भी करते । झुकने और हारने को तैयार कोई नहीं होता ।
नीरजा डिप्टी कलेक्टर है और अखिल बैंक में बड़ा-सा अफसर । दोनों का अपना अलग स्टेटस । कहीं से उनकी दिनचर्या में यही स्टेटस ही आड़े आता रहता है । इसे ‘इगो क्लैश’ भी कहा जा सकता है । कहानी के मुख्य बिन्दु पर आते हैं । रात नौ बजे अखिल घर लौटा । टी.वी. पर कोई सूरियल चल रहा था घर के बाक़ी लोग टी.वी. में उलझे थे । नीरजा किचन में मशगूल थी । अखिल ने दफ़्तर के कपड़े बदले । फिर वह सीधे किचन में पहुँच गया । रिंकू वहीं खाना खा रहा था । नीरजा ने अखिल से पूछा-
- ‘खाना लगा दूँ । खा लो...अभी गरम है ?’
- ‘हाँ खा लूँगा...’ अखिल ने भीतर के भाव को छिपाकर सादगी से कह दिया । उसे मालूम था कि नीरजा मुझे ज़ल्दी खाना देकर किचन से फारिग हो जाना चाहती थी...जबकि अखिल का मन था कि वह दफ़्तर से आने के बाद कुछ देर बैठे । पहले मुँह धोये । टी.वी. पर आता सीरियल थोड़ी देर देखे । फिर एकाध घंटे बाद खाना खाये । या फिर, ज़रा मैग्नीज के पन्ने ही उलट ले । पर ऐसा हो नहीं पाता । मन मार कर रोज़ आते ही सबसे पहले उसे खाने के लिए ‘हाँ’ करना पड़ती । बिल्कुल मशीनीकृत व्यवस्था की तरह । अखिल कई बार सोचता कि दफ़्तर से लौटने के बाद इससे अलग भी कुछ हो सकता है ? पर नहीं...लगातार और रोज़ होता है वैसा ही...वैसे का वैसा । वह कर भी क्या सकता है ? कुछ कहा नहीं कि नीरजा ने ताव दिखाया । कोई पाँच मिनट के भीतर अखिल के सामने खाने की थाली थी । पूरा का पूरा खाना गरम...मगर हड़बड़ी में परोसा गया ।
-‘ज़रा सलाद भी दे देना ।’ अखिल ने कहा ।
-‘ये रही सलाद...।’ रिंकू ने सलाद लाकर दी ।
-‘रोज़ रात इतनी देर कैसे हो जाती है...इतना काम आप ही को करना पड़ता है, सुबह से रात तक...।’ नीरजा ने दूसरी रोटी थाली में डाली ।
-‘ऐसा नहीं है...कभी सात तो कभी आठ बजते हैं...। फिर शहर में इक्के-दुक्के लोगों से मिलकर लौटते थोड़ा समय हो ही जाता है ।’ अखिल ने कहा । आधी बातें सुनते हए नीरजा किचन में चली गई थी ।
-‘ये रोटी लेना...।’ नीरजा ने गरम रोटी ऊपर से छोड़ी । चूंकि अखिल के हाथ में कौर था इसलिए रोटी आधी थाली में गिरी और आधी ज़मीन पर । अखिल को कुछ अखरा । कोई चलता हुआ विचार जैसे उसके मन में यकायक टूटा हो ।
-‘प्लेट में रखकर भी रोटी दी जा सकती थी...। ये क्या हाथ में लिए दौड़ते-फेंकते दो...। नहीं चाहिए अब...।’
अखिल ने तीसरी रोटी थाली में आने के बाद मना किया । हालाँकि वह एकाध रोटी और खाने के मूड में था- ‘एक रोटी और दूँ ।’ यह कहते हुए रिंकू ने चौथी रोटी प्लेट में लाकर थाली में परोसी । नीरजा यिल बार रोटी लेकर नहीं आई । अखिल जान गया था । हमेशा की तरह किसी गलती पर टोका नहीं कि नीरजा को बुरा लगा और उसने उसे अपमान का कारण बना लिया। नीरजा ने फिर खाना नहीं परोसा । आगे जो कुछ लगा, रिंकू लाकर देता गया । अखिल थाली से उठा और टी.वी वाले कमरे में आ गया । नीरजा किचन में बनी रही। अखिल ने रिंकू से खबर भिजवाई कि वह नीरजा से कहे कि खाना खा ले। लौटकर वह जवाब लाया कि नीरजा की तबियत ठीक नहीं है। वह खाना नहीं खायेगी । अखिल को बात समझते देर नहीं लगी । वह जान गया कि आगे क्या होने वाला है । वह थोड़ी देर देखता रहा । फिर उठकर कमरे में चला गया ।
