सोमवार, 9 जून 2008

सुबह का भूला


आते ही उसने धीमी आवाज़ में कुछ कहा था । मगर आसपास के शोर में उसकी आवाज़ गुम हो गई । समझ में कुछ आया नहीं । वह मेरे बिल्कुल करीब आकर बैठ गया । बेहद थका-थका सा । मायूसी में डूबा चेहरा लिये । वह न तो बहुत आत्मीय था और न ही अपरिचित । कोई डेढ़ेक साल पहले वह मिला और थोड़ी सी जान-पहचान में घुल-मिल गया । बेझिझक व बेतकल्लुफी से वह बातें करता । उसकी साफगोई और व्यवहार कुछ ऐसा था कि वह किसी अपरिचित का ध्यान अपनी ओर सहज खींच लेता । यही सब मुझे उससे जोड़ता चला गया । वह गरीब नहीं था, कि मुझे उससे सहानुभूति या हमदर्दी होती । और, आब वह सामने है, उससे जुड़ा हुआ पूरा अतीत एकाएक मेरे साने घूम गया था ।

आज वह जिस हाल में मिला तो मेरा चौंकना स्वाभिवक था । वह ख़ामोश बैठा था । थका था........, लेकिन भीतर ही भीतर उद्वेलित बी । जैसे कहीं जाते हुए बीच में ठहर गया हो ।किसी सोच में उलझा सा । यह अहसास उसका चेहरा दे रहा था । वह लगातार चुप था । लेकिन मेरी ओर से सहज किये जाने वाले सवालों से बेखबर नहीं । मैंने एक बारगी उसे सर से पैर तक निहारा । फिर पूछ पड़ा था ।

- क्या हालत बना रखी है तुमने...ये सब हुआ कैसे.... फटे गंदे कपड़े.....और ये मायूसी, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ..... तुम वही किशोर हो या..... ।

एकदम से ढेर सारे सवाल । वह चुप्पी साधे ही रहा । जैसे कोई जवाब न सूझ रहा हो या उसके पास बिल्कुस सधे व सही शब्द नहीं हों । बड़ी मुश्किल से वह बोल पाया था । मुझे कुछ रूपये दोगे, कई दिनों से कुछ खाया नहीं..... । घर तो मैंने कभी का छोड़ दिया ...... तुमसे भी नहीं माँगता..... पर अब हार गया...... फिर तुम तो गैर नहीं न.... तुमसे छुपाना भी क्या ।....... । वह तमाम सवालों को टाल गया था । और मुझमें हिम्मत नहीं थी कि उन्हें फिर दुहराऊँ । फिर भी इतना पूछ बैठा- आख़िर यह सब कैसे हुआ ?
- सब बताऊँगा शेखर, सब.... पर अबी नहीं...।
- जैसी तुम्हारी मर्जी, पर सोचो तुम्हें इस तरह घर नहीं छोड़ना था । घर में थोड़ा बहुत तो चलता रहता है ।
- सब फ़ालतू बाते हैं.....कैसा घर....... किसका घर..... । विरक्ति के स्वर में उसने कहा था । और फिर उसकी नज़रें दीवारों पर जाकर गड़ गई थीं ।
- तुम्हारा गुस्सा अपनी जगह ठीक है... पर घर के लोग तुमहारा भला ही चाहेंगे।

मैंने फिर कोई सवाल नहीं किया । जेब से निकालकर कुछ नोट और रेज़गारी उसके हवाले की । सब मिलाकर दस से कम थे । और व्यवस्था करने की बात भी कह दी । वह नोट व रेज़गारी को हाथों में दबाये बढ़ गया । उसकी झुकी नज़रें अब भी मेरे सामने थीं...... और लगातार मेरा पीछा कर रही थीं । मैं उसे दूर जाते देखता रहा । तब तक देखता रहा जब तक वह ओझल नहीं हो गया । शेखर के मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे । उसे लगा था कि परिस्थितियाँ आदमी को जाने कब.... किस हाल में ला खड़ा करें..... कोई सोच नहीं सकता । परिस्थितियों का क्या यह एक मोड़ नहीं ? आदमी का अस्तित्व कितना बौना लगने लगता है परिस्थितियों के सामने । अब किशोर को ही लो... पिछली बार मिला था तो हँसता-मुस्कराता ख़ुश था और आज ...... ? आज ऐसा है कि हँसी और खुशी से उसका कोई वास्ता ही नहीं लगता । क्या नहीं था उसके पास । तमाम साधन.... ढेरों सुविधाएं... घर.... मकान..... नौकर- चाकर.... सब कुछ तो था.... पर नहीं । शायद इस सबके रहते हुए भी कुछ नहीं था उसके पास । तभी तो किशोर ने ऐसा किया ।

