सोमवार, 9 जून 2008

मोड़


दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई वह जल्द सब काम छोड़ दरवाजे की तरफ़ बढ़ी । दस्तक की आवाज़ जानी-पहचानी थी....। सदा की भाँति दरवाजे पर हल्का प्रहार । दो हल्की-सी चिरपरिचित थपथपाहट...। बरामदे से होकर वह दरवाजे तक पहूँची, ज़ल्दी से कुण्डी खोल दी । लेकिन सामने एक अपरिचित सा चेहरा नज़र आया...। वह चौंक गयी...। आज पहली बार उसे भ्रम हुआ । सामने एक अपरिचित सा चेहरा नज़र आया...। वह चौंक गयी...। आज पहली बार उसे भ्रम हुआ । सामने अमित की जगह एक अंजान आकृति थी...जिसे देख वह सहसा चौंक गई । ज़ल्दी से पीछे हटती हुई, दरवाजा बंद करने के लिये हाथ बढ़ाने लगी तभी आवाज़ सुन उसके हाथ वहीं रुक गये...। ‘आप अमितजी की श्रीमती हैं ।’ हवा में तैरते हुए शब्द उसके जेहन में प्रवेश कर गये...। अपनी घबराहट को छिपाते हुए ख़ुद को संयत करते वह बोली- ‘जी हाँ ।’ ...फिर कुछ पल ख़ामोशी छा गई । वह अंजान युवक कुछ क्षण तक उसके चेहरे तो पढ़ने की कोशिश करता रहा । अपनी इस हरकत को छुपाते हुए दुबारा बोला- मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं, इतना कहकर उसने नज़र इधर-उधर दौड़ानी शुरू कर दी । घर की साज-सज्जा...सलीके से लगी तस्वीरें...कुछ फर्नीचर ।
इन सबको भेदती हुई उसकी नज़र फिर वहीं लौट आई जैसे जवाब का इंतजार कर रही हो और उसे अपनी बात कह देने की उत्सुकता हो । ‘देखिये, अमित जी घर पर नहीं हैं और उनसे बाद में बात कर लीजियेगा...,इतना कह वह चुप हो गई...मगर वह अपनी बात कह देना ही चाहता था । उसने मिसेज अमित की ओर देखकर फिर कहना शुरू किया- ‘मुझे मालूम है...अमित जी घर पे नहीं हैं..वो कुछ देर पहले ऑफ़िस की तरफ़ जा रहे थे । शायद आज ज़ल्दी थी उन्हें । नहीं तो मेरे पास रोज़ आते...फिर हम ऑफ़िस की ओर चल पड़ते मगर...।’ वह युवक कुछ गंभीर हो गया । चेहरे में एक गहरी गंभीरता उभर आई । -‘मगर आज किस्मत को कुछ और मंजूर था । कुछ दूर जाने के बाद उनकी मोटर सायकिल तेज़ रफ़्तार से आ रही ट्रक से टकरा गई...।’ फिर अजीब सी ख़ामोशी उन दोनों के बीच फैल गई...। ‘अब वो अस्पताल में हैं ।’ इतना कह वह युवक फिर न ठहर सका ....। थके क़दमों से आगे बढ़ता हा दरवाजे और मुख्य द्वार की दूरी तय कर धीरे-धीरे ओझल हो गया । किरण उसे देर तक देखती रही । फिर उसने ज़ल्दी से टैक्सी की और अस्पताल के बरामदे तक पहुँच कर रुक गई । वह युवक यहाँ भी नज़र आ गया । वह उसे देखते हुए आगे बढ़ी और पूछने के बाद उसे अमित के कमरे का पता चला । वह कमरे में पहूँची । सामने अमित निश्चल पड़ा था । बिल्कुल शांत व स्पंदनहीन । उसकी आँखों में आंसू तैर आये । अमित ख़ामोश था, ठीक अस्पताल के वातावरण की तरह...। किरण को जब अमित की दुर्घटना की सच्चाई का पता चला तो वह चीक कर रह गई । अमित का आधा हिस्सा दुर्घटना के बाद बेकार हो गया था । वह अमित के पास ही बैठ गई और उसके सर पर हाथ फेरने लगी । किरण की बेचैनी और भी बढ़ गई । ज़ल्दी-ज़ल्दी हाथ फेरते हुए वह अमित के चेहरे को ताकती रही । उसके सामने के दृश्य धुंधले होते गये और अतीत सजीव हो आया ।