अखिल ने एक पत्रिका उठाई और उसे पढ़ने लगा । नीरजा पानी का जग लेकर आई । धम्म से जग रखा टेबिल पर । फिर वह दूध का गिलास ले आई । गिलास में वह चम्मच जिस तरीके से हिला रही थी, युससे साफ लग रहा था कि उसके दिमाग के भीतर भी कई बातें तेज़ी से चल रही हैं । अखिल ने इधर ध्यान नहीं दिया । वह पत्रिका पढ़ता रहा । हालाँकि वह पत्रिका पढ़ता दिखता रहा था, लेकिन अब शब्दों के अर्थ उसकी समझ में नहीं आ रहे थे । वह एक-एक लाइन कई-कई बार पढ़ता रहा । फिर उसे लगा कि सामने बनती परिस्थितियों में वह आगे और नहीं पढ़ पायेगा । उसके मन में कई एक बातें घूमने लगीं ।
अखिल ने पत्रिका से सिर उठाकर नीरजा पर नज़र डाली । वह सिर पर हाथ रखे आँखें बंद कर निढ़ाल सी सोफे पर बैठी दिखी ।
-‘क्यूं क्या हो गया...। ऐसे सिर पर हाथ रखकर जब-तब नहीं बैठते...।’ अखिल ने समझाना चाहा ।
-‘आप कहाँ-कहाँ से पता कर आते हैं ऐसी बातें ....। फिर कौन सिर पर हाथ धरे बैठा था ।’ वह हमेशा की तरह किसी बात को न मानने के अंदाज़ में आ गई ।
-‘अरे, तुम तो बुरा मान गई...मेरा मतलब ऐसा नहीं था ।’ अखिल ने कहा । वह जानता था कि नीरजा अब मानने वाली नहीं । वह कोई न कोई ऐसी नई पुरानी बात छेड़कर एक-दो घंटे उस पर जिरह करेगी । काफी ऊब भरी जिरह । न जाने कैसे-कैसे तर्क और ऊटपटांग विचार ...। वह सुनी-सुनाई आत्मेकन्द्रित बातें...।
-‘मैं कौन होती हूँ, बुरा मानने वाली । पढ़ो भई, खूब पढ़ो । जब पढ़ाई ख़त्म हो जाए तो बुला लेना ।’ नीरजा ने एक झटके से कहा और बाहर कमरे में निकल गई ।
अखिल ने पत्रिका को आगे पढ़ने का प्रयास किया लेकिन उसके दिमाग में बाहर मुँह फुलाकर बैठी नीरजा की आकृति घूमती रही । पता नहीं बैठे-बैठे क्या सोच रही होगी । उसे लगा कहीं उससे कुछ गलत तो नहीं हो गया । फिर लगा कि बार-बार बेवजह मनाना ठीक नहीं । इसी से आदक बिगड़ती है । उसने फिर पत्रिका में ध्यान लगाना चाहा लेकिन मन लगा नहीं । पत्रिका बंद करके उसे टेबिल पर सरका दिया ।
अखिल उठकर बाहर चला गया । पहले उसे लगा था कि जब इच्छा होगी, नीरजा ख़ुद आ जायेगी । मन नहीं माना । अखिल ने खोचा मैं ही झुक जाता हूँ । बुला लेता हूँ उसको ।
-‘चलो भीतर, लाइट बुझा दी है ।’अखिल ने कहा ।
- .....नीरजा चुप रही ।
-‘नाराज़ हो क्या ? अखिल ने बात बढ़ाई ।’
-‘नहीं तो, हो गई पढ़ाई ख़त्म...?’ टेढ़े से अंदाज़ में उसने कहा ।
अखिल ने कुछ कहा नहीं । वह भीतर कमरे में लौट आया । थोरी देर में नीरजा लौटी । अनमनी और गुससे में तनी गई । अखिल ने सोचा-चलो मैं ही मनाता हूँ । मान जाए शायद ।
-‘क्या भाई, गुस्सा गया कि नहीं ?’
-‘आपको क्या....कोई मरे या जिये...?’
-‘खाना क्यूं नहीं खाया ?’
-‘नहीं खाया...मर्जी...।’
-‘फिजूल बात क्यूं बढ़ाती हो ।’
-‘आप पढ़ो न...खूब लाइट जलाओ ।’
-‘और तुम बस आते ही झगड़ने लगो, टांट मारो और समझाओ तो उल्टी-पुल्टी बातें करो ।’ अखिल को गुस्सा आ गया ।
-‘कौन कहता है समझाओ ।’ नीरजा बोली ।
-‘तो खाना क्यूं नहीं खाया ?’
‘नहीं ...खाना मुझे ।’
‘आज क्यूं लगा कि रोटी फेंककर दी मैंने । रोज़ यूँ ही खा लेते थे, पर लड़ने का मन जाता नहीं आपका ।’
‘लड़ कौन रहा है...मैं या तुम...?’
