सोमवार, 9 जून 2008

वापसी

वापसी
बड़ा सा शहर और फिर बड़े शहर की व्यस्तता । लोगों का हुजूम । आदमी एक बार भीड़ में गुम जाए तो दुबारा सहज नहीं मिल पाता । ये तो हालत है शहर की । डेढ़ साल हो गया मकान की तलाश करते-करते । मगर मकान नहीं मिला तो नहीं मिला । थक-हार कर तलाश ही छोड़ दी और डेढ़ साल की तरह आगे भी दड़बेनुमा घर में वक्त काटने का निश्चय कर लिया । घर...और दिन भर की तकलीफ सहना अब रोज़ की बात थी ।
ऐसे में एकाएक बड़े भईया ने खबर सुनाई कि शहर में मकान मिल गया है । खबर सुनते ही एक बार खुशी की लहर दौड़ गई । शहर में मकान मिल गया...। चलो अब फायदे हैं । घूमना...मिलना...जुलना...सब होगा । शहर से दूर की बस्ती भी कोई बस्ती है । तो हम लोगों ने बिना जांच-वांच किये नये घर में प्रवेश किया । दो तीन गली पार की...। फिर एक गली में मुड़े और दूसरी गली, तब जाकर बड़े नाले के पास का मकान दिखा । पहले तो मकान अजीब-सा लगा । लेकिन शहर में मकान मिलने की जो खुशी थी । हम अंदर पहुँचे ।
- ‘दो कमरे हैं न...।’ स्मिता पूछ पड़ी ।
- ‘हाँ दो कमरे हैं आओ देखो...। ये रहा पहला कमरा..., ये दूसरा ।’ इस तरह भईया ने दोनों कमरे दिखा दिये ।
- ‘नल-पानी की तो सुविधा है ?’ माँ ने पूछा ।
- ‘ये सामने नल है...और वो बाजू से रहा पाखाना...।’ एक टूटी सी कोठरी की ओर भईया ने इशारा किया ।
- ‘और लाइट...?’
- ‘वो भी है...।’ संतुष्ट होते हुए भईया ने कहा ।
- ‘अच्छा...आसपास और भी किरायेदार हैं । माँ ने पूछा ।’
- ‘हाँ एक है...बड़ा अच्छा है...। एक से दो भले...।’
- ‘पड़ोसी तो घर समान होते हैं...अच्छे-बुरे वक्त का साथी...पड़ोस अच्छा हो तो फिर क्या...। माँ ने अपनी राय दी ।’ स्मिता, अमिता और मैं...घूम-घूमकर मकान देखने लगे । बड़े भईया और माँ सामने बैठे बातें करते रहे । मुझे घर देखकर रत्ती भर भी संतोष न हुआ । ये भी कोई घर है । दो कमरे दोनों के लिए अलग – अलग रास्ता......। सिर को छूती छत.... । छोटे – छोटे से दरवाजे... । दीवारों पर झूलते वीजली के तार और उखड़ी – उखड़ी दीवारें । ये गर है या कोई कबाड़खाना । मन ही मन सोचता रहा । कहा कीसि से नहीं । डर था कहीं बड़े भईया नाराज़ न हो जाएं। बड़ी मेहनत के बाद ुन्होंने घर ढूंढा है । जैसे – तैसे सब्र कर लिया ।
पहला दिन तो कटा । पड़ोसी का व्यवहार भी काफी अच्छा सहसूस हुआ । कमरे ज़रूर कष्टदायक थे । छोटे – छोटे दो कमरे..., जीसमें एक कमरा तो बिल्कुल वेकार । सामने पाखाना जो था । फिर उससे उड़ती दुर्गन्ध । बचा एक कमरा तो ुसी में किचन... उसी में तरफ़ सामान भर गया और उसी में निस्तार...! किसी तरह संतोष कर लिया ।ा साथ ही बात भी सोच लिया कि दूसरे मकान की तलाश भी जारी रखी जाए । मकान तलाशने का सिलसिला भी जारी रहा ।
अगली सुबह जब आँख खुली तो देखा माँ सीढ़ी के पास बैठी नल को ताक रही है । सामने पड़ोसी गुप्ता जी चबूतरे में बैठे मंजन कर रहे हैं । पानी की टंकी में थोड़ा – सा पानी है । पहले तो पानीकी इतनी सुविधा भी कहाँ थी । रोज़ कुंए से पानी खींचना और ढ़ोना बड़ा अखरता था । संतोष की साँस ली, चलो पानी का चक्कर तो छूटा .... ! चढ़ती धूप को देख लगा नौ बज रहे होंगे । गुप्ता जी जा चुके थे । पानी की छटपटाहट से नगा माँ नहा रही है, बहुत दिनों बाद अच्छी नींद आई थी । नहीं तो सबह हुई नहीं कि पानी खींचने का वही पराना चक्कर....! और माँ की एक सी आवाज़ ।
‘अखिल...अरे उठेगा भी .... देख तो सही कितना बज गया ... !’
