सोमवार, 9 जून 2008

निर्णय


रात का सन्नाटा । सायं-सायं करती हवा। वातावरण में काफी ठंडक है। सीकचों से बाहर ज़मीन पर गिर रही रौशनी में किरन की परछाई दिखाई पड़ रही है। वह अपने दोनों हाथ के पंजों से सींकचे को भींचे हुए है, और कोठरी के अंदर से लगातार आसमान को घूर रहा है। आसमान दूर तक स्याह विस्तार लिए फैला है। सिर हिलाते हुए वह एकाध बार इधर-उधर देखता है। फिर ऊब कर कोठरी के अंदर चक्कर काटने लगता है। किशन को यहाँ आये चार दिन हुए हैं। लेकिन उसे यहाँ का वातावरण अजीब-सा लग रहा है। रात-रात भर नींद नहीं आती । वीभत्स आये उसकी आँखों के सामने झूलते रहते हैं, और मस्तिष्क में चीख की आवाज़ें बार-बार कौंधती हैं।

आज से चार दिन पहले उसने अपने मालिक को आवेश में मार डाला था। घर में बच्चे भूखे थे। माँ बीमार थी। खाने को कुछ न था, न कुछ व्यवस्था हो सकती थी । वह मालिक के पास पैसे माँगने गया था। लेकिन उसे पैसे नहीं मिले। बल्कि खरी-खोटी दस बातें सुननी पड़ी। और, उसने आवेश में पास रखा पत्थर मालिक के सिर पर पटक दिया था। इसके बाद वह सीधा घर चला आया था। अपने इस निर्णय से ख़ुश कि आज उसने थोड़ा-सा प्रतिकार तो किया....फिर उसकी सज़ा कितनी ही क्यों ने हो ?

वह कमरे में टहलता हुआ सोचता रहा। आज से चार दिन पहले का सारा दृश्य उसकी आँखों के आगे जीवंत हो उठा था।
‘बाबू आ गये....बाबू आये गये।’ दो बच्चों का सम्मिलित स्तर उभरा।
‘बाबू क्या लाये बताओ ना।’ बच्चे उससे लिपट कर पूछने लगे।
‘कुछ नहीं बेटा...।’ किशन बोला
‘बाबू तमने सुबह क्या बोला था।’ पहले ने कहा।
‘बेटे ला देंगे...कल ज़रूर ला देंगे।’

इतना कह वह ज़मीन में बिछे बोरे पर बैठ गया। हालाँकि वह जानता था कि उन्हें इस समय झूठी दिलासा ही दे रहा है। कल भी वह कुछ नहीं ला सकेगा। कल और आज में अंतर ही क्या है ? अपने लिए तो हर दिन एक-सा होता है। कल भी लौटूँगा, तो भ़ूख ही लौटेगी। बच्चों को क्या सचमुच नये कपड़े दे सकूँगा । नहीं....शायद नहीं। पूरी-पूरी मेहनत तो भ़ूख ही निगल जाती है फिर बचता भी क्या ? है व सोचने लगा।

दिन भर काम के बाद बड़ी मुश्किल से एक वक्त का खाना हो पाता है। दूसरे वक्त की तो बात ही नहीं। लेकिन बेबसी है कि सब सहना पड़ता है। अपना है ही क्या ? बस यही एक झोपड़ी ? वह भी सरकारी ज़मीन पर...? कितनी बार तो चेतावनी मिली है। फिर न जाने कब यह सहारा भी छूट जाए। एक फ़ीकी हँसी-हँसते हुए वह सोचना है। गरीबी तो वह जन्म के साथ ही लेकर आया और फिर लाख कोशिशों के बात वह आज तक ख़त्म नहीं हो पाई। दिन-ब दिन बढ़ती ही चली गई। खाने-पकाने के दो-एक बर्तन, चीथड़ों का बिछाना और दिन भ की मेहनत से मिले रूपये...। बस यही तो सारी पूंजी है।

आज सिर्फ़ सुबह ही खाना बन पाया। शाम यूँ ही गुज़ारना है। वह सोचता है। साहूकार के यहाँ से कुछ ले आऊँ....! वहाँ भी तो जाया नहीं जा सकता। दो-चार रूपये की उधारी जो है। फिर टोक भी दिया था उसने । बच्चों को कम से कम दो वक्त का खाना चाहिए। ख़ुद अपनी बात होती तो अलग थी। ऐसे में इन बच्चों का भविष्य क्या होगा....जिनकी आँखें भ़ूख में ही खुलीं, जिनकी सुबह-शाम रोटी की आस में गिजर जाती है। नये कपड़ों की बात तक जिन्होंने न सोची हो। आँखें ललचायी सी एक-एक टुकड़े को तरसती हों। ऐसे में क्या हो सकता है इनका भविष्य ?