‘नहीं मैं तैयारी करके आता हूँ लड़ने की । कब घर पहूँचूं और लडूं।’
‘मैं कल चली जाऊंगी, फिर नहीं लौटूंगी । आप ख़ुद देख लेना । अपनी मर्जी चला लेना ।’
‘अरे यूँ नाराज़ नहीं होते । चलो मैं ही सारी कहे देता हूँ ।’
‘बस सारी...कितनी बार सारी कहोगे । मुझे नहीं करना सारी-वारी ।’
‘अरे मान जाओ ।’
कोई दो घंटे की तकरार के बाद नीरजा मान गई । पर उसका गुस्सा पूरी तरह गया नहीं । वह एक ओर मुँह फेर कर सो गई और अखिल दूसरी ओर । अखिल सोच रहा था कि कैसे सब बातें सामान्य बनाने का प्रयास किया जाए । वह सोचता कि तकरार न हो । पर, न जाने किस बात को लेकर और न चाहते हुए तकरार हो जाती है । नीरजा के सामने अपने सहयोगी, अपना घर...अपने विचार और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने की तमन्ना होती और वह उसमें अखिल को शामिल करना चाहती । दूसरी तरफ़ अखिल के पास अपना दफ़्तर अपना बैंक...अपनी समस्याएं और दिन भर की किलकल से निपट कर निकला समय होता...। इस सबसे परे वह सुकून के दो-चार पल तलाशता...। लेकिन ऐसे पल उसे बहुत कम नसीब होते । तकरार, झल्लाहट से दिन शुरू होता और वैसा ही बीतता ।
अखिल को लगता कि वह जोर-जोर से चिल्लाये । खाली सड़क पर दूर-दूर तक दौड़ता चला जाए । वह चीख-चीख कर कहे कि उसे नहीं चाहिए यह सब शानो-शौकत और घर-परिवार । सब खोखला है । सिर्फ़ भागमभाग...रोज़ की भागमभाग...इससे आगे कुछ नहीं है ज़िंदगी । रोज़ की जोड़-तोड़ । गणित का सवाल । हल निकालने का प्रयास...और हर बार गलत होता जोड़-घटाना । हल निकलता ही नहीं । हल निकलेगा भी कैसे ? एक तार बुनो तो दूसरा टूट जाता है । दूसरा जोड़ो तो तीसरा उलझता है । फिर, अखिल को लगता है कि कुछ तार ही नहीं...बल्कि चारों तरफ़ पतले...बहुत बारीक तारों का जाल है...। यूँ ही छोड़ दो सारे तारों को...? फिजूल की मेहनत क्यूं...? नहीं...नहीं सुलझाने चाहिए तार...फिर सुलझते ही कहाँ हैं तार...? और-और उलझ जाते हैं...।
अखिल सोचता चला जाता है । उसके सामने बेतरतीब विचारों की श्रृंखला चल पड़ती है । नीरजा तैश में है, मगर सो गई है । वह उसे उठाना नहीं चाहता । उठाकर करेगा भी क्या...? उसे सुबह ऑफ़िस जाना है । सुबह से जुड़ी दिनचर्या की फेहरिस्त उसके सामने घूम जाती है । वह कमरे के अँधेरे में देखने का प्रयास करता है । कुछ दृश्य बनते-बिगड़ते हैं । अखिल समझने का प्रयास करता है । उसे लगता है, वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा है । फिर उसे लगता है कि समझकर करेगा भी क्या ? किसके लिए समझेगा....? किसे समझायेगा....? सभी तो उससे ज़्यादा समझदार हैं ? उसे लगता है कि सी को समझाना नहीं चाहिए ? नीरजा को भी नहीं ।... सभी बुरा मान जाते हैं । आख़िर उसके भीतर ऐसा क्या है कि उसके विचार को कोई समझ नहीं पाता । क्या ज़िंदगी मिली है उसे । एकदम पतले तारों सी ज़िंदगी । एक छोर तलाशों तो दूसरा नज़र नहीं आता । दूसरा सिरा तलाशो तो पहला उलझता है ।
अखिल अपने सोच में खोता चला जाता है । उसे एहसास होता है कि फिर एक दिन बीता...। रात खूब गहरी हो गई है । थोड़ी देर में बीत जायेगी । अखिल सोचता है दिन और रात के बीच वह सिर्फ़ डोलता भर रहता है । फिजूल सा, अर्थहीन । उसे कोई तरकीब नज़र नहीं आती है । अखिल को लगता है वह और नीरजा दो अलग-अलग खानों में पड़े हुए हैं । एक झीनी-सी आड़ है । यह आड़ हर दिन फैलती जा रही है । फिर लगता है कि क्या वास्तव में समझौता ही ज़िंदगी है ? उसकी नज़र दूर शून्य में कहीं खोती चली जाती है ।
(प्रकाशितः अमृत संदेश, रायपुर, 1993)

नौकरी