छः बजे सुबह ही ुठना पड़ जाता । ‘कितना बज गया’समझने के लिए काफी था । यहाँ की कुछ सुविधाएं मुझे भी अच्छी लगीं । पन्द्रह दिन बीते । इस बीच गुप्ता जी से मामली सी बात को लेकर झगड़ा हो गया था और उनका व्यवहार अब प्रतिद्वंद्वी की तरह था । बात – बात में लड़ना – झगड़ना । कभी रौताइन... तो कभी पानी ... कभी और किसी बात पर आये दिन झगड़ा होता रहता । गुप्ता जी पत्नी का ही पक्ष लेते । अपनी आदत के मताबिक में प्रायः चुप रह जाता । लेकिन शायद मेरी ख़ामोशी को उन्होंने मेरा दब्बूपन समझा , जबकि में सोच रहा था कि नई – नई जगह कौन बात बढ़ाये । फिर मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे । आये नहीं और लड़ना शरू । इस बात का भी संकोच था ।
इसी बीच एक बार मकान मालिक का भी आना हुआ । उनके हाव-भाव से लगा जैसे वे मकान देने के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने बात-बात में कहा- ‘हम तो मकान को फिर से बनाना चाहते हैं । पक्का जो बनाना है । खैर आप आ ही गयें हैं तो...!’ मुझे लगा कि वे मुझ पर एहसान कर रहे हों या हम दया के निरीह पात्र हों । इसके बाद वे घूम-घूमकर घर देखने लगे । उनकी पैनी नज़रों के आगे मैं खतावार सा खड़ा रहा । वे कुछ देर बाद मुझसे मुखातिब हुए और पहला सवाल किया-
-आप क्या करते हैं ?
-‘मैं सर्विस में हूँ ।’
-खोजबीन का क्रम जारी रखते हुए उन्होंने अगला सवाल फिर दागा ।
-‘घर में कौन-कौन हैं ?’
- ‘दो भाई, दो बहन और माँ ।’
-‘भाई क्या करते हैं ?’
-‘वो भी सर्विस में हैं ।’
-‘कहाँ...?’
-‘इस ‘कहाँ’ से लगा जैसे वे कोई छानबीन में यहाँ आयें हों और मुजरिम-सा मुझे हर सवाल का जवाब देना है । मानो किराये से घर न लिया ओर कोई चोरी कर ली हो । सवाल-दर-सवाल ।’
-‘यहीं सांख्यिकी विभाग में...।’
-‘अच्छा...।’
-‘मैं चुप हो गया ओर सोचा चलो पिंड़ छूटा । ज्यों ही मुड़ने को हुआ वे फिर बोले-
-‘सुनिये..., ज़रा साफ...सफाई का ध्यान का ध्यान रखा करिये...।’
-‘वो तो रखते ही हैं ।’ नम्रता से मैंने कहा ।
-ये आँगन में कागज पड़े हैंं, धूल ही धूल है...। गली में भी थोड़ा पानी डाल दिया करिये ।
-अच्छा...।
-‘हमारे यहाँ तो सभी साफ-सफाई पसंद करते हैं ।’ –मकान मालिक ने कहा ।
तो यहाँ कौन मैले में रहने का आदी है । मैंने मन ही मन सोचा । फिर आगे कोई बात नहीं हुई । मुझे लगा कि सारी उम्र क्या यूँ ही लोगों को पता-ठठिकाना बताते गुज़र जायेगी या फिर कभी अपना घर भी होगा । एकाएक आँखों में घर का बिम्ब उतर आया । खूबसूरत सा मकान । पक्के कमरे...। सामने लॉन...। हरे-हरे दीवारों के ऊपर तक उभरे पेड़...। स्मिता....अमिता उछल-उछल कर खेल रही हैं । माँ लॉन में कुर्सी डाले अख़बार में उलझी है । सामने स्कूटर खड़ा है ...। टेप रिकार्डर पर बजता एक प्यासा सा गीत वातावरण को मधुर बना रहा है । अचानक किरकिराहट सी हुई । आँखों पर बाथ फेरा । सारा द्स्य गायब था । क्या कभी ख़ुद का मकान भी बन पाएगा...। मैंने सोचा । शायद ही कभी...। सारी आय तो घर ख़र्च में चुक जाती है । इस घटना के बाद मैं गुमसुम सा एक पुस्तक पढ़ने बैठ गया । तभी गुप्ताजी ने पास रखी सायकल निकाली । बाहर तक आये । फिर छोटे से बच्चे से कहकर मुजे बुलवाया । थोड़ी झल्लाहट हुई । फिर मैं बाहर आया ही था कि वे बोले-
-आप जानते हैं कि आपकी अमिता ने हमारी गुड्डी के कान खींचे...?
