सोमवार, 9 जून 2008

सूने शहर में


रात का आखिरी शो अभी-अभी छूटा था । भीड़ का एक रेला यकायक उभरा और धीरे-धीरे गलियों और सड़कों में बंटता हुआ लुप्त होता चला गया....। और अब पूरी की पूरी भीड़ लुप्त हो गई थी । भीड़ में से अधिकांश लोग अब घरों में आराम फरमा रहे होंगे । बचे कुछ राह में, घरों का फासला तय कर रहे होंगे । रात लगभग आधी से ज़्यादा बीतने को है । रास्ते एगदम सूनसान हो गये । हल्की सी आहट भी होती तो उसकी प्रतिध्वनि काफी देर तक वातावरण में छायी रहती है । ‘सभ्य’ कहे जाने वाले लोग तो कभी के सो चुके थे । रात लगातार गहराती जा रही थी ।
रात की इस गहनता के बाद भी कुछ लोग ऐसे थे, जो जाग रहे थे । उनके लिए यह रात... दूर तक फैला अंधेरा कुछ भी बाधक नहीं था । ऐसे लोगों में रिक्शे वाले, स्टेशन और बस स्टैण्ड के कुली, टैक्सी वाले, होटल के बेयरे और ऊंघते हुए उनके मालिक, धंधे वाली औरतें, पुलिस के सिपाही और कुछ अनिद्रा से पीड़ित लोग । यही कुछ ऐसे लोग हैं जो रात के लम्हे गिनते जाग रहे थे । अँधेरे का लाभ उठाकर काम करने वाले लोग भी कम सक्रिय नहीं थे । रात गहरा रही थी और उसके साथ बढ़ रहा था सन्नाटा । कभी-कभी मोटर गाड़ियों के हार्न या रिस्शे में घुंघरुओं का स्वर भरता जो पल में खो भी जाता ।
अधिकांश रिक्शे और टैक्सी वाले सवारी का इंतजार करने की बजाय अब ‘लम्बे’ हो गये थे । अपनी गाड़ी को उन्होंने बिस्तर बना लिया था । इधर कुछ थे जो कौड़ियों का दांव लगा रहे थे । दस-दस, पाँच-पाँच का दांव खेलते इन लोगों का झुंड लट्टू के नीचे जमा था और जो थोड़ा-बहुत शोर हो सकता था, यहीं था । यहाँ से कुछ आगे वही एकजैसे सन्नाटे का विस्तार ।
हम अपना काम ख़त्म कर घर की ओर बढ़ रहे थे । हम से मतलब मैं, राजेश और अमित । हम रात की पाली में काम करते और हमें छुट्टी मिलते-मिलते रात का एक-दो बजना मामूली बात थी । काम ख़त्म कर हम प्रायः चाय पीने निकल जाते और यह हमारी आदत हो गई है । एक रेस्तरां ऐसा था जो पूरी रात खुला होता । यहीं हमारी बैठक होती । चाय के समय हम दिन भर के काम, अपने अनुभव.... अपनी तमाम समस्याओं पर बात करते और हर दिन लगभग एक जैसी बातें दुहराई जातीं । कभी-कभी बात हल्के-फुल्के स्तर तक भी पहुँच जाती लेकिन ऐसा बहुत कम होता । हम ऊब कम करने के इरादे से जाते और अंदर-बाहर की तमाम बातें बखान कर डालते ।
