सोमवार, 9 जून 2008

बदलाव


घर में ख़ामोशी फैली है । पहले तो मैं चौंका । लेकिन फिर लगा कि नहीं....कुछ नहीं.. ऐसई होगा । कोई खास बात नहीं है । इधर-उधर नज़र डाली तो बात कुछ भी असामान्य नज़र नहीं आया । माँ पलंग पर अधलेटी सी दिखी । आस-पड़ोस के एक-दो बच्चे अकस्मात कमरे से निकले और बाहर जाकर गुम हो गये । बड़े भईया कमरे में बैठे कुछ लिख रहे हैं । सभी बातें सामान्य लगीं । फिर भी बिना एक पल गंवाये मैंने माँ से पूछा-
- तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है क्या ?
- नहीं... कुछ भी तो नहीं हुआ...।
- खाना खाया... लगता है सुबह से ऐसई पड़ी हो ।
- हाँ खा लिया । उठने की कोशिश करते हुए माँ ने कहा- सुबह हाथ-पैर में थोड़ा दर्द सा था इसलिए लेटी थी । अब ठीक है । ख़ुद को संभालते हुए माँ ने फिर कहा- थोड़ी सी चाय तो बना देना । उनका इशारा स्मिता की ओर था । - आज दूध देर से आया ।... अबी तक जाय भी नहीं मिल पायी । मुझसे मुखातिब हो उन्होंने फिर कहा ।
- सही बात छुपाने के लिए वे उठकर बैठक गयीं । मैं जानता हूँ । इन दिनों वे कितनी कमजोर हो गई हैं । दिन भर काम के बाद एक बार जो टुटकर गिरीं तो फिर घंटों नहीं उठ पातीं । लेकिन सभी अपनी कमजोरी साबित न होने देतीं । अपने आपको कमजोर था या असहाय दर्शाना उन्हें गंवारा न हातो । दिन भर काम करतीं और उनके पास दिन भर काम बना का बना रहता । एक बार तो मैंने टोका भी था-
- क्यों करती हो इतना काम ?
उस दिन भी उन्होंने हँसकर टाल दिया था-
- दिन भर जी नहीं लगता.. बैठे-बैठे भी क्या करुँ ।
काम के लिए जब कभी टोका नहीं, उनका यही एक सा उत्तर हाजिर रहता, जबकि वास्तव में ऐसी हालत न थी । सारा काम उनको ही करना होता । झाड़-बुहार... बर्तन से लेकर देर रात बिस्तर तक बिछाने में वे लगी रहती हैं । और, जब थककर चूर हो जातीं तो सिर दर्द वगैरह का बहाना लेकर पड़ जातीं पलंग पर । लेकिन सिर दर्द की बयाय थकान अधिक होती । मैं देख रहा हूँ । आठ-दस महीनों में उनके चेहरे में कितना बदलाव आ गया है । आँखों के नीचे काले से गड्ढे... धंसे गाल... सफेद बाल... सफेद बाल... साड़ी और इधर-उधर कुछ तलाशती सी आँखें....। मुझे अपनी ओर देखता पाकर वे कुछ घबरा गईं । मैं हमेशा उनके स्वास्थ्य के बारे में कोई न कोई सवाल कर बैठता था या कम से कम काम करने का मशविरा देता या स्नेह-मिश्रित क्रोध में काफी कुछ कह जाया करता था ।
-ऐसे क्या देख रहा है रे..। रहा न गया तो वे पूछ पड़ीं...। फिर कुछ पल की चुप्पी छा गई । - स्मिता चाय बन गई ? ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने फिर स्मिता को आवाज़ दी ।