‘भाई साहब... जवाब....साहबान....एक मिनट रुकिये... ये गोलियाँ देखिये...। बिल्कुल मँहगी नहीं... इसके साथ आपको उपहार भी मिलेगा । दूकानों से सस्ते में पड़ेगी... देखिये भाई साहब... देखने में बुराई नहीं... फिर लीजिए न लीजिए...। साहबन, आप भी आ जाइए...। सर्दी-खांसी के लिए इससे अच्छी गोलियाँ नहीं ...। सिर्फ़ एक गोली ही काफी... पर आप पूरा पाकेट ले जाइये... घर-गृहस्थी में काम आएंगी ...। बाबूजी, आप भी आइये...। अरे माताजी, आप किनारे से देख रही हैं... आगे आ जाइये...। मुन्ने को भी लेती आइये बहन जी...बहुत कम गोलियाँ बची हैं । ले लीजिए जनाब... घाटे का सौदा नहीं...। कोई धोखा-फरेब नहीं...। बिल्कुल कंपनी की क़ीमत पर...। उपहार का गिलास भी साथ लीजिए...। सोचिये नहीं...। सर्दी-खांसी की शर्तिया दवा है ।’
सरद इलाके में वह एक दूकान के चबूरते के सामने पूरी ताकत के साथ और बड़ी आत्मीयता से सामने जुट आई थोड़ी सी भीड़ से यह सब कह रहा था । कुछ उसे ध्यान से देख रहे थे ।कुछ सुन रहे थे । कुछ समझ रहे थे । वह चिल्ला रहा ता । समझा रहा था । गोलियों के पैकेट में से गोलियाँ, तो किसी को पूरा पैकेट दे रहा था । समझान और गोलियाँ बेचने का काम साथ-साथ जारी था । उसने ढीली शर्ट.... तंग पैंट और कोट पहल रखा था । एक पुरानी टाई गले से पैंट की ओर झूल रही थी । वह बार-बार गले के पास टाई को छू रहा था । शायद टाई कस गई थी । जब-तब भीड़ से नज़र बचाकर वह टाई पर हाथ फेर लेता . ऐसे ही एक बार सड़क चलते लोगों को ध्यान से देखता और एकाध पहचाल का कोई निकल आता तो वह झट से नज़रें चुरा लेता । वह यही कोशिश करता कि नज़रें मिलने न पायें ।
सड़क की बत्तियाँ जल रही थीं । सामने फोल्डिंग टेबिल पर सर्दी-खांसी की गोलियाँ और प्लास्टिक के गिलास सजे थे । वह एक-दो लोगों को निपटाता और एक बार फिर नये सिरे से उलट-पलट कर गोलियाँ जमाने लगता । इस सबके साथ वह भीड़ में से लोगों को ताड़ता रहता । उसकी नज़रों में वह बात आ गई थी कि भीड़ में से उस चेहरे को खींचकर निकाल लेता जिसमें थोड़ी बहुत भी गुंजाइश दिखती । फिर वह उसे तरह-तरह से समझाने लगता । इसके साथ ही वह भीड़ से अपना संपर्क बनाये रखता । जिसे वह समझाता उसके हाथ में वह गोलियाँ का पैकेट या दस-पाँच गोलिकां ज़रूर थमा देता । समझाने की कोशिश में वह पच्चीस-पचास गोलियाँ ऐसे ही बाट दिया करता । हालाँकि वह उससे ज़्यादा भी बाँट सकता था और इससे ज़्यादा गोलियाँ उसे बाटने को मिलतीं भी । लेकिन वह सारी की सारी बाँटता नहीं । बल्कि, ताड़ता रहता । किसे देना चाहिए और किसे नहीं । वह भीड़ के बीच पूरी तरह विश्वास पैदा करने की कोशिश करता और अक्सर वह विश्वास पा भी लेता । उसने एक रिक्शा कर रखा था... जिसे एक जगह पहुँच ने के बाद दो-तीन घंटे के लिए छोड़ दिया करता और उसके बाद फिर उसी रिक्शे पर वह दूसरी ओर कूच करता जाता । हर वक्त उसने सामने नये चेहरे होते और वह हर एक को एकजैसे अंजाज से समझाता ।
वह अब भी समझा रहा था- ‘ले ही लीजिए भाई साहब....। फिर मैं इधर आया न आया..। बरसात का मौसम है ठण्ड भी है.... सर्दी-खांसी तो लगी रहती है ....घर में छेटे बच्चे होंगे ...। इन गोलियाँ सो ज़रा भी डरने की बात नहीं...। नुकसान तो करती ही नही...। शर्तिया इलाज है सर्दी-खांसी का...साहबान ज़्यादा बोलना क्या ...? आप ख़ुद आजमा कर देखिए ...। मैं अभी आपके शहर में हफ्ते भर हूँ ...। कहीं धोखा हो..... बेईमान की गुंजाइश हो...। आप मुझे ढूँढ़ निकालिए और चाह जूते लगाइये, जो कहीं मेरी बात झूठ निकले । साहबान, चोखी बात और एकदम चोखा धंधा ...। निखालिश ईमानदारी का सौदा है । आप विश्वास कीजिए और ले जाइये... । आप मुझे याद करेंगे... फिर-फिर आएंगे ... मैं अभी आपके शहर में हूँ...। डरिये नहीं भाई साहब... देखिए... फिर लीजिए न लीजिए...। फायदे का सौदा है, फायदे का ।’