वह उदास है और लगातार सोच रहा है। कोई मुझे उधार भी तो नहीं देगा। औकात ही क्या है मेरी ? पास ही रतन और रामू किसी बात को लेकर आपस मे लड़ रहे हैं। बात-बात में एक-दूसरे को गाली देते हुए । गालियाँ भी उनकी लड़ाई का एक हिस्सा थीं। वह जान बूझकर उस लड़ाई से अंजान बना रहे। रोज़ की हो बात है। कहाँ तक धअयान दे ? वह उठ कर बाहर चला आया । लड़ाई का सम्मिलित स्वर अब भी गूँज रहा था।

वह दोनों की ओर से बेखबर हो आसमाँ को ताकने लगा। आसमाँ भी रंग बदलता सा नज़र आया। पहले सफेद...फिर लाल....और फिर स्याह होते हुए बादल काले रंग में बदल रहे थे। शाम उतर आई थी और आसपास स्याही फैल रही थी। उस लगा कि आसपास ही नहीं बल्कि उसकी अपनी ज़िंदगी में स्याही फैल रही हो और एक-एक कर काली स्याह परतें उसके भीतर उतरती चली आ रही हों । एक-एक राेत काट लेना उसे एक युद्ध जीत लेने से कम नहीं लगता। वह भी ऐसा युद्ध जो ज़िंदगी और मौत के बीच चलता है।

रात क्रमशः गहराती जा रही है। रात की गहनता के साथ ही उसे अजीब-सी कसक होती। गरीबी बारम्बार कचोटती। परिवार का दुःख आसपास मंडराने लगता। वह सोचता है कि आख़िरकार वह इतना मजबूर...इतना असमर्थ क्यों है ? लोग बेकार कहते हैं कि मेहनत से पेट भरा जा सकता है। आज मेहनती आदमी ? ऊं हूँ ............... और भी भूखा...और भी नरीह है। वह अपने बीच के लोगों पर दृष्टिपात करता है। कोई भी तो ख़ुश नहीं है ? किसी के पास कोई धन नहीं है ? सबके सब निरन्तर गरीब हो रहे हैं। पर किया भी क्या जा सकता है....? सबकी अपनी मजबूरी जो है। लाख प्रयत्न के बाद मजबूरी ही तो लौटती है।

वह बाहर बैठा यूँ ही सोच रहा होता है कि एकाएक माँ की कराह सुनाई पड़ती है। वह अंदर चला जाता है। गंदे पुराने बिछाने पर मं की जर्जर काया है। वह ज़िंदगी की अंतिम सासें गिनती पड़ी हैं । पास ही कुछ अव्यवस्थित सा सामान है और अंधेरा दूर करने में असमर्थ टिमटिमाती चिमनी आसपास पीली रोशनी बिखेर रही है। उसने ज़ल्दी से माँ को पानी पिलाया । माँ के मुरझाये चेहरे पर अभिव्यक्ति की बैचेनी दिखी। वह कुछ बोलना चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रही थी, जबकि किशन को सब बातों का अहसास था। वह माँ को निहारता रह गया। दोनों काफी कुछ बोलना चाहकर भी चुप हैं। आसपास एक चुप्पी फैली है, जो ख़ुद-ब-ख़ुद सब कुछ कहती-सुनती जा रही है, और दोनों एक-दूसरे की स्थिति का एहसास भर कर रहे हैं।

वह माँ के सिरहाने से लग बैठ जाता है। तीन-चार दिन से दवा भी तो नहीं आ पाई माँ के लिए। वह सोचता है कि लाता भी कहाँ से । मालिक से माँग की तो उल्टी डाँट ही मिली थी।

- ‘अभी उसी दिन तो पाँच रूपये दिये.,...फिर आ गया माँगने....।’
- ‘हाँ, दिए थे...मगर ख़त्म हो गये।’ सरलता से उसने कहा था।
- ‘ख़त्म हो गये तो ख़त्म हो गये , मैं रोज़-रोज़ नहीं दे सकता।’
- ‘बच्चे भूखे हैं।’
- ‘मर जाएँ...मुझे क्या लेना देना।’
- ‘मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ दिन-रात काम करके लौटा दूँगा।’ इतना कहते हुए वह मालिक के पैरों से लिपट गया।
- ‘चल भाग यहाँ से...हरामखोर कहीं का।’
मालिक ने कहा और एक लात जमा दी थी। इसके बाद वह व्याकुल-सा हो गया। वह अपना अपमान बर्दास्त नहीं कर पाया। उसने रखा पत्थर उठाया और फिर पत्थर सीधे मालिक के सिर पर दे मारा। फिर लाचार सा वह घर लौट आया था। आज से तो यह सहारा भी जाता रहा । अच्छा ही है...ऐसे सहारे से बेसहरा होना। दिन भर काम के बाद एक पल का चैन भी तो नहीं है। अनेक चिंताएँ हैं। भ़ूख है...गरीबी है...घुटन है....और जाने क्या-क्या नहीं है। गरीबी ख़ुद लाचारी लेकर आती है।