आज से ठीक चार साल पहले के व सुखद व स्मरणीय दिन...। सारा का सारा जीवन प्रेम से सरोबार था...। उसे घर से असीम प्यार मिला..। दौलत भी बेशुमार थी...। कालेज के दिन । सब कुछ तो उसके लिये खुशी लिये चले आ रहे थे । इसी बीच उसकी पढ़ाई समाप्त हुई ।....और फिर शादी । हाँ, अमित ही उसकी ज़िंदगी में हमसफर बनकर आया...। जहाँ से ज़िंदगी में नया मोड़ शुरु हुआ और वह नई दुनिया की ओर बढ़ चली ।
हाँ याद आया । अमित की छबि मन दर्पण में उस दिन पहली बार उतनी थी...। अमित कॉलेज के रंगमंच पर... नाटक के संचालन के साथ उस नाटक में अबिनय भी कर रहा था...। बहुत ही ह्रदयस्पर्शी भूमिका चुनी थी उसने...। उसकी भूमिका सभी के दिलों में उतरती चली गई थी...। नाटक समाप्त होने के बाद लोग अमित को बधाई देने पहुँचे...। मगर वह ऐसा न कर पायी । दिल तो हो रहा था मगर कदम उस ओर बढ़ नहीं पा रहे ते...। वह चुपचाप बैठी रही...। लोग वापस लौटने लगे...। हाल धीरे-धीरे खाली होने लगा था... वह भी उठी और तेज़ क़दमों से हाल के बाहर आ गई...। बाहर चंचल पवन उसके ज़िस्म से लिपट रही थी और खुले केश बार-बार चंचल हवा में लहरा जाते । उसने आकाश की ओर निहारा...चांद गगन में सम्पूर्ण आभा लिये हुए तीरे-धीरे बढ़ा जा रहा था । जैसे उसे भी कहीं पहुँच जाने की ज़ल्दी हो ...। वह घर की ओर चल पड़ी ।
सुबह कुछ देर से नींद खुली ।वह बालकनी में पहूँची । लॉन की ओर देखा और चौंक पड़ी ...। सामने वही छबि नज़र आ गई...लॉन में पड़ी चार-पाँच कुर्सियों में से एक अधलेटी मानव आकृति...। हाँ अमित ही तो था... उसे आश्चर्य भी हुआ । वह यूँ खड़ी एकटक देएखती रही...। कुछ देर बाद अमित उठा और नमस्ते कर जाने लगा...। किरण दूर खड़ी उसे अपने से दूर जाते देखती रही । फिर वही छबि कुछ दूर जाकर मुख्य मार्ग में प्रविष्ट हुई और भीड़ में गुम गई ।
फिर यूँ न जाने कितनी बार अमित से आमना-सामना होता रहा । कभी घर में तो कभी कहीं और...। फिर यह मुलाकात जान-पहचान में बदल गई और फिर अमित हमेशा के लिए उसका जीवन साथी बन गया । माँ व पिताजी ने किरण की राय ली...। सामाजिक रीति-विराज के अनुसार किरण और अमित की शादी कर दी गई...।
छोटा सा फ्लैट...। सभी सुविधाओं सहित था जहाँ सिर्फ़ अमित और किरण...भविष्य की कल्पनाएं व सपने थे । अमित इंजीनियर था । अभी दो वर्ष पहले ही उसे सर्विस मिली । वह भी किरण का साथ पाकर ख़ुश था ।दिन यूँ ही बीतते रहे । छः महीने गुज़र गये । एक दिन बात ही बात में अमित ने कहा- किरण मैं स्वतंत्र विचारों पर विश्वास नहीं करता...। हाँ अगर तुम किसी बात को छिपाने की कोशिश करोगी तो शायद बर्दाश्त न कर पाऊँ, किरण ने कहा- आज कैसी बात कर रहे हो अमित ... इसके पहले कभी तुमने ऐसे सवाल नहीं किये ।