वह बिना रके सभी को समझा रहा था । नये सिरे से...एक जैसे अंदाज़ से । सदर इलाके में धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी थी । थोड़ी देर में दूकानों के पट औंधे होने लगे । कुछ दूकानें बन्द हो गई थीं । कुछ हो रही थी । उसने अपने रिक्शे में सामान लादा और चल पड़ा । रिक्शे वाले को उसने इसारा काया, एकदम सीधा चलने का । अब वह दिन भर का हिसाब देगा और बचा-खुचा समान एजेन्सी में जमा करेगा । बस, उसके बाद छुट्टी...आज का काम ख़त्म । हर दिन वह ऐसा सोचता है और हर दिन लगभग इसी तरह निपट कर घर लौटना है । पिछले एक साल से वह यही धंधा कर रहा है । हालाँकि धंधा अच्छा नहीं, फिर भी पहले से अच्छा है । मेहनत ज़रूर है पर, सारे समय की किच-पिच नहीं । बस यही बात उसे अच्छी लगती है । और यही कारण है कि एक साल से वह शहर....शहर की सड़करें और शहर के चौराहे बदल रहा है ।
‘ठीक है.....जैसा भी है..। अभी तो ठीक है...।’ उस हरामखोर सेठ के यहाँ से तो कहीं ठीक है । यह अलग बात है सभी सेठ एक-से होते हैं । जब नया-नया आया था तब यह सेठ भी ‘बीस’ था, किसी मामले में उन्नीस नहीं । ज़रा भी जगह दिखी नहीं कि टांग अड़ाई उसने । पर, थोड़ी सी राहत है यहाँ... गला ज़रूर फाड़ना पड़ता है पर...। हाँ, इतना तोचलता है । सभी जगह चलता है... मनपसंद बात होती ही कहाँ है ? वह सड़क से घर का फासला तय करते हुए रास्ते भर सोचता जाता है ।
सर्दी-खांसी की गोलियाँ और इन्हें बेचने का धंधा उसने एक साल पहले ही शुरु किया । इसके पहले वह जूते की दूकान में नौकर था । सात बीस पैसे रोज़ का नौकर । एम.एस.सी पास करने के बाद भी उसने यह नौकरी कुबूल कर ली थी । उसे तरुंत काम चाहिए था और कोई जगह ऐसी नहीं थी जहाँ तुरंत नौकरी मिल सके । थोड़े से प्रयास के बाद उसे जूते वाली नौकरी मिली और उसने एक झटके में कुबूल भी कर ली । पहले कुछ अखर, फिर...।
आज उसने सेठ की नज़र बचाकर दो रूपये खिसका लिये । रूपये उसने बचाए ज़रूर, पर चुराये नहीं । वह सोचता है यह ठीक नहीं । फिर उसे लगता है – ठीक है मुफ्त में गोलियाँ बाँटना भी......बांटो.......। क्या हुआ उसमें से दस-बीस किनारे भी कर लो तो । बाँटने में से कुछ बचा लेना क्या अच्छा नहीं । यह प्रश्न काफी देर तक उसने मस्तिष्क में चक्कर काटता रहा । वैसे वह इस धंधे में पन्द्रह से बीस रूपये रोज़ बना लेता है । सौ के पीछे बीस परसेंट कमीशन का धंधा । पहले तो उसे बमुश्किल सात रूपये बीस पैसे मिला करते । उस पर छुट्टियों की कटौती अलग । रोज़ की कमाई का हिसाब लगाते समय उसे अक्सर वह जूते वाली नौकरी याद आ जाया करती । उस नौकरी के प्रमुख पृष्ठों की रील उसके समने घूम जाया करती ....। जब-तब और कभी भी ।
कॉलेज छोड़ने के बाद के दिन । नौकरी की तलाश । जगह-जगह हाथ जोड़कर प्रार्थना और ऐसे ही एक दिन जूते की दुकान पर पहुँचा जाना । उसे बाद सात रूपये बीस पैसे की नौकरी का मिल जाना । इस नौकरी के साथ उसे मिलता हफ्ते में एकाध बार नाशअता और दिन भर में कभी-कभार चाय । सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक काम । पूरे बारह बजे तक नौकरी । कागज-पुट्ठे के डिब्बे । जूते-चप्पल के नंबर । तय जगह से उन्हे लाकर दिखाना और वापस रखना । सेठ की घुसती नज़रें । ग्राहकों की पसंदगी और नापसंदगी को ताड़ना । सबकी बात समझना...गुस्से को बर्दास्त करना...। इन सब का योग था… ‘सात रूपये बीस पैसे ।’
उसे लगता जैसे अब भी वह शोर उसके मस्तिष्क में कहीं घूम रहा है । आवाज़ें एक आकार लेने के बाद उभरती आ रहीं हैं । ‘सुनील...ज़रा सात नंबर का सैंडिल दिखाना...हाँ, वो शाक्स भी...पाँच नंबर का कटराइज शू भी लेते आना....सुनो, बाबा को हवाई चप्पलें भी दिखानी हैं ।’ सेठ की एक-सी रट और उसकी यंत्रवत दौड़ । अच्छी खासी नहीं तो सामान्य भीड़ वाले बाजार के बीच की दुकान । वह फटाफट फरमाइश के मुताबिक जूते-चप्पलें ला-लाकर दिखा रहा था । पैरों में उन्हें पहनाकर नाप रहा था । समझा रहा था । अभी वह जूते पहनाकर अलग भी नहीं हो पाया था कि एक सभ्रांत सज्जन ने पैर पटकते हुए कहा
-कब से काम कर रहे हो...? ज़रा भी तमीज नहीं तुम्हें...पता है जूते के लेस कैसे बांधे जाते हैं ?’