-हाँ बन गई । स्मिता ने वहीं से जवाब दिया । मैं फिर भी चुप ही रहा । तभी स्मिता चाय दे गई । माँ के बाथों में रखा प्याला कांप रहा है और उनकीं आँखें मुझ पर टिकी हैं । उन्होंने इधर-उधर निहारा । फिर चाय के प्याले पर झुक गई, मैं काफी कुछ बोलना चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाया । चुपचाप उठा और अंदर आँगन में चला आया । आकाश स्याह हो चला था । आकाश में लुकते-छिपते सितारे दूर-दूर तक बिछे नज़र आये । रात का प्रथम चरण । मैं सोचता हूँ । रात-बार-बार क्यों चली आती है ! क्यों दूर तक फैला आकाश हमारी दयनीय दशा को रोज़ एक-टक निहारता होता है । लेकिन सिर्फ़ सोचने से ही क्या होगा ।रात आयेगी और जाएगी...पल-पल आकाश रंग बदलता रहेगा और दुनिया अपनी ही गति से चलेगी । हमारे लिए न तो कोई सोचता ही है और न इतना समय किसी केपास है जो अकारण बर्बाद करे ।
आब भी माँ की अस्पष्ट आवाज़ सुनाई दे रही है ।शायद माँ स्मिता से कुछ बात कर रही है । मैं चाह कर भी भीतर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । मैं जानता हूँ कि फिर वही त्रासदायक द्रश्य मुझसे लिपट जाएगा ।चाहते न चाहते मैं उनके पास से होता हुआ बाहर के कमरे में आ गया । उन्होंने न तो मुझे रोका न मुझमें इतनी हिम्मत रही कि रुक जाऊं । कुछ देर बैठा रहा...। फिर रहा न गया तो एक बार माँ के कमरे की ओर देख लिया । मुझसे बेखबर दीवार की तरफ़ मुँह किए माँ लेटी थी । कुछ पल तो मैं कमरे को निहारता रहा । बाद में वापस लौट आया ।
कमरे से बाहर....। सड़क पर लगा लट्टू अपनी रोशनी बिखेर रहा है । रोशनी के कुछ टुकड़े घरों की दीवारों पर चिपके हैं और सड़क भी कुछ दूर तक उजाले में नहाई है ।कभी-कभी तेज़ हवा अपने होने का अहसास दिलाकर गुज़र जाती है । बाहर का द्रश्य मनोरम हो सकता है लेकिन भीतर वही निम्म मध्यवर्गीय उदासी छाई है और फिर आठ-दस माह से ऐसी हालत थी कि एक-एक चीज़ का रोना रोया जा रहा था । बाहर से लोग भले की स्थिति को अच्छा समझें लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है ।
आठ माह...। कोई बड़ा अंतराल न था ..। इन आठ माहों में सब कुछ बिखरता चला गया ।ठीक आठ माह पहले ही तो पिताजी का स्वर्गवास हुआ था और पिता की मौत कम कष्टदायक नहीं थी । एकघुटन और पीड़ा लिये वे दिनिया से रुखसत हुए थे । जब तक पिता रहु मुझे किसी प्रकार की खास चिंता नहीं रही । न कोई खास अभाव ही होता था । किसी तरह सब चलता जा रहा था । लेकिन इस बीच पिता के चेहरे पर उभरने वाली थकान और टूटन को मैं अब तक नहीं भुला पाया हूँ । पिता प्रायः ऑफ़िस से लौटते और अधलेटे से कुर्सी पर पड़ जाते । फिर मुझको आवाज़ देते और वही एक-सा अनुरोध होता-
-बेटा अखिल । एक गिलास पानी और आज का अख़बार लाकर दे जा । और फिर पिता की नज़र मोटे व महीन अक्षरों पर दौड़ने लगती ।
इन दिनों पिता काफी थके-थके से लगने लगे थे । जैसे जीवन का काफी सफर तय कर लेने के बाद सुस्ताना चाहते हों । काम भी तो उन्हें मजबूरी में करना होता । और था भी कौन घर चलाने वाला । काफी उम्र हो जाने के बाद भी पैदल ही ऑफ़िस आते-जाते । एक बार मैंने उनसे सवाल भी किया था ।
-पिताजी आप रिक्शा क्यों नहीं कर लेते ?