‘ऊब होना’ हमारे बीच की आम धारणा थी जिसे हम अक्सर व्यक्त करते । पर मेरे साथ बस यही भर नहीं था । मुझे रात के साथ जागना...... जिंदा होने के बाद भी मृतप्राय से पड़े लोगों को ढोते, सुने शहर को जी भर के देखना-महसूस करना, जाने क्यों अच्छा लगता । जब कभी राजेश साथ न होता तब मैं काम ख़त्म कर अकेले ही निकल पड़ता । इधर से उधर चक्कर काटता और रात शहर झेलता है । इस सब में अजब सा लुप्त मिलता । खुला आकाश.... तारों का काफिला.... अपना एहसास दिलाकर बहती बवा.... और वो ख़ामोश पल जो बिना शोर-शराबा किये गुज़रते होते, काफी अच्छे जान पड़ते ।
आज भी हम तीनों साथ-साथ थे । थोड़ा बढ़े, फिर हमने नाली पार की और मुख्य मार्ग पर आ गये । अमित भी कुछ दिनों से हमारे साथ होता । अमित हमारा सहयोगी ता और बहुत अधिक ख़ामोश रहना उसकी प्रवत्ति । मुख्य मार्ग पर हमने कुछ ही कदम बढ़ाये थे, कि राजेश ने उंगली से इशारा करते हुए कहा था-
-‘वो..... सामने देखा तुमने ।’
-‘क्या है ?’ लापरवाही से मैंने कहा ।
-‘देखो तो भई....।’
-‘हाँ, देखा......।’ उधर नज़र डालने के बाद मैंने कहा । ‘अजीब नहीं लगता....., जब सारा शहर सोता है, तब इन्हें इनकी मजबूरी सड़क पर ला खड़ा करती है...।’ स्त्री-पुरुषों के चार-छह हिलते साये अँधेरे का लाभ उठाते पास-पास खड़े नज़र आते हैं । वाक्यों के अधूरे टुकड़े वातावरण में तैरते और गुम हो जाते।
- ‘हाँ, होता है.... और सब जगह होता है।’ सरसरी नज़र डालने के बाद मैं कहता हूँ । महज़ टालने की कोशिश । जबकि मन इस तरह का उत्तर देना गंवारा नहीं करता । कहीं अंदर से उनकी मजबूरी और हालात का अहसास मुझे उनसे जोड़ता चला जाता है । पर मैं राजेश के साथ इस वार्तालाप में उलझना नहीं चाहता । चुप रह जाता हूँ । कुछ दूर चलकर हम उनके पास से गुज़रते हैं । आवाज़ें स्पष्ट होने लगती हैं । दो सिपाहियों में से एक कहता है-
-‘ऐ....इतनी रात क्या कर रही है यहाँ .....।’
-‘....।’ युवती चुप रहती है ।
-‘बताती क्यों नहीं....गाड़ी में डालकर ले चलेंगे तब पता चलेगा....।’ दूसरा कहता है ।
- ‘तो ले चलो न ....।’ युवती का चिढ़ में डूबा सर्द स्वर उभरता है ।
हम उनके बोलचाल के दायरे से बाहर निकल भी नहीं पाते कि एकाएक सम्मिलित ठहाका वातावरण में गूँजता है । राजेश ने पीछे मुड़कर देखा और नज़रें घुमा लीं । मैं भी एक नज़र डाल चुका था । राजेश ने पीछे मुड़कर देखा और नज़रें घुमा ली । मैं भी एक नज़र डाल चुका था । राजेश कुछ देर तक चुप चलता रहा, फिर बोला-
- ये लोग कुछ दूर तक उसे साथ ले जाएंगे ?
