सोमवार, 9 जून 2008

तनाव


कभी-कभी क्यों लगता है कि हम लगातार दुःख उठाने के लिये ही पैदा हुए हैं, यह खुशी के लम्हे हमारे लिये है ही नहीं । आसपास का माहौल मुँह चिढ़ाता-सा महसूस होता है । कोई ख़ुशहाल व्यक्ति दिखा नहीं कि बस एक आह-सी पैदा हो जाती है । आख़िर ऐसा क्यों होता है.... ?

मैंने पुस्तक का एक अध्याय ख़त्म कर सोचना शुरू ही किया था कि तभी पप्पी दौड़ती हुई आई और मुझसे लिपट गई । उसेने मुँह बनाते हुए बाहर की ओर इशारा किया और भागती हुई भीतर चली गई। मुझे भी बात समझते देर न लगी । मैंने हाथ की पुस्तक उठाकर रेक पर रख दी । कमरे से बाहर निकले को ही थी, कि बड़े भईया का सामना हो गया । वे पता नहीं कैसे, आज दोपहर में आ गये थे । पहले उन्होंने मेरी ओर निहारा और कुछ आगे बढ़ गये । फिर सोचने की मुद्रा में वापस मुड़े और मुझसे बोले- रीतू तुम कॉलेज नहीं गई ।

नहीं, कुछ ज़रूरी पुस्तकें नहीं थीं, फिर तबियत भी ठीक नहीं थी, मैंने बिना बहाना बनाये कहा था।

अच्छा भई, जो तुम लोगों के मन में आये, करो । मैं भी कहाँ तक सोचूँ और किस- किस के बारे में सोचूँ । लगभग चिढ़ते हुए से स्वर में उन्होंने कहा और आँगन की ओर निकल गये ।

इसके बाद उन्होंने कोई सवाल नहीं किया था । कमरे में टहलते रहे । कुछेक पल बाद एकाएक रुक जाते, ऐड़ी को जोर से ज़मीन पर रगड़ते और फिर मुड़कर टहलने का सिलसिला शुरू हो जाता । वैसे प्रायः ऑफ़िस से लौटते ही वे कोई न कोई ऐसी बात उठा लेते और फिर नाराज़गी भरा आलम छा जाता । कोई दिन ऐसा नहीं जाता जो तनावमुक्त गुज़रता हो ।

रीतू सोचती है- भईया का पढ़ाई के बारे में सिर्फ़ पूछ लेना ही क्या काफी है ? और भी तो परेशानियाँ हो सकती हैं ? लेकिन कभी तो हँसकर, घुल-मिलकर उन्होंने किसी परेशानी को बाँटने की कोशिश की होती ? मगर ऐसी कुछ चिंता हो तब न ? लगता है वे सारा दिखावा घर आकर ही करते हैं । एक नाटक खेलते हैं और चारों तरफ़ भय बिखेर देते हैं । बाक़ी सब उनके इशारे के मोहताज़ रहते हैं ।

वह अपने आसपास के दिनों पर नज़र डालते हुए सोचती है । हँसना मिल-बैठर चर्चा अब कितनी पुरानी बात लगती है । अब तो सब कितने डरे-डरे से और ख़ामोश हैं । दिन भर अपने आपको बचाने की कोशिश, कहीं गलती न हो जाए । इस भय की आशंका कभी कम नहीं हो पाती । इधर ऊपरी तौर पर लगता कि घर की तमाम जिम्मेदारियाँ भईया पर हैं । घर के इस भार से उनका चिड़चिड़ाना भी स्वाभाविक था । लेकिन इस चिड़चिड़ाहट से सभी लोगों की छोटी सी छीट स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लग गई थी । इसलिये झेल रहे थे । इन दिनों पूरा का पूरा घर एक ओढ़े हुए तनाव से गुज़र रहा था जिसे उतार फेंकने को कोई तैयार नहीं । कोई किसी से नाराज़ है तो कोई किसी सी ।