-किरण मैं अतीत को नहीं कुरेदता...भविष्य पर विश्वास नहीं करता । सिर्फ़ आज पर जीना चाहता हूँ । आज में रहना चाहता हूँ । इसलिए चाहो तो तुम भी मेरा साथ दे सकती हो ।वैसे तुम्हारी अलग विचारधारा हो... पर मैं अपनी बात कर रहा हूँ ।
-अमित... रहा मेरी स्वतंत्र इच्छा का सवाल तो वह उस दिन ही समाप्त हो चुकी थी जब तुम मेरे जीवन में आये ते । अब तो तुम्हारी इच्छा ही मेरी इच्छा है । वैसे भी विवाहित नारी की स्वतंत्र इच्छा का महत्व बहुत कम होता है । वह तो पुरुष पर निर्भर होती है ।
-किरण मैं यह प्रश्न तुमसे किसी संदेह क वशीभूत होकर नहीं पूछ रहा बल्कि मैं हर क्षेत्र में उसे महत्व देता हूँ, जहाँ तक संबंधों का सामंजस्य बना रहे... जहाँ आपस में टकराहट की स्थिति न आये... मैं निर्भरता की बात नहीं मानता । बल्कि समानता पर विश्वास करता हूँ । हम अपने विचारों को एक-दूसरे पर लादना नहीं चाहते । बल्कि परस्पर एक-दूसरे को समझते हुए चलना चाहते हैं ।
-जहाँ तक संबंधों की बात है... तो नारी, पुरुष की अपेक्षा ज्लदी ही संदेह का शिकार हो जाती है, क्यों समाज यथार्थ पर विश्वास नहीं करता बल्कि कमजोर पक्ष को और कमजोर बनाता है । फिर भी अमित तुम वि्श्वास रखो, हम कभी संबंधों में दरार न आने देंगे...। हम एक-दूसरे के लिए जियेंगे...। हम हर संभव उस स्थिति को लाने का प्रयास करेंगे जो हमारे लिये अनुकूल व उचित हो ।
किरण इतना कह चुप हो गई थी…। अमित ने इधर-उधर की कुछ और बातें की । उसके पश्चात टहलने लगा । सोचने की मुद्रा में सिर पर हाथ फेरते हुए फिर एकाएक बोल पड़ा- ‘किरण चलो सैर कर आयें...। अभी वक्त क्या...अरे पाँच ही तो बजे हैं...। चलो आज का डिनर भी किसी रेस्तरां में लेंगे । देखो न ऑफ़िस के कारण टाइम ही नहीं मिलता । मेरी बातों से तुम नाराज़ तो नहीं हो किरण...। बात ही बात में शायद कुछ गलत कह गया, बुरा मत मानना...। मुझे लगता है, तुम बुरा मान गई, मुझे ऐसा नहीं करना था...।’
- ‘नहीं तो...मुझे कुछ नहीं हुआ...चलो चलें ।’ इतना कहकर किरण तैयारी में जुट गई । उसे अमित की ये बातें अजीब ज़रूर लगीं । मगर इन सब बातों का वह मतलब नहीं समझ पाई थी । कुछ समय के बाद वे घर से बाहर निकले । मुख्य मार्ग की भीड़ में खो गये । किरण चुपचाप अमित के साथ सूनी राह पर बढ़ती जा रही थी, मगर उस वक्त उसमें वो उत्साह नहीं था । किसी कोने में दबी निराशा ने मस्तिष्क को शिथिल बना दिया था । रास्ते में बहुत कम बातें हुईं । जो भी बातें हुईं उनका जवाब किरण ने ‘हाँ’ या ‘न’ सें दिया । वह किसी बात के बारे में उस वक्त अधिक कहना नहीं चाहती थी । काफी समय तक किरण उन्हीं विचारों की उधेड़-बुन में लगी रही । दूसरे दिन अमित ने किरण को सभी बातें समझा कर मना लिया । किरण अमित की बातों से नाराज़ तो थी पर अमित ने उसे यकीन दिलाया...। वैसे भी किरण जानती थी कि अमित ज़रूर मनायेगा...। अमित प्यार भी बहुत करता था किरण को...। मगर जज्बात के साथ ही यथार्थ पर उसे अधिक विश्वास था । इस तरह किरण और अमित के वे तीन साल अत्यधिक खुशी से प्रेमानुभूति में गुज़र गये...। इस बीच उनके जीवन में एक फूल सी बच्ची भी आ गई..। बड़े प्यार से अमित ने...