सोमवार, 9 जून 2008

नफ़रत


चहकदमी करते हुए उसके पाँव स्थिर हुए तो अँगूठे से ज़मीन कुरेदने लगा । कभी ज़मीन की ओर देखता तो कभी इधर-उधर । उसकी स्थिर से ही आभास हो रहा था कि वह परेशान है । वह बालों पर हाथ फेरता हुआ कुछ सोचने लगा । यह सब क्रिया बाग में बैठे हुए लोगों के लिए ज़रूर हास्यास्पद हो सकती थीं । लेकिन बाग में सभी लोग आपस में इस तरह मशगूल थे कि न्हें आसपास के आलम की ज़रा भी परवाह नहीं थी । एक हर्षोल्लास जैसी स्थिति लगती थी । वह कुछ बोलना चाहता था । लेकिन कुछ कहे इसके पहले वे शब्द जो बाहर आकर आवाज़ पैदा करते... अंदर ही घुट कर रह जाते ।
फिर एकाएक वह अपने अन्दर्द्वंद्व से घबरा कर बोल पड़ा- रश्मि, क्यों न हम- तुम ....?
- ऊं…. हूँ । पास ही बैठी रश्मि जो किसी चिंतन में डूबी थी, उसे एकटक देखने लगी ।
- क्या हआ राज ..... ? तुमने मुझसे कुछ कहा । - वह बोली ।
- नहीं तो....। राजेश ने संक्षिप्त उत्तर दिया ।

रश्मि उसे राज ही कहा करती थी । राज नाम से पुकारना उसे अच्छा लगता था और राजेश को भी । एक दिन ऐसे ही दोनों बैठे थे, तब रश्मि ने कहा था, राज... आगर मैं राज कह कर पुकारुँ.... तुम्हें अच्छा लगेगा न.... ?
- मुझे भला क्या एतराज होगा... तुम चाहे जिस नाम से पुकारो । राजेश ने भोलेपन से कहा था और वह जोर से हँस पड़ी थी ।
आज जब वही प्यार भरा शब्द उसके जेहन में उतरा तो वह व्याकुल हो उठा और एक बार फिर साहस जुटाकर बोला- रश्मि.... तुम्हें एकांत.... सूनापन... कभी सताता नहीं क्या ? मैं तुम्हारे इस खालीपन को बाँट नहीं सकता....?
- कैसा खालीपन राज ! तुम तो साथ हो, फिर भला मुझे सूनापन क्यों महसूस होगा ?
- नहीं मेरा मतलब.... । राजेश ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया । फिर बातों का रुख दूसरी तरफ़ मोड़ते हुए बोला- क्या तुम्हें डर नहीं लगता....। ये समाज....ये व्यक्ति..... इन सबसे तुम अकेले ही संघर्ष कर सकेगी... रश्मि तुम्हें सहारे की ज़रूरत होगी ....।
- नहीं... अब मुझे बिल्कुल भी डर नहीं लगता.... फिर डर भी कैसा .... ? अपनी वह ज़िंदगी मैं बहुत पीछे छोड़ आई । जब मैं ज़रा-ज़रा सी बात पर घबरा उठती थी । परिस्थितियों से संघर्ष कर मैंने तमाम मुश्किलात को अपने अनुकूल बना लिया है । अब कैसा डर.... ?
- नहीं-नहीं, तुम शायद मेरा मतलब नहीं समझ पाई । राजेश ने कहा ।
- मैं सब समझाती हूँ.... मैंने तमाम चीज़ों को अपने अनुकूल बना लिया है । अब मैं किसी की मोहताज़ नहीं ।
- रश्मि मैं यह सब नहीं कह रहा हूँ । ....मैं तो.... । कुछ रुकते हुए वह बोला- मैं तो...... मेरा मतलब.... मैं और तुम क्यों न साथ रहने लगे..... अपना घर होगा... और ।
- बस...... बस, ये सब कहने की बात है... इन सब बातों का मेरी दुनिया से कोई संबंध नहीं ।
- रश्मि, मैं तुमसे प्यार करता हूँ और तुम्हारा साथ चाहता हूँ.. क्यों न ज़िंदगी के इस एकाकीपन को हम अपने प्यार और विश्वास से बाँट लें ।
- राज....... ये सब फ़ालतू बातें हैं..... इन बातों में अपना वक्त जाया न करो ...... सब ओर स्वार्थ है.... हममें और सभी में.... । हम सभी स्वार्थ से घिरे हुए हैं । जिस पल हमारा जीवन स्वार्थ से परे हो जाएगा, हमारे अंत में भी देर नहीं लगेगी ।
- नहीं...... रश्मि...... तुम्हारा सोचना गलत है । सभी एक जैसे नहीं होते ।
- राज, इन बातों को यहीं छोड़ हम काम की बातें करें तो ज़्यादा अच्छा होगा ।
- रश्मि.... हम.... मेरी बातों को समझने की कोशिश तो करो ।
- राज अब घर चलें । देखो अंधेरा भी घिर रहा है ...... ठंडी-ठंडी हवाएं.... लग रहा है..... कहीं बारिश न हो जाए ।
- आख़िर तुम प्यार से इतनी नफ़रत क्यों करती हो ?
- बहुत लंबी कहानी है । तुम नहीं समझ पाओगे... मुझे हर किसी से नफंरत है... इस दुनिया से यही तो मिला है.... जिसे मैं पुनः लौटा रही हूँ ।