घर में छह सदस्य और सभी एक-दूसरे से कटे-कटे से । सबसे बड़े भईया की छोटी-सी दूकान, उनसे छोटे शिक्षक थे । रहे तीसरे नीलेश तो उन्होंने हाल ही एक प्राइवेट फर्म में नौकरी ज्वाइन की थी । मैं, एक छोटी बहन और माँ बस इतने ही लोग तो ते । पिताजी को गुज़रे छह माह हो गया था । इस अंतराल में घर की शांति एक-एक पल कम होती चली गई थी । सब के सब किसी न किसी बात को लेकर खिंचे दिखते ।

वैसे छह माह का अंतराल कोई ज़्यादा नहीं होता । लेकिन यहाँ तो बहुत ज़्यादा हो गया था। कितनी ज़ल्दी वक्त बदल जाता है। इसका अहसास अब जाकर हो रहा था। पिताजी के बाद घर की आय का एक स्थायी स्त्रोत जाता रहा और वह जिम्मेदारी अब भईया के कंधों पर आ पड़ी थी और फिर इन जिम्मेदारियों के साथ उनका गुस्सा भी बढ़ता चला गया। अब उन्के जेब ख़र्च के पैसे घर ख़र्च में खप जाते।

रीतू महसूस करती है कि इन दिनों अदृश्य-सा भय हर चेहरे पर लिपटा हुआ है। कोई किसी से कुछ कहता या विचार रखना चाहता तब एक संकोच, एक घबराहट सी होती । इधर आर्थिक स्थिति ऐसी हो गई थी किसी का ध्यान रोज़ी-रोटी के जुगाड़ से आगे बढ़ नहीं पाता । सारा चिंतन रोटी तक सीमित था। कुछ दिन गुज़रते, एक तारीख़ का इंतजार होने लगता। महीने के मध्य से ही हिसाब-किताब बनने लगता, फिर उसमें कटौतियाँ होतीं और अनावश्यक बहसें भी। ले-देकर बात आगे बढ़ जाती । अब तो आय का ज़रिया अकदम स्थिर था। गिने-गिनाये रूपये आते और देखत-देखते हाथों से झरती रेत की तरह फिसल जाते।

उसे एकाएक कल का दृश्य याद आ जाता है, जब भईया ने नीलेश भईया को पास बुलाकर डाँटा था। बड़े गुस्से से उन्होंने कहा था- ‘आजकल...तुमने ऊटपटाँग ख़र्च बहुत बढ़ा लिये हैं.....? कमाने का मतलब यह तो नहीं....आख़िर घर के भी कुछ ख़र्च होते हैं....तुम्हें सोचना चाहिए.....।’

‘क्या, ऐसा नहीं है....और क्या वैसा नहीं....कौन-सी चीज़ छुपी है...। तुम्हारा घूमना...फिल्में देखना...और तमाम ऐसे-गेरे की संगत...।’

‘आपसे ....शायद किसी ने कुछ गलत कहा है। नीलेश ने सफाई पेश करते हुए कहा था।’

-जिसने भी कहा, मुझे पूरा विश्वास है.....। अगर तुम लोगों को ऐसा ही करना है तो करो। रही, घर की चिंता तो मैं ही कब तक करूँ । मुझसे नहीं सम्हलता यह बोझ। अगले माह चला कर तो देखो खर्चा, तब पता चले। तुम लोग कुछ सोचना नहीं चाहते, तो फिर भला मुझसे ही कैसी आस। ‘सब भूखे मरते हैं तो आज मर जाए, मुझे क्या लेना-देना।’ भईया ने एक साँस में सारी भड़ास निकाल दी थी। लेकिन नीलेश चुप ही रहे। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया थी। एक उदासी ज़रूर उनके चेहरे पर दिखी और मजबूती का अहसास भी।

रीतु नीलेश भईया के बारे में सोचते हुए मन ही मन कहती है। मैंने जहाँ तक देखा, नीलेश भईया को कठिनाईयों से संघर्ष करते ही पाया। जब पिताजी थे तब भी...और अब वे नहीं हैं....तब भी....। लेकिन तब और अब में कितना अंतर आ गया है। अब तो एक अरसे से उनके चेहरे पर हँसी नहीं देखी गई। किसी से कुछ भी तो नहीं कहते। एक ख़ामोशी...। लगातार चिंतन...। अंदर उमड़ते विचारों का सैलाब बाहर से चेहरे पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता । उस दिन वे बहुत अधिक भावुक लगे थे, जब मुझे बुलाकर पास बैठाया था। आँखों नम थीं। धीरे-धीरे और एक-एक शब्द पर जोर देते हुए उन्होंने कहा था- ‘रीतू..तू अब से उदास मत होना...तुझे भी पढ़ाऊँगा...और देख...जब तक मैं हूँ, तू किसी बात की चिंता न किया कर...। बस मन लगा कर पढ़ते जा....।’