-‘लाइये साहब, ठीक किये देता हूँ ।’ वह बोला ।
- ‘अब रहने भी दो...तुम्हारे बस की बात नहीं यह..मैं ख़ुद ठीक किये लेता हूँ । तुम ज़रा कपड़ा मार दो ।’
- ‘जी साब...! मुझे दुःख है...आपको परेशानी हुई...।’ कातर स्वर में उनसे कहा ।
- ‘हाँ-हाँ ठीक है...अब जाकर बिल ले आओ...और हाँ । बाक़ी के पैसे तुम रख लेना ।
बड़े गरीब मालूम पड़ते हो ।’ जूते पर कपड़ा फिराने से रोकते हुए उसने कहा । फिर वह कार की ओर बढ़ा । कार स्टार्ट हुई और उसके पीछे शोर उछालती हुई दूर होती चली गई ।
उसे लगता है । अब भी वह शोर उसके भीतर कहीं गूँज रहा था और बख्शीस के दो रूपए अब भी जैसे उसके हाथ पर धरे थे, जो सभ्रांत सज्जन ने उसे दिये थे । सभ्रांत सज्जन के जाने के बाद सेठ ने उसे बहुत डाँटा । उसे अपने रिश्ते का हवाला दिया । सुनील के वयव्हार को जी भर के कोसा । इस सबके बाद वह नौकरी से अलग कर दिया गया । उसके हाथ में उस वक्त नौ रूपये बीस पैसे थे । जब भी वह हाथों में रखकर रूपये गिनता उसके आगे जूते वाली नौकरी घूम जाती और घूम जाता नौकरी के साथ जुड़ा एक ऐसा माहौल । बेचैनी और विवशता । बेचैनी और विवशता ही थी कि वह नौकरी जाने के बाद एक दिन भी चुप नहीं बैठ पाया । शाम को नौकरी गई और सुबह नौकरी की तलाश शुरू कर दी ।
कोई सप्ताह भर भटकने के बाद उसे एक नौकरी भी मिल गई । यह नौकरी उसे कुछ तो पढ़ाई की वजह से और कुछ दयनीयता और हाथ जोड़ने वाली मुद्रा की वजह से मिली । भटकते-भटकते उस दिन शाम वह दवा की एजेंसी में पहुँच गया । दिन भर की दुत्कार और थकान से बेजार । मन में आया-क्यूं न यहाँ भी किस्मत आजमा ली जाए ।
दवा एजेंसी का कार्यालय में घुसते ही सबसे पहले उसने यहाँ-वहाँ नज़र डाली । एकबारगी लगा कि यहाँ भी कुछ नहीं बेनने वाला । फिर उसने एक किनारे बैठे वृद्ध की ओर नज़र डाली और उस ओर बढ़ा गया । अपनी मजबूरी बत्ई और कोई भी काम दिला देने की पुरजोर फरियाद की । वृद्ध को पता नहीं क्यूं दया आ गई । फिर उसने उसे मैनेजर से मिलने की सलाह दी ।
- क्यूं आये हो यहाँ ? मैनेजर ने घूरते हुए पूछा ।
- साब......आपके यहाँ कहीं कोई काम.....? उसने कहा ।
- काम....? अजीब-सा मूंह बनाते हुए मैनेजर ने कहा- कहाँ तक पढ़े हो....क्या उम्र है तुम्हारी ?
- जी, एम.एस.सी. तक...उम्र 23 वर्ष ।
- क्या काम कर सकते हो...। मैनेजर नरम पड़ते हुए बोला ।
- कुछ भी, जो आप कहें ।
- अच्छा....दवा बेच लोगे ?
- जी...।
- घूम-घूम कर सड़क पर बेचनी होगी ।
- जी, बेच लूँगा ।
- देखो एक बार फिर सोच लो भाई....फिर....।
- जी, सोच लिया..... .