राजेश इस तरह की बातें सुन उसे आश्चर्यमिश्रित नज़रों से देखता रह गया । वह सोचने लगा कि एक नारी के ह्रदय में प्यार की भावना का अभाव कैसे ? जबकि नारी तो ख़ुद प्यार की भावना से ओतप्रोत होती है । पता नहीं किन बातों का जख़्म है जो अभी तक भर नहीं पाया । रश्मि के इस सपाट उत्तर के बाद वह अपने को इस बिषय में दुबारा चर्चा करने में असमर्थ पा रहा है । इस बारे में वह बहुत दिनों से सोच रहा था । लेकिन कभी अनुकूल अवसर नहीं आ पाया । कोई न कोई परेशानी हमेशा आती रही । आज साहस बटोरकर जब उससे बात चलाई तो बजाय हाँ के न उत्तर मिला ।

वह यह प्रस्ताव रखने के पूर्व कितना ख़ुश था । रश्मि जवाब में हाँ कहेगी और वह प्यार से उसे बाँहों में भर लेगा । फिर कहेगा- रश्मि तुम मेरी हो ....। अब कठिनाईयों से तुम अकेले नहीं...... हम साथ-साथ लड़ेगे ........।
लेकिन नहीं.......... यह सब सपना निकला । ऐसा सपना जो सच होने के पहले खण्डित हो बिखर गया । पास रह गए कांपते से निर्जीव लहराते वृक्ष.... जो यथार्थ तथे... । पत्ते हवाओं के साथ झर-झर कर झर रहे थे, वे धरती पर गिरते फिर खड़खड़ाते हुए शांत हो जाते । जब कभी कोई उन पर से गुज़रता तब वे बेबसी में पद प्रहारों से इधर-उधर सरक जाते और फिर हवा उन्हें थोड़ा और इधर-उधर कर देती । शायद यही उनका क्रम था । राजेश को लगा इस कशमकश की स्थइति से ज़ल्दी ही निकल जाना चाहिए । अब उसके पास कहने के लिए रह भी क्या गया है । सिवाय बेचैनी... अंतर्द्वंद्व.... निराशा और पीड़ा के, जिससे जूझने में वह अपने को बिल्कुल असमर्थ पा रहा था ।

उसे लगा रश्मि में क्यों न कह दे... यह सब मजाक था । यूँ ही किया गया मजाक... । तमाम बातें मैं तुम्हारे मन बहवाव के लिए कह रहा था । लेकिन जिस तरह यह विचार भरा ...., उसी तेज़ी से खो भी गया । उससे न तो कुछ कहते बन रहा था और न चुप रहा जा रहा था । कुछ अस्पष्ट शब्द उसके ओंठ से निकले । लेकिन रश्मि के कानों तक पहुँचने के पूर्व ही उनकी ध्वनि खो जाती । इस तरह काफी समय बीत गया । राजेश ने जब और नहीं रहा गया तब वह बोल उठा- चलो रश्मि घर चलें ।
- हाँ चलो । कहते हुए वह उठ खड़ी हुई ।

वे धेरी-धीरे रोशनी के करीब आये । और बाग की कच्ची-संकरी पगडंडी में चलने लगे । उनके पैरों में दबकर सूखे पत्ते चरमरा उठते । वे उन्हें रौंदते हुए बढ़ रहे थे । इस बीच दोनों में कोई नई बात नहीं हुई । सिर्फ़ औपचारिकता से भरी बात कोछोड़कर । बातों का सिलसिला रुका तो जैसा डेरा डाले थके कारवां की भाँति ठहर गया हो । शब्द चुक चले थे । जैसे उन्हें भी विश्राम की ज़रूरत हो और वे काफी चलने के बाद सुस्ताना चाहते हों । शब्द.... थे मुसाफिर की तरह ध्वनि पैदा करने की जगह सो रहे थे । पता नहीं यह शब्दों की सुप्तावस्था थी या राजेश की मौन अंतरव्यथा ।

मुख्य द्वार के थोड़ा आगे अँधेरे-उजाले का संगम हो रहा था, जिसके बीच खड़ी रशिमि की अपनी ज़िंदगी अंधकारमय थी । घनघोर अंधेरा था उसके अतीत में... । इस अँधेरे ने उसके वर्तमान को भी समेट लिया था । वह अपने अतीत पर दृष्टि डालती तो एक जाना- पहचाना अंधेरा उसके पास आता हुआ चारों ओर से लिपट जाता ।