उनकी आदत थी। कभी किसी बात पर शिकायत न करते, बल्कि कितनी भी विषम परिस्थितियाँ क्यों न हो, हर किसी को समझाने की कोशिश करने लगते । ऐसा नहीं है....., तो क्यों नहीं है। यदि ऐसा होता, तो क्या होता। और ऐसा कहकर वे मेरा ही नहीं, सभी का दुःख बाँटने की कोशिश करते।

नीलेश भईया, मुझे माँ व छोटी बहन पप्पी को बहुत चाहते थे लेकिन इन कुछ दिनों में उनकी गंभीरता बढ़ गई थी। यहाँ तक कि बोलना-चालना भी कम हो गया था । बस, काम से काम तक का मतलब रखते। इधर, माँ भी लगातार उदासी में डूबी दिखती। जैसे कुछ सोच रही हो या किसी समस्या....किसी अंतद्वंद्व के ताने-बाने सुलझा ही हों। मुझे महसूस होता शायद पिताजी की कमी न ही हम सभी को अंजान बना दिया है। तभी तो हम एक घर में रहकर भी एक-दूसरे से अपरिचित सरीखा व्यवहार करते। नहीं...शायद अपरिचित भी आपस में इससे अच्छा व्यवहार करते होंगे। कुछेक भईया के स्वभाव में ज़्यादा ही चिड़चिहापन नज़र आया। शायद परिवार की उपस्थिति अथवा इसके पीछे आर्थिक कारण हो । वैसे तकरार आम बात थी। अब तो हमारे लिये शांति की अनुभूति कल्पना का विषय बन चली थी। लगातार बनी इस स्थिति को देखते हुए में सोचती हूँ-‘आख़िर हम सब...क्या एक छत के नीचे महज़ भ़ूख मिटाने के लिए एकत्र हैं ....? क्या क्षणिक आश्रय ही हमारा लक्ष्य रह गया है ? आपसी प्यार, स्नेह का क्या ढोंग रच जा रहा है ? आख़िर क्यों, क्या पास-पड़ोस व अन्य लोगों को दिखाने के लिये?’

मैं इस बारे में सोचते-सोचते ऊब जाती हूँ। तब ख़ुद को खाट पर ढीला छोड़ देती हूँ। सिर को एक हल्का-सा झटका देने का बाद लगता है कि अभी तनाव भरा कोई क्षम पास ही आ गिरेगा और टूटकर बिखर जाएगा। लेकिन नहीं, इस प्रयार से भला तनाव क्या कम होगा ? मुझे लगता है कि हमारी परिणिति में टूटना ही है और हम टूट जायेंगे । रोका भी तो नहीं जा सकता, इस टूटन को।

लेकिन मैं करूँ भी तो क्या करूँ, मजबूरी जी है। फिर मेरा छोटा होना भी तो अपने आप में मजबूरी है। मेरे अपने विचार व तर्क हो सकते हैं...पर उन्हें बयान कर पाने की सामर्थ्य नहीं है। घर में अपनी स्थिति का ख्याल आ जाता है। मैं भीतर उमड़ रहे तमाम विचारों को प्रकट नहीं कर पाती। वे एक-दूसरे से उलझते हुए गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। मैं एक बार फिर सबको अपने-अपने हाल पर छोड़ने को मजबूर हो जाती हूँ । और कोई चारा भी तो नहीं है। मन कुछ भारी-सा हो जाता है। उठकर बाहर निकल आती हूँ । पास से जाती हुई सड़क....और उससे आगे थोड़ी दूर पर मिलती हुई पगडंडियाँ...। इन सबको समेटे एक लम्बी राह दूर तक निकल गई है।
(प्रकाशित ‘नवभारत’ रायपुर, 9 मी 1982)

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