वह सोचता है। गरीबी...गरीबी के कारण ही वह आज माँ का ठीक से इलाज नहीं करा पाया । मगर पास में थोड़ा भी पैसा होता तो इलाज के लिए वह क्या कोई कसर उठा रखता। माँ को आराम न देता । तमाम खुशियाँ लाकर न देता। लेकिन ऐसा हो तब न। फटेहाल स्थिति में क्या कर सकता है वह, सिवाय ख़्वाब देखने के । लेकिन गरीब का सपना भी सपना ही होता है। कभी पूरा न होने वाला सपना....। यथार्थ तो है यह ज़िंदगी। जिसे ज़िंदगी कहते शर्म आती है। ठीक से सिर छुपाने की जगह नहीं।

भ़ूख ही भ़ूख तो है चारों तरफा। इसी भ़ूख ने तो पत्नी को समेट लिया था। बच्चों की ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है। वह ख़ुद भी तो...। अपने बारे में सोचते हुए वह सबसे पहले कपड़ों पर नज़र डालता है। जगह-जगह पैबंद लगे कपड़े। देखते ही मन आत्मग्लानि से भर उठता है। उसे ऐसे लगता है कि ये पैबंद.,...पैबंद न होकर वहाँ से खींचे गये माँस के बाद, बचा बदनुमा दाग है। वह कराह उठता है। फिर भी जीना तो है। अपने लिये न सही, उन बच्चों के भविष्य के लिये।

एक दुःख भरी हँसी उसके चेहरे पर उभर आती है...बच्चों का भविष्य ...? क्या होगा इनका भविष्य ..सिवाय भीख माँगने के....। न पढ़ाई....न कुछ ....क्या कर लेंगे भविष्य में....? आजकल नौकरी भी तो नहीं मिलती। ज़्यादा कुछ हुआ तो मुझ-सा कहीं नौकर हो जायेंगे। ‘नौकर’ शब्द आते ही वह चौंक जाता है। नहीं, मैं उन्हें नौकर नहीं होने दूँगा...। क्या वे भी मेरे समान ज़िंदगी जियेंगे...नहीं...कभी नहीं। कभी नहीं। कभी नहीं....। वह चीख उठता है। नहीं..कभी नहीं....। चीख सूनेपन को चीरती बिखर जाती है।

एकाएक ख्यालों से जुड़ी चेतना टूट जाती है। चारपाई में माँ अचेत पड़ी दिखती है। देखते ही वह घबरा उठता है। क्या हुआ माँ को...। वह झकझोरता है। जगाता है। लेकिन कोई प्रत्युत्तर नहीं। वह ...बस मजबूर-सा ताकता रह जाता है। यह अहसास कराती गरीबी उसका मजाक उड़ाती है। सब कुछ देख-समझकर भी चुप है। आज माँ भी गरीबी के कारण छिन गई । उस दिन पत्नी को गरीबी ने छीन लिया था। आख़िर यह सिलसिला कब तक चलेगा...? ये बच्चे भी कल....? नहीं...ऐसा नहीं हो सकता ....। उसकी आँखों में आंसू तैर आते हैं।

स्याह काली रात में वह माँ की चारपाई के निकट निश्चेष्ट ज़िस्म को ताकता बैठा है। बाहर सन्नाटा है। रह-रह कर दस्तक देती हवा ही कभी-कभी उसे तीड़ जाती है। एकाएक रौशनी होती है। वह चौंक जाता है। कुछ हाथ उसे अपनी गिरफ़्त में लेते हैं....और फिर लोहे की हथकड़ियाँ उसके हाथों में आ जाती हैं। वह बिना कुछ कहे चल पड़ता है..। उसे लगता है अब तो वह अंजानी डगर पर चला जा रहा है। लेकिन कहाँ...?

वातावरण में जेल के घंटे की आवाज़ गूँज उठती है...। एक और...दो ? अरे....दो बज गये। एकाएक उसकी तन्द्रा टूट जाती है। उसे अपने दोनों बच्चे याद आ जाते हैं. न जाने इस समय कहाँ और किस हाल में होंगे। वह उनके बारे में सोचना है और कसमसा कर रह जाता है। फिर कुछ सहज होने की कोशिश करता हुआ, सींकचे के सामने से हटकर अंदर की ओर मुड़ पड़ता है। लेकिन उसी बचैनी घटती नहीं। वह कमरे में लगातार घूमता हुआ पैरों से ज़मीन रौंदता जाता है। शायद अपने दायरे को समझता हुआ...।
(प्रकाशित ‘देशबन्धु’ रायपुर, जून 1982)

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