शेखर के सामने किशोर के घर का पूरा चित्र उभर आया । आलीशान कोठी..... प्रतिष्ठित वकील ह्रदयनाथ का पिता होना और घर में दो बड़े भाई और बहन की मौजूदगी । बहन अपाहिज थी पर किशोर को कितना चाहती थी । दोनों भाई अच्छी जगह पर थे । माँ थी । ऊपरी तौर पर दिखने वाली तमाम खुशियाँ थीं । सब कुछ तो था । पूरा परिवार खुशियों से सराबोर लगता । दिन भी तो बड़े आराम से गुज़र रहे थे । लेकिन आज किशोर से खुशियाँ कोसों दूर हैं । वह एकदम गमगीन व बुझा-बुझा सा है । पता नहीं घर में क्या बात हुई कि उसने किसी से बोलना बात करना तक बंद कर दिया । शेखर को आज लग रहा था कि यह अच्छा नहीं हुआ । न जाने कितने सहज सवाल उसके जेहन में उभरते रहे । उसका मन विचलित होने लगा । मन के एक कोने में किशोर को लेकर सहानुभूति भी उमड़ रही थी । लाख कोशिशों के बाद उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किशोर के लिए क्या करे, क्या न करे ।

शेखर से रूपये लेने के बाद किशोर सीधे रेस्तरां पहुँचा । उसने खाना लाने का आर्डर दिया और इंतजार करने लगा । खाना आते ही वह टूट पड़ा था । तब जाकर उसने सर उठाया, जब सामने रखी थाली पूरी तरह से खाली नहीं हो गई । उसने नज़रें उठाकर आसपास देखा और तनकर खड़ा हो गया था । फिर शरीर में फुर्ती का अहसास करते हुए वह बाहर निकल आया । बाहर आया तो और भी राहत महसूस हुई । पर कुछ देर बाद वह आत्मग्लानि में डूबने लगा । एकाएक उदास होता चला गया । सड़क के किनारे-किनारे वह भारी क़दमों से चलता रहा.....चलता रहा । और एक समय ऐसा आया कि उसके आगे रास्ते का पूरा दृश्य धुंधला होने लगा । वह रास्ते के दृश्यों से आगे निकलकर घर पहुँचा था, अपने घर । वहाँ वह कुछ सोचता हुआ उदास बैठा है ।

छह माह पहले बाहर लान में बैठा हुआ वह । घर और उससे जूड़कर तमाम बातें । और अपने आसपास की स्थिति को महसूस कर रहा था । उसने महसूस किया-घरेलू पाबंदियाँ और उसके प्रति उपेक्षा कितनी बढ़ती जा रही है । कोई उसे कुछ समझता नहीं । उसकी भावनाओं की... उसकी इच्छाओं की किसी को फ़िक्र नहीं । बस खाओ और पड़े रहो । इसके आगे कुछ नहीं । और आदमी इस सबको भी कर तो कब तक..... ? किस सीमा तक...... ? उसे उस समय कितनी आत्मग्लानि होती जब वह दूसरों के सामने ख़ुद को बेबस और कमजोर पाता । खास कर दोस्तों के बीच । जब अपने जैसी हैसियत के लोगों को वह खले हाथों ख़र्च करते देखता, कितनी कुढ़न न होती उसे.... ? वह सोचता कि क्या नहीं है उसके पास ...। क्या कमी है उसमें, फिर उसे लगता..... तमाम स्त्रोत उसके पास ही आकर क्यों ख़त्म हो जाते हैं । वह ख़ुद को रेगिस्तान के सदृश्य पाता है जहाँ आकर सभी जल स्त्रोत गुम होते चले जाते हैं । वह अपनी बेबसी का अहसास करता रह जाता है ।