- अच्छा तो आब सूनो....करना क्या है......कोट-पेंट तो तुम्हारे पास होगा.....और टाई भी । अब तुम्हें करना क्या है, कि कल से अप-टू-डेट होकर आओ और काम शुरु कर दो । और हाँ, बीस परसेन्ट कमीशन पर तुम्हारा यह काम पक्का ...। हिसाब रोज़ का रोज़ देना होगा ।
- जी मुझे मंजूर है ।
उसने हाँमी तो भर दी लेकिन, फिर वह गहरे सोच में डूब गया । अब क्या होगा ? यह नौकरी तो मिली, मगर मिलते ही गई भी समझो ? उसने अपने कपड़ों पर नज़र डाली । सामान्य सा गंदा पुराना फुलपेंट । अंतिम स्थिति तक आ पहूँची शर्ट । और फटीचर चप्पलें ? कहाँ से हो पायेगा चार-छह घंटों में सारा इंतजाम । यदि कुछ भी न हुआ तो समझ गई नौकरी ? सेठ ने भी क्या खूब मजाक किया है ।
- अब क्या क्यि जाए....क्या न किया जाए..........किससे माँगू, किससे न माँगू ? दवा एजेंसी से बाहर निकलने के बाद वह फिर सड़क पर काफी देर तक खड़ा रहा । लेकिन उसे कोई उपाय न सूझा । फिर एक झटके से उसके मन में ख्याल आया । विकास के यहाँ चला जाए और उसके बाद वह लम्बा फासला तय कर विकास के यहाँ खड़ा था । रात दस बजे के आसपास । विकास के बाहर आते ही वह उसे खींचकर एक कोने में ले गया ।
- यार कोट-पैंट और जूते की ज़रूरत थी...अभी और इसी वक्त......। जो तुमसे बन सके, जमाओ । एक नौकरी मिल रही है, जो इन सबके बिना गई भी समझो ।
देखता हूँ, तुम यहीं ठहरो...। विकास ने कहा और बीतर चला गया ।
उसके बाद भीतर एक-एक कमरों की लाइट जलाई-बुआई गई । इधर-उधर ढूंढा़खखोरी की गई । फिर विकास के बोलने-बात करने की आवाज़ बाहर आने लगी । थोड़ी देर बाद वह टाई और जूते लिए सुनील के सामने था । टाई के बारे में उसने हिदायत दी थी- जीजा की टाई है...दो-तीन दिन में लौटा देना... नहीं तो मेरी फजीहत हुई समझो ?
- कैसी बात करते हो । लौटने में मिलट भर की देर नहीं होगी । उसने कहा और एक झोला माँगकर उसने टाई व जूते उसमें ठूंस लिये । इसी तरह तीन- चार दोस्तों से माँग-माँग कर उसने रात 12 बजे के आसपास पेंट और कोट का इंतजाम कर लिया । रंग-बदरंग लगभग सारा सामान समेट कर वह करीब एक बजे सड़क पर था । सारा कुछ हाथ आ जाने के बाद उसने सोचा-घर कितनी दूर है? फिर उसने अंदाज़ लगाया-‘पाँच किलोमीटर ज़्यादा ।’
रात तीन बजे वह खाट पर था । ज़मीन पर सटकर तीनों बहनें सोई थीं । सरकारी नौकरी की सीमा रेखा तक आ पहूँते पिता को जोर की खांसी आई थी । उसने करवट बदल ली । उसी कमरे में बहनों के पास गठरी बनी माँ पड़ी थी । बहन शादी की उम्र छू चुकी थीं पर...। छोटा भाई उसकी खाट के एक ओर सोया था । उसे नींद नहीं आ रही थी । उसे लगा कि शायद माँ और बाबू जी भी नींद का बहाना कर जाग रहे थे । अलग-अलग सारी समस्याओं पर सोचते हुए ।
उसे इतनी रात गये जूते का ख्याल खाये जा रहा था । चार-छह जगह से मरम्मत करानी है । सुबह छह बजे उठना होगा । आयरन सुलगाकर कपड़ा सलीके से करना होगा । कोट और पेंट के साथ जब वह टाई पहनेगा तो कैसा लगेगा ? घर से बाहर कैसा दिखेगा ? निकलते ही कहीं लोग ठहाका मारकर हँस पड़े तो ? जूते भी वह इतने सालों में पहली बार पहनेगा ? जूते पहनकर वह ठीक से चल पायेगा कि नहीं ? सब कुछ पहन ओढ़ने के बाद कहीं उसकी सूरत जोकर जैसी तो नहीं हो जाएगी ? और उसकी यह सूरत देखकर सेठ ने मना कर दिया तो...? और यदि नौकरी उसने दे भी दी तो क्या वह दवा आसानी से बेच सकेगा ?