-अरे बेटा... क्या रिक्शा करना...पास ही तो दफ़्तर है ।
-आपसे चला नहीं जाता ...फिर आप रोज़ पैदल जाते हैं ।
-धीरे-धीरे चला जाता हूँ ...। दो-चार पैसे बच जाते हैं । समझ लो सब्जी-भाजी का काम चल जाता है ।
-इस तरह कितनी बचत हो जाती है..., वही खाना-कमाना ही तो चला रहा है...। कितना जोड़ लिया अब तक आप....। मैं आवेश में कह गया ।
-नहीं.. बेटा काफी खर्ज है...। फिर देख तुझे पढ़ना है । स्मिता है.... अनिमेष है ...और तेरा बड़ा भाई भी तो कुछ नहीं कर रहा ।
-फिर भी आप रिस्शे से तो जा ही सकते हैं...।
-तू कमाने लग जा।... फिर रिक्शे से जाया करूँगा...। पिताजी कुछ पर सोचते रहे...। फिर बोले-बेटा तू मन लगाकर पढ़ा कर... और हाँ फ़ालतू बातें सोचना मेरा काम नहीं...। तू पढ़ लिखकर बड़ा हो जा...। मैं तुझे बड़ा अफसर बनाना चाहता हूँ ।
-मुझे नहीं बनना अफसर-वफसर ।
-ये क्या कह रहा है तू...।
हाँ, ठीक कह रहा हूँ... मुझसे आपकी परेशानी नहीं देखी जाती ....।
-अरे नहीं...नहीं... तेरे लिए थोड़ेई कमी है । सचमुच तू बड़ा होशियार हो गया है । फिर जोर से हँस पड़े थे पिताजी... कुछ देर तक खोखली हँसी वातावरण में गूँजती रही । फिर उन्होंने माँ को आवाज़ दी थी-
- सुनती हो तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है... आज मुझे ही समझा रहा था...।
-ठीक ही तो कहता है... पर तुम किसी की मानते ही कहाँ हो...। माँ ने काम करते हुए ही कहा था ।
-हाँ तुम भी उसी का पक्ष लोगी... चलो भाई... मैं ही दोषी ठहरा...। फिर बातों को जहाँ का तहाँ छोड़ पिताजी अख़बार में जुट गये थे और मैं उठकर बाहर आ गया था ।
उसके बाद कुछ दिन यूँ ही गुजरे ।फिर अचानक पिताजी को ऑफ़िस के किसी काम के लिए बाहर जाना पड़ गया था और जब वे वापस लौटे तो पहले से अधिक थके और बीमार नज़र आये । उन्हें सफर में ठंड लग गई थी । कुछ दिनों तक बुखार आता रहा । फिर कमजोरी और बीमारी के कारण वे लगातार टूटते चले गये । उनकी हालत खराब होती चली गई । उठना-बैठना तक मुश्किल हो गया था। पड़े-पड़े ही वे सारा काम करते । यहाँ तक कि रोज़ का अख़बार पढ़ना भी छुट गया । जब कभी मुझे खाली पाते तोकहने लगते- बेटा ज़रा अख़बार पढ़कर तो सुना... देखें तो क्या-क्या हो रहा है । और मैं उन्हें मोटी-मोटी खबरें सुनाने लगता । कभी-कभी वे किसी खबर को पूरी की पूरी सुनना चाहते । तब मैं उन्हें पूरी खबर पढ़कर सुनाता ।
थोड़े दिन और कटे । दिन तो कटे मगर बीमारी ज्यों की त्यों बनी रही । और...और कमजोर होते चले गए पिताजी । और फिर हम सबको जहाँ का तहाँ छोड़ एक दिन वे चल बसे । माँ तथा घर के सभी लोग उस दिन कितना रोये ते । पर मैं ज़्यादा रो भी नहीं सका । मैंने अपने आंसू पोंछ लिए और पिताजी की जगह ख़ुद रोज़मर्रा के संघर्ष में उतर आया था । दस पाँच दिन बाद सब मेहमान लौट गये ते ।घर के अन्य लोग व माँ ने भी अपने को काफी संभाल लिया था ।