-मुझे नहीं मालूम...। मैंने सरलता से कहा ।
-ये अच्छी बात नहीं है..., आपको यहाँ आये चार दिन नहीं हुए...।
-आप कहना क्या चाहते हैं । माँ बीच में बोल पड़ा- और ये भी कोई बात हुई.....आपस में खेलती हैं...कोई मजाक किया होगा ।
-‘मजाक नहीं...बल्कि सचमुच में ऐसा किया है ।’
मुझे ऐसा लगा मानो अभी दो हाथ दूँ और कहूँ ये भी बात करने की तमीज है । दिमाग तो खराब था ही । सालों के पास कोई काम तो है नहीं । बस चला आया लड़ने । बात भी कोई लड़ाई लायक है । गुड्डी का कान खींच दिया...। कैसे-कैसे लोग हैं । मन ही मन सोचा । बात बढ़ जाएगी, यह जानकर उल्टा-सीधा कुछ नहीं कहा । बल्कि सुलह के अंदाज़ में बोला-
- ‘आपको भी समझना चाहिए, बच्चों की बात लेकर...।’
- ‘नहीं-नहीं मैने समझा आपको बता दूँ...आईंदा से मुझे तो ये सब बर्दाश्त नहीं होगा ।’
- ‘तो यहाँ किसे बर्दाश्त होगा ।’ मैंने आवेश में कहा ।
- ‘आप बातें ही ऐसी कर रहे हैं ।’
- ‘एक तो गल्ती ऊपर से ताव तो देखो...।’ तीसरे बुजुर्गनुमा व्यक्ति ने उपेक्षित भाव से कहा । मेरे पास स्मिता और अमिता भी आ गई थीं । इसलिए मैंने बात आगे न बढ़ाते हुए वहीं मामला ख़त्म कर लिया । इसके बाद तो आये दिन की तकरार । मोटे थुलथुल गुप्ता जी, अब तो सुबह से नल पर जम जाते । निस्तार में तकलीफ । माँ भी परेशान । अमिता, स्मिता परेशानी देख बार-बार खीझ पड़तीं । मुझे भी ये सब अच्छा न लगता । गर्मी की छुट्टी थी । घर के सभी लोग परसों ही बाहर चले गये । मैं रात देर से घर लौटा । कुंड़ी खटखटायी...और लगातार 10-15 मिनट तक खटखटाता रहा । लेकिन कोई प्रत्युत्तर नहीं । सब चुप्पी साधे पड़े हैं । न तो दरवाजा खुला...न कोई आहट आई ।
मैं खीझ उठा- ‘साले बाप का घर समझते हैं । कहीं अपना घर होता और ऐसी बात तो हो जाती ? ये तो साला किराये का घर है । दस बात सुनो और पड़े रहो । आदमी होकर कुत्तों सी ज़िंदगी । यूँ ही बड़बड़ाते हुए मैं वापस लौटा । कार्यालय मे बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचता रहा, फिर न जाने कब टेबिल से सिर टिका सो गया, पाता नहीं चला ।’
इतने कम दिनों का शहराती मकान का कटु अनभव मुझे भेद रहा था । हमदर्दी...। ऊंह...लगता ही नहीं...कहीं है...। इससे भला तो शहर से दूर...वो ही मकान भला था । ऐसी झंझट तो न थी । वहाँ तो कुछ बात हुई नहीं कि दस लोग जमा हो गये, उस दिन स्मिता ही बीमार पड़ी तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था, फिर एक बार माँ फिसल गई थी । बाजू वाली मिसेस शर्मा ने कितना ख्याल किया था । तुरन्त दवा लायी, मालिश की... कितनी राहत मिली थी माँ को । वहाँ किसी बात की फिकर नहीं थी । कितनी हमदर्दी रखते थे वहाँ के पास-पड़ोस के लोग । यहाँ तो पहले तो कोई पानी को न पूछे बल्कि कोई मरता हो तो मर जाने दे । ये तो घर होकर भी घर नहीं लगता । मुझसे भले तो सड़क और फुटपाथ में जीने वाले लोग हैं । बस पुलिस के सिपाही का झगड़ा है...। दो-चार रूपये लेने के बाद वह भी रोज़-रोज़ तंग नहीं करता । वे तो रात हुई और सो गये । और फिर अगले दिन का धंधा देखा । मैं अपनी तुलना अपने से कम सुखी लोगों से करने लगा ।