उसने अब तक जेब ख़र्च एडजेस्टमेंट में ही तो चलाया था । कभी किसी को अहसास नहीं होने दिया कि वास्तव में उसकी क्य हैसियत है और वह वास्तव में क्या है । पर कब तक ख़ुद पर काबू रखा जाता । और हुआ भी बैसा ही, उस दिन वह बिल्कुल बेकाबू हो गया । बिल्कुल आतुर कुछ भी कर बैठने को । उसे मौका भी ज़ल्दी मिल गया था । माँ को उसने आल्मारी में नोट रखते देखा । सौ-सौ के नोट । उसने नज़रें ललचा गई । माँ ने आल्मारी खोली ही थी कि पिता की आवाज़ आई । माँ झटके से बाहर निकल गई । कमरे से बाहर । वह उसे जाते देखता रहा । एक बार मन हुआ कि जाकर ज़ल्दी से कुछ नोट निकाल ले और भाग खड़ा हो । पर, भीतर डर भी था- कहीं वह आ न जाए । अगर उसने देख लिया तब क्या होगा.... क्या जवाब देगा...... ? ...चोरी.... ? मैंने चोरी की....... ? नहीं..., यह चोरी नहीं होगी । चोरी कैसी... ? आखिर मेरा भी तो अधिकार है ? जब कोई उसकी स्थिति समझता नहीं... कोई उसे पूछता नहीं, तो यही अच्छा है । फिर आल्मारी में यूँ ही रखे रहते हैं.... जैसे नोट नहीं सिर्फ़ कागज के टुकड़े हों । मेरे लिए ये कागज नहीं....क़ीमती हैं क़ीमती । मैं भी दिखा दूँगा कितनी ताकत है मुझमें..... किसी से कम नहीं हूँ मैं...... । मेरी भी कुछ हैसियत है.... । समझते क्या हैं वे..... ।

ऐसी ही न जाने कितनी बातें वह सोचता चला गया था फिर उसे ध्यान आया ।... माँ लौटती होगी । वह झट से आल्मारी की ओर बढ़ा । कुछ नोट लपके और ठूँस लिये जेब में । फिर लौटकर इजी चेयर पर धँस गया था । अख़बार पढ़ने का अभिनय करने लगा ताकि माँ को संदेह न हो । एकदम दम साधे बैठा रहा । माँ लौटी । उसने उसी झटके से आल्मारी बंद की और कमरे से बाहर निकल गई । पिता की कार भी निकल गई थी । और शायद अब कोर्ट रोड पर दौड रही होगी । उसे मालूम था । माँ ने उसके पास से गुज़रते हुए कहा था- अरे..... रुमाल रह गया । उसने कोई जवाब नहीं दिया । हालाँकि माँ ने लौटकर भी उससे जवाब की अपेक्षा नहीं की थी ।

माँ के कमरे से निकलते ही उसने राहत महसूस की थी- चलो जान बची । वर्ना उसकी साँस तो ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई थी । पता नहीं अब क्या हो.... ? अब आफ़त आई....., तब आफ़त आई । हिम्मत जवाब देने लगी थी । लेकिन बच गया था वह । किस्मत को सराहता हुआ वह वहाँ से उठा । कपड़े बदले और फिर वह सड़क पर था । रोज़ की अपेक्षा तेज़ी से भागता हुआ । सुकून महसूस करता हुआ । साइकिल के पैडलों पर पैरों का दबाव बढ़ता जा रहा था और भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा था ।
-आओ भई किशोर, आज बहुत ख़ुश हो... कोई ख़जाना मिल क्या.... ? राकेश की आवाज़ सुनकर उसकी तन्द्रा टूटी थी ।
- समझ लो ख़जाना ही है..... रही खुशी तो बताओ कब नहीं थी अपने पास... ? चाहो भी तो साली पीछा नहीं छोड़ती । उसने अपनी सही स्थिति को नकारते हुए जवाब उछाला था ।... तुम सुनाओ...क्या...... कैसा चल रहा है । ऐसी सहज सामान्य बातें उनके बीच होती रहीं । फिर महफिल जमी । जमी और जवां होती चली गई ।

आज किशोर ने किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया.... न ख़ुद को.... न दोस्तों को । अब वह तुच्छ नहीं.... कमजोर नहीं .... । बल्कि, वह भी सबकी बराबरी में आ गया है । उसने सोचा और महसूस किया थि कि वह अपने और दोस्तों के बीच की दूरी को मिटा आया है । गया गुमान में वह भूला रहा । काफी समय बीत जाने के बाद उसे अहसास हुआ था कि काफी समय बीत गया है । रात चढ़ गई है । उसने जमकर शराब पी थी..... और कुछ देर के लिए महदोश हो गया था । जब ख़ुमार उतरा तो लगा कि अजीब से शिकंजे में वह घिर गया है..... और वह शिकंजा कर रहा है । कसता जा रहा है ।