अब मेरे सामने नौकरी की समस्या थी । पिताजी के रहते-रहते पढ़ाई तो पूरी हो गई । इस बीच कभी कोई गंभीर समस्या आई ही नहीं थी । मुझे सब कुछ नया-नया लगा । नौकरी की समस्या... पिरवार का भार और उदासी से लिपटे चेहरे । शुरु-शुरु में मैं भी घबरा गया था । लेकिन एक दोस्त की मदद से मुझे छोटी-छोटी नौकरी मिल गई थी और धीरे-धीरे थोड़ा बहुत सुधार होने लगा था, मगर अब पहले जैसे दिन नहीं रह गये ते । मामूली सी नौकरी के कारण सदैव एक तनाव सा बना रहता । नौकरी से जुड़े आसपास के सारे द्रश्य आँखों के सामने हमेशा ही घूमते रहते । जब कोई साथ पढ़ा मित्र मुझसे पूछ पड़ता मेरी नौकरी के संबंध में... तब ख़ुद को मैं काफी छोटा पाता । लेकिन किया भी क्या जा सकता है । कुछ न कर सकने के कारण ही जो बन रहा है.... करता जा रहा हूँ और अभाव से जुड़े दिन गुज़रते जा रहे हैं ।
बड़े भईया और मैं...स्मिता...अनिमेष... और माँ... इतने लोगों का परिवार...। फिर रोज़-रोज़ की समस्याएं । लेकिन लगातार झेलने के कारण अब समस्याएं सामान्य लगने लगी थीं । निम्न मध्यमवर्गीय समस्याएं जो निरंतर हल करने के बाद भी बराबर बनी रहती हैं । इतने दिनों में पुरानी खुशी फिर नहीं लौट पायी थी । मैं कमरे में बैठे हुए सड़क के उस पार लगे लट्टू से आगे का आकाश निहारता रहा और अतीत के द्रश्य मानस पटल पर उभरते रहे ।एकाएक वातावरण में खांसी की आवाज़ उभरी । माँ लगातार खांस रही थी । मैं चौंक सा या । उठकर अंदर आया । माँ को ज़ल्दी से उठाकर पानी दिया । पानी पीने के बाद वे लेट गईं । शायद कुछ आराम लगा हो । कुछ देर माँ के पास बैठा रहा ।फिर रसोई घर में पहुँचा । दूध का डिब्बा खोला तो खाली था । चाय बनाना चाही तो शक्कर भी नहीं मिली । माँ ने बताया- ख़त्म हो गई होगी... अभी कुछ देर पहले स्मिता ने चाय बनाई थी । एक ही साँस में माँ ने कहा । मैंने चुपचाप डिब्बा ज्यों का क्यों रख दिया । माँ से कुछ पूछना उचित नहीं लगा । खाली डिब्बे का रहस्य क्या मुझे नहीं मालूम ?
आसपास काफी कर्ज था । पिछली उधारी न चुका पाने के कारण दुबारा उधार सामन भी नहीं लाया जा सकता था । एक-दो बार उन्होंने उधारी के संबंध में टोक भी दिया था । एक तारीख निकल गई । लेकिन न बडे़ भईया को तनख्वाह मिली थी न मुझे । पिछली उधारी भी इतनी अधिक हो गई थी कि दोनों की तन्ख्वाह मिलकर भी उधारी के लिए पूरी न पड़ पाती । फिर अगला महीना आता और पहले की अपेक्षा अधिक उधारी हो जाती । कुछ माह से यह क्रम था । एकाएक स्मृतियों में फिर पिताजी उभर आये । मैं चाहकर भी उनसे नहीं कह पाया- ये आपका वही परिवार है... जिसे आप अपने पीछे छोड़ गये थे । आज इस घर में सुबह से खाने के लिए भी नहीं है । उधारी भी कुछ लाया नहीं जा सकता । तनख्वाह पता नहीं कब मिलती है । जमा पैसे तो आपके सामय भी नहीं होते थे और अब भी नहीं हैं । लेकिन तब में ... और अब में कितना अंतर है ।एक बात और, आप मुजे अफसर बनाना चाहते थे लेकिन यह हसरत भी पूरी नहीं हो पाई । आपके न रहने पर आज पहला दिन है जब हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाये और घर में रुखा-सुखा जो भी बनता था नहीं ब पाया । पिताजी के न रहने पर घर में आया बदलाव मेरी आँखों के सामने घूमता रहा । मैं उठकर बाहर चला आया । मेरे दर्द से बेखबर बाहर दूर तक सन्नाटा फैला था ।
(प्रकाशितः ‘देशबन्धु’ रायपुर, 1983)

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