सैकड़ों सवाल उसके दिमाग में घूमते रहे और वह पूरी रात सो नहीं पाया । दवा एजेंसी की तरफ़ पढ़ते हुए वह रास्ते भर विश्वास बनाता-बिगाड़ता रहा । मन ही मन दुआएं माँगता रहा । और आख़िर दस बजे वह शहर की मुख्य सड़क पर दवा के साथ था । कोई दो साल तक दवा बेचने के बाद उसे वहाँ से हटा दिया गया । बताया गया कि दवा एजेंसी घाटे में चल रही है और बंद किया जा रहा है । उसके बाद वह फिर सड़क पर था । ऐसा नहीं कि वह नौकरी छोड़ने के बाद एकदम सड़क पर आ गया । और भी नौकरियाँ कीं उसने । पर, दिनों की गिनती वह दूर नहीं खीच पाता । दवा का धंधा छोड़ने के बाद उसने एक के बाद एक कई नौकरी करीं और छोड़ीं ।
वह अख़बार के दफ़्तर में भी नौकरी माँगने गया । उसने वहाँ प्रूफ पढ़ने की नौकरी की और इसके पहले कि मालिक से दो-दो बातें हों या मालिक उसे निकाले, उसने नौकरी छोड़ दी । फिर वह घूम-घूमकर व्यावसायिक थियेटर में काम करने लगा । पर नाटकों के शो माह में एक या दो बार होते, बस । इससे उसके लियेख़ुद का और घर का ख़र्च चल पाना संभव नहीं था । उसने नाटकों पर ज़्यादा ध्यान देना छोड़ दिया । उसने टेलीविजन में केजुएल आर्टिस्ट की नौकरी की और समय पर पैसा न मिलने के कारण छोड़ भी दी ।
इन सब के बाद वह रेडियो में केजुएल आर्टिस्ट बना । वह ज़िद में था । जितना भी काम मिले, अब वह यहीं करेगा । ड्यूटी के दिन का काम निपटा लेने के बाद वह वरिष्ठ साथियों के साथ लगा रहता । उनसे सीखता । धीरे-धीरे वह सबकी नज़रों में चढ़ गया । उसकी प्रतिभा निखरने लगी । उसने आगे चलकर स्टाफ एनाउंसर के लिए एप्लाई किया । अब वह ज़्यादा ही रेडियो में जुटा रहता । उसकी उम्मीदें जुड़ गयी थी । फिर वह दिन आया जब पाँच सौ प्रतियोगियों के बीच एक अकेले पद के लिए वह चुन लिया गया ।
‘वे’ दिन थे और ‘आज’ का दिन था । वह अंतर महसूस कर रहा था । उसे लगा अब उसकी प्रतिभा की पहचान होगी....वह यहाँ से और आगे निकल जाएगा...आगे और आगे...। सुनील को अच्छी नौकरी मिलने की खबर तमाम अच्छे-बुरे लोगों को मिली और उसके आगे मिलने वालों की एक कतार थी । कुछ स्वार्थवश, कुछ निःस्वार्थ । सुनील, घर....बाहर...और अपने भीतर अलग तरह का बदलाव महसूस कर रहा था । अब उसे हज़ार रूपये से ऊपर मिलने लगा था । उसे यह नौकरी अच्छी लगी । एक साल बड़ा अच्छा गुज़रा । फिर उसने पाया कि वह एक कमरे में कैद होता जा रहा है । अच्छा काम करने के बाद भी अफसर उसकी गलतियाँ छांट रहे हैं । ज़्यादा ईमानदार होने से वह कुछेक की आँखों का काँटा बनता चला गया । बड़े अफसर के मुँहलगे साथी उसे तंग करने व अपमानित करने की योजना बनाने लगे हैं ।
एक दिन वह अपने मित्र व एकाउंसरों के साथ खड़ा बात कर रहा था कि एस.डी.(केन्द्र निदेशक) का मुँहलगा अफसर वहाँ से गुज़रा । उसने पहले तो अजीब-सा मुँह बनाया । फिर रुककर सुनील से बोला- सुनील तुम लंच पर जा रहे हो न...? ज़रा बस स्टाफ तक चले जाना...वहाँ, मोची के पास बच्चों के जूते पड़े हैं... साथ लेते आना । एक झटके से उसने कहा और दूर निकल गया ।
सुनील को लंच के बाद नौकरी करनी थी और वह उसका ड्यूटी अफसर था । नई नौकरी थी । सुनील को बहुत जोर का गुस्सा आया । उसे एकबारगी लगा- बढ़कर एक तमाचा रसीद कर दे उसको... और यह नौकरी उसके मुँह पर मानकर चलता बने । ......समझ क्या रखा है उसने ? फिर पता नहीं क्या हुआ.... उसका उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे झुकता चला गया । उसने अफसर को एक भद्दी-सी लागी दी और मुट्ठी उछाली । ..........उसे लगा जैसे उसने एक घूंसा मारा हो । उसके दिमाग में अचानक....नामदेव ढसाल की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ घूमने लगीं,....वह बुदबुदाया- ‘नौकरी गई माँ की.........।’ उसने देखा अफसर दूर होता जा रहा है ।
फिर उसके सामने एक झटके से दवा और जूते वाले सेठ का चेहरा उभर आया और उनसे मिलता ड्यूटी अफसर का चेहरा । फिर तीनों चेहरे ऊपर-नीचे घूमने लगे । लगातार काफी देर तक । फिर रह-रहकर उसे लगा...तीनों चेहरे में कहीं कोई अंतर नहीं है । उसके सामने नौकरी का अर्थ स्पष्ट था ।
(प्रकाशितः ‘अमृत संदेश’ रायपुर, 1988)