उसे घबराहट होने लगी थी, क्या जवाब देगा अब वह । क्या यह कहेगा कि उसने अपनी शान-शौकत के लिए ऐसा किया । कैसे कह पाएगा वह सारी बातें । नहीं... आब कुछ नहीं हो सकता । एक ही रास्ता है... है वह भाग ले..... तेज़ी से भाग जाए..... ख़ुद से और तमाम लोगों से दूर । पर कहाँ जाए....? अंदर से आवाज़ आई-कहीं भी सही... पर यहाँ से दूर....काफी दूर । उसके सामने अनेक सवाल थे जिसका आकार निरंतर बढ़ता जा रहा था । और उसे लगा था कि वह सवालों से बुरी तरह घिर गया है ।... उनमें डूब गया है । क्या किया जाए.... क्या नहीं.. कुछ पल तो उसे सूझा ही नहीं । थक-हारकर आख़िरकार उसने भाग जाने का फैसला कर लिया । घर में बिना किसी से कहे ... । बिना किसी को बताये... । मन ही मन उसने ठान लिया कि वह भाग जाएगा । बहुत दूर चला जाएगा । और यही ठीक रहेगा ।

अब वह सड़क पर था । रात का सन्नाटा । लम्बी... सूनी सड़क दूर तक चली गई थी । उसे पूरा वातावरण उदास और बोझिल मालूम पड़ा । इधर-उधर नज़र दैड़ाई तो वह बेरोक-टोक यहाँ-वहाँ के दृश्यों से जुड़ी और लौट गई वापस उसी सड़क पर.... उसे भेदने का प्रयास करती हुई । किशोर के सामने बस यही तो एक राह है । अब चाहे जहाँ पहुँचे और वह भय से आक्रांत होकर चला गया था दूर... । अपने शहर से दूर और काफी दिनों बाद लौटा । इधर से उधर भटकता रहा । कहीं अंदर से उसे लगा था कि अब लौटना चाहिए । रहने के लिए नहीं, एक बार करीब से सब जानने के लिए ।

जब वह लौटा है तो पहले वाला किशोर उसमें कहीं नहीं था । बल्कि थका-हारा...बेबस किशोर था । ज़िंदगी की..और उससे जुड़ी तमाम लड़ाईयाँ सामने थीं । उसके सामने यह भी समस्या थी कि अब वह दोस्तों की नज़रों से और ज़्यादा गिर जाएगा । किसी से नज़र मिलाते नहीं बनेगा । फिर हर कोई उससे सवाल करेगा ... वह किस-किसको जवाब देता फिरेगा । क्या कहेगा कि उसने जान बूझकर यह नहीं किया । लेकिन कौन मानेगा ? ....कौन विश्वास करेगा ?

अतीत की सारी बातें चलचित्र की भाँति उसकी आँखों के सामने घूमती रहीं । अब उसका मन वापस शेखर के पास भी जाने को नहीं हो रहा था । रूपये तो उसने झटके से माँग लिये लेकिन अब... ? और यही अब बार-बार उसके पैरों से लिपट जाता....घर और शेखर से जुड़कर । फिर उसने हिम्मत बटोरी..... शेखर के पास पहुँचा और शुरु से अंत तक सारी बातें बखान कर डालीं । शेखर ने मिनटों में उपाय सुझाया था और किशोर को वह पसंद भी आ गया । पहले उसने ना-नुकर की, फिर राजी हो गया । शेखर ने उसे समझाया था- घर में तुम्हें पूछ ज़रूर रहे थे लेकिन उन्होंने ऐसा-वैसा कुछ नहीं कहा .... । वे तुम्हें लेकर बेचैन थे । परेशान थे.... तुम्हें अब कोई कुछ नहीं कहने वाला । रहा इतने दिन कहाँ रहने का सवाल... तो उसका भी हल है ।कह देंगे कि बहुत दिनों बाद जाना हुआ था न....... । तो तमाम रिश्तेदारों के यहाँ रुकते-रुकते पता ही नहीं चला इतने दिन कैसे बीत गये । और जैसा तुम सोच रहे हो वैसी कोई बात हुई ही नहीं । हर तरह से ढांढस बँधाया था शेखर ने और किशोर को भी बात कुछ जँच गई थी । उसे लगा था..... गलती उसने की ज़रूर....लेकिन इतनी बड़ी नहीं कि ख़ुद को परेशान किया जाए । गलती के लिए पूरा शरीर घुला दिया जाए । उसने यहाँ-वहाँ की तमाम बातें सोचीं और फिर ख़ासी राहत महसूस की । आब वह भारी क़दमों से सड़क और घर के बीच का फासला तय कर रहा था ।
(प्रकाशितः देशबन्धु रायपुर, 12 दिसम्बर 1982)

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