उसका नाम ‘प्रीति’ रखा...उसकी तोतली बोलियों के साथ उन दोनों का वक्त यूँ ही गुज़रता रहा ।
वह यूँ ही अपने अतीत की दुनिया में खोई थी और अमित से जुड़े चित्र एक-एक कर उसके सामने उभर रहे थे । ...तभी ‘प्रीति’ की आवाज़ ने उसकी क्रमबद्धता भंग कर दी...। -... ‘मम्मी मेली गुड़िया पानी में गिल गई...चलो मम्मी मेरी गुड़िया ला दो ।’ किरण ने उसे गोद में उठाते कहा- ‘हाँ बेटे, हम तुम्हें दूसरी गुड़िया ला देंगे, बहुत अच्छी...खूब...बडी़...। साथ में खूब से और भी खिलौने ला देंगे । हमारी मुन्नी खूब खेलेगी...।’ इतना कहते-कहते किरण की आँखों में आंसू आ गये । - ‘मम्मी तुम लो रही हो...-प्रीति ने कहा ।’ किरण चौंकी और उसने कहा- ‘नहीं तो बेटे...और ज़ल्दी से आंसू पोंछ लिये ।’ ...इधर-उधर देखा, घड़ी की ओर नज़र ड़ाली । काफी वक्त बीत गया था...उसे अमित कहीं नहीं आ रहा था...उसे वे सब बातें स्वप्न सी लग रही थीं...। वह अपने मन को किसी भी तरह समझा नहीं पा रही थी । भविष्य में काले साये से उसका मन घबरा रहा था ।
एकाएक वह चौंक गई । उसने प्रीति को एकदम से गले लगा लिया । प्यार से प्रीति के सर पर हाथ फेरती रही । वक्त धीरे-धीरे गुज़रता रहा । अमित का स्वास्थ्य भी सुधरने लगा । इस तरह चार-पाँच माह में अमित काफी स्वस्थ्य हो गया, लेकिन सामान्य मनुष्यों की भाँति वह जी नहीं सकता था । किरण के बारे में भी सोचकर उसे दुख ही होता । उसके मन में आता था कि वह कहीं दूर चला जाए क्योंकि किरण का दुःख उससे देखा नहीं जाता । किरण निरन्तर चिंताओं से घली जा रही थी । मगर फिर भी उसने उफ तक नहीं किया, हमेशा अमित को समझाती रही । अमित तुम बेकार की बातें मत सोचा करो, ज़िंदगी ही है, कैसी भी गुज़र जाएगी, मगर तुम मझेस दूर जाने की बात मत कहना ।किरण की भावनाओं के कारण अमित कुछ भी नहीं कह पाता ।
पर, वह भीतर काफी दुःखी था । उसका मन बार-बार उसे कहीं चल देने को खींचता । कभी उसे प्रीति की याद घेर लेती, तो कभी किरण की । वह बेबस था ।उसे किरण से कही ई पुरानी और कठोर बातें याद आ रही थीं । कितना कुछ कह गया था उस दिन वह । अब लगता है कि शायद ठीक नहीं था वह । अपने जीवन में आये मोड़ से वह अचंभित था । पर, किरण ने उसे मना लिया था । प्रीति का हवाला दिया था ।.... यह भी कहा था कि घर के लिए आज भी अमित की उतनी ही ज़रूरत है जितनी पहले । सोच-सोचकर उसकी आँखें नम हो रही थीं ।
(प्रकाशितः युगधर्म रायपुर, 4 अप्रैल 1982)

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