हम मध्यम वर्गीय लोगों के साथ यही रोना है, सारी उम्र खप जाती है, मगर ख़ुद का घर नहीं हो पाता । बस गली-गली डेरा लिये फिरते रहो । आज यहाँ तो कल वहाँ की कूच । मैं सोचने लगा । यह घर किराये से लिया है या ख़ुद को निगरानी शुदा बना लिया है । आने-जाने उठने-बैठने, खाने-पीने से लेकर हरेक बात में पाबंदी...., भावना और तकलीफ की ओर तो किसी का ध्यान जाता ही नहीं । बस उठाया और प्रहार कर दिया । आज फैसला हो ही जाए । रोज़-रोज़ से ध्यान तो एक दिन की सर फुटव्वल भली....., अगली सुबह गुप्ता जी से काफी बहस हुई । बात भी बढ़ी । फिर मैं ही चुप हो गया । मैंने बाद में नया रुख अपनाया । अब रोज़ शाम को मस्ती भरा आलम रहता । टेप रिकार्ड की कोई धन चलती और दस-पाँच लोग उस खासी धौंस भी जमा दी । गुप्ता जी ये तो तोंद दिख रही है...साले...मार-मार के अंदर कर दूँगा । कुछ भद्दी गालियों की बौछार भी उसने कर दी थी ।
एक-दो दिन गुज़रने के बाद गुप्ता जी बोले- आपको इस तरह लड़के इकट्ठे करके हो-हल्ला नहीं करना चाहिए । याँ औरतें भी रहती हैं...कोई सराय तो नहीं है ।
-मैंने कब कहा सराय है ।
-व्यवहार से तो यही लगता है ।
-और आप जो करते हैं...वो बड़ा अच्छा है ? चिढ़ते हुए मैंने कहा ।
-हम यहाँ चार साल से रह रहे हैं, और कल के आये....हमें ही सिखा रहे हो ।
-देखिये गुप्ता जी ये सब फ़ालतू बातें हैं । आप भी किरायेदार हैं...हम भी ।
-कल से यहाँ कोई नहीं आयेगा...? मैंने कह दिया सो कह दिया । वे बोले ।
-आपने कह दिया...और सोचा कि ऐसा हो जाएगा । आपकी अपनी तकलीफ...तकलीफ है और हमारी तकलीफ.....।
-ऐ मिस्टर ज़्यादा बात नहीं तो सामान फिकवा दूँगा ।
-सामान फिंकवा दोगे...बड़े ताकतवर हो । ज़रा हम भी देखें कौन सामान छूता है । मुझे भी क्रोध आ गया ।
-एक बात सुन लो... कल से कोई नहीं आएगा यानी कोई नहीं आएगा बस...।
-आयेंगे सौ बार आयेंगे । मैंने भी उसी लय में कहा ।
ऐसे-ऐसे बात बढ़ गई । और, मैंने गुप्ता जी को हाथ जड़ दिये । फिर तो हाथापाई की स्थिति आ गई । इस बीच आसपास के कुछ लोग जमा हो गये थे । बाद में लोगों ने समझाया और बपात आई-गई हो गई । इसके बाद गुप्ताजी शांत पड़ गये और उन्होंने कोई बात नहीं की ...। लेकिन मुझे घर का वातावरण अब एक पल भी नहीं जंचा । मेरी आंखो के सामने एक बार पूर्व के मकान का सारा दृश्य उजला होने लगा ।कितनी आत्मीयता थी वहाँ और कितना प्यार था...। फिर लगा कि क्या शहर में ऐसे ही मकान होते हैं ? क्या किरायेदार बनकर रहना उठाईगिर होने के सबूत है ? क्या किरायेदारों की कोई इज्जत-आबरू नहीं होती ? आज अपना घर नहीं हुआ तो क्या और कहीं जगह भी नहीं मिलेगी ? गुप्ता जी क्या समझते हैं ? क्या घर नहीं मिलेगा ? चलो शायद इस घटना के बाद वे सुधर जायें । आने वाले पड़ोसी के साथ उनका व्यवहार बदल जाये । आज जब ख़ुद पर गुजरी तो तकलीफ का अहसास हुआ वर्ना दूसरों की तकलीफ तो उनके लिये तकलीफ ही नहीं थी । अब बार-बार मैं इस घर और उस घर की, जहाँ हम पहले रहते थे, तुलना करने लगा । गुप्ता जी और मकान मालिक का बर्ताव बार-बार मस्तिष्क में कौंधता रहा । वातावरण में दम घुटता सा नज़र आया । मैं घर से बाहर निकला तो एक रिक्शा बुला सारा सामान उस पर लोदा और चल पड़ा वापस उस घर की ओर । दबड़ानुमा ही सही वहाँ शांति और प्यार तो है ।
(प्रकाशितः युगधर्म रायपुर, 6 जुलाई 1982)

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