वह सोचती जा रही है । उसकी ज़िंदगी में अंधेरा फैलाने वाले भी तो यही लोग हैं । .... हाँ.... पुरुष...... जो आज प्यार की बातें कर रहे हैं... । लेकिन ये कितनी ज़ल्दी अपना मुखौटा बदल लेते हैं । ऊपर सहानुभूति और अंदर खोट । वह छलावे का ही तो शिकार हुई । लेकिन तब कितनी मजबूर थी । उसका अपना अतीत.... उसे धोखा दे गया । कुछ दिनों तक वह यौवन से खेलता रहा और फिर जो गया सो गया । वह कठपुतली-सी बनी रही । उसे प्यार पर विश्वास था । वह प्यार को पूजा समझती रही । लेकिन सच कुछ और ही निकला । उसके कसैलेपन का अहसास अब तक नहीं मिट पाया है ।

इसके पूर्व एक घटना और घटी । वह पापा के साथ घूमने जा रही थी । घूमघाम कर जब वे लौटने लगे तभी अचानक एक युवती पापा की ओर बढ़ते हुए मोटर साइकिल के नीचे आ गई । सच, पापा की बिल्कुल गलती नहीं थी । वह न जाने कहाँ से और एकदम तेज़ी से आई । पलक झपकते चक्का उसके ऊपर से निकल गया । इस घटना के बाद लोगों ने पापा के साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखाई । तमाम लोग उस युवती के पक्ष में हो गये । भीड़ लगातार उग्र होने लगी और फिर एकाएक पापा पर टूट पड़ी । चारों तरफ़ से मारो और मारो शब्द गूँज उठे । एक शोर उठा और फिर धीरे-धीरे थमता चला गया । उसके बाद उसे अहसास नहीं रहा कि पापा का क्या हुआ । वह भी मूर्छित हो गई थी ।

अगले दिन आँख खुली तो पापा को बहुत सी चोटें आई थीं । काफी ख़ून बह गया । उसे भी थोड़ी बहुत चोटें आईं । पापा धीरे-धीरे ठीक हो चले । लेकिन कमजोरी और इस घटना ने उन्हें तोड़कर रख दिया । और फिर एक दिन वे इस दुनिया से ही रुखसत हो गये । उस समय पापा की उम्र ही क्या थी, यही तीस-पैंतीस बस । लेकिन उनकी मौत कोई साधारण मौत नहीं थी । इस जमाने के हाथों दी गई मौत..., जिसमें पापा जीते जी पल-पल मरते रहे । एकदम ख़ामोश और चुप ।

तब उसकी भी उम्र क्या थी- सिर्फ़ 13-14 साल । बचपन बस पार ही किया था । थोड़ा-बहुत सुख नसीब हो रहा था । पापा से माँ-बाप दोनों का प्यार मिलता था । लेकिन शायद सुख उसके हिस्से आया ही नहीं । अब 3 साल की थी, तब माँ ने संसार छोड़ दिया । माँ का प्यार तो बचपन मिला ही नहीं । जब होश संभालने की उम्र आई तो पापा चल बसे । उसके बाद अमित का साथ और एक बहुत बड़ा धोखा...। जिसने पूरी ज़िंदगी को अँधेरे में भर दिया । सारी की सारी ज़िंदगी एक स्याह अँधेरे में घिर आई थी । जैसे-तैसे संभल पाई । कितना संघर्ष किया उसने । पापा के व्यवसाय को संभाला....., ख़ुद भी संभाली और अब क्या कुछ नहीं है उसके पास ।

वह सोचने लगी, क्या कुछ नहीं है उसके पास । सब कुछ तो है । तभी उसे लगा सब कुछ कहाँ....? कुछ भी नहीं है उसके पास । न चैन, न आराम । बस प्यासे मृग की तरह वह रेत को पानी समझ मरूस्थल में भाग रही है, जहाँ प्यास मिटने की बजाय बढ़ी है । उसे लगा था कि राजेश के प्रस्ताव को ठुकरा कर उसने ठीक नहीं किया । लेकिन क्या भरोसा.... राजेश अमित जैसा न निकले । सभी पुरुष एक जैसे ही तो होते हैं...... यौवन के पुजारी । नहीं.... नहीं......। अब वह किसी को नहीं अपना सकती....किसी को भी नहीं । इनसे मिलता ही क्या है.... सिवाय तड़प और घुटन के ।
वह लगभग चीख पड़ी । चौंककर इधर-उधर देखा और नज़रें नीचे झुका लीं ।
- क्या हुआ रश्मि ......। राजेश ने पूछा ।
- कुछ नहीं ।
- कुछ तो.... बोलो क्या हुआ.... तुम एकदम से चीख पड़ी......। क्या कोई बुरा सपना था ।
- हाँ सपना..... जैसा ही था..... जो टूट गया ।
- चलो तुम्हें घर तक छोड़ दूँ । बात बदलते हुए वह बोला ।
- नहीं.....मैं ख़ुद चली जाऊँगी । रश्मि ने कहा ।
इसके बाद राजेश चुप रह गया । उसने रश्मि से बिदा ली और अपने रास्ते हो लिया । दोनों विपरीत दिशा की ओर बढ़ने लगे.....। एक दूसरे से दूर होते हुए । निकटता फासले में बदल रही थी ।

(प्रकाशितः नवभारत रायपुर, अप्रैल 1982)

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