- वो तो है....।
- रास्ते में अपना मतलब साठेंगे और छोड़ देंगे ।
- ये भी सही है....।
- मगर ये सब होना नहीं चाहिए ....।
- क्या होना चाहिए....और क्या नहीं...। सोचना हमारा काम नहीं...। हम कर ही क्या सकते हैं । क्या हैसियत है हमारी ...। मामूली सी नौकरी बस न । क्या हमारा शासन....हमारे अधिकारी... हमारे अख़बार....और तमाम लोग....इन सब बातों से परिचित नहीं ? पर क्या ये सब नहीं हो रहा ? कौन उठाता है आवाज़ ? सब के सब ख़ामोश हैं और जो आवाज़ कभी-कभार उभरती भी है.... उसे डूबने में समय नहीं लगता । उसके बाद वही रोज़ का सिलसिला है । आक्रोश व्यक्त करते हुए मैंने हा था ।
राजेश चुप रहा । हालाँकि उसके मन में अब बी बहुत सी जिज्ञासाएं थीं ... और वह इस बिषय में शायद और भी बातें करना चाहता था, पर मेरे विरपीत रुख को वह नज़रअंदाज़ नहीं कर पाया । उसने आगे कोई सवाल-जवाब नहीं किया । हम इस विषय से हट कर दिन भर के काम पर बातें करते रहे । अमित भी बीच-बीच में अपनी राय रखकर सहमति-असहमति जाहिर करता जाता । हम साइकिल साथ लिये पैदल बढ़ रहे थे और अब रेस्तरां बिल्ल पास आ गया था । चहल-पहल थी । सामान्य होटलों में दिन भर रहने वाली चहल-पहल से भी ज़्यादा । होटल में उभरने वाला एकजैसा शोर इस रेस्तरां में भी भैला था ।
रेस्तरां के अंदर ऊंघते हुए दो-तीन बेयरे टेबिलों के इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे । एक मसखरा सा बेयरा सामने खड़ा था । फिर अजीब सी मुद्रा बना वह भीतर चला गया । लौटा तो उसके हाथों में पानी से भरे गिलास थे । लोग उसकी मुद्राओं को देख हँस रहे थे....। उसे मनोरंजन का साधन बना बैठे थे । लोगों को ख़ुश देख वह भी ख़ुश था ।... कुछ टेबिलें खाली पड़ी थीं । कुछ से बातचीत का शोर उभर रहा था । मालिक टेप रिकार्डर ऑन कर गानें सुन रहा था । एक चलताऊ गीत की पंक्ति उभरी- मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है । और पल में पूरे वातावरण पर छा गई । दो-एक लोग संग-संग गाने भी लगे । हमने एक किनारे जगह संभाली और बैठ गये । वातावरण में बातचीत और गीत का सम्मिलित स्वर गूँज रहा था । दोनों की आवाज़ें एक-दूसरे पर चढ़ती-उतरती रहीं । कभी कोई जोर से चिल्लाते हुए बोलता तो गीत की पंक्ति कमजोर पड़ जाती... और उस आवाज़ के गुम होते ही गीत फिर उभर आता । मैंने एकबारगी चारों तरफ़ नज़र फेंकी... पूरे होटल में सामान्य और अति सामान्य कहे (कहने से ज़्यादा माने जाने वाले) जाने वाले लोग नज़र आ रहे थे । गाली-गलौच...., चीख-पुकार यहाँ के वातावरण में शुमार था । हमने बैठते ही समोसे और चाय लाने का आर्डर दे दिया था...। अब उसके आने का इंतजार था । हमारे बीच निर्मित मौन की स्थिति को भंग करते हुए राजेश ने कहा-
- आज रमेश बहुत बीमार है.... घर से अभी तक पैसा नहीं आया ।
- क्यों क्या हा गया उसे....। मैंने पुछा ।
- पिता से भी पैसा माँगते नहीं बनता । सवाल को टालते हुए उसने कहा-कमाने के बाद घर पर निर्भर रहते नहीं बनता...और अपना वेतन और जो ख़र्च है.... तुमसे छुपा नहीं ।
- खैर...बात तो सही है....पर हुआ क्या है ?
- तीन दिन से बुखार था... आज बढ़ गया ।
- दवा नहीं ली ?
- ली थी...पर उससे क्या होता....। सरकारी अस्पताल से दो-चार सफेद गोली.... और मिक्चर....। ज़रा भी आराम नहीं हआ ।... पहचान के बिना अच्छा इलाज और दवा भी तो नहीं मिलती ।
- रात काफी हो गई है ।...तीन बज गये । चौंकाने का अभिनय करते हुए मैंने कहा । हालाँकि मैं बातों में परिवर्तन और वातावरण में उभर आई बोझिलता को कम करना चाहता था...क्योंकि राजेश इस बीच काफी गुमसुम तथा भावुक होता जा रहा था ।
राजेश के चेहरे से लग रहा था – जैसे उसने मेरी बात सुनी ही न हो । वह किसी विचार क्रम में उलझा-सा जान पड़ा । सामने देखते हुए भी ऐसा लग रहा था । मानों वह इस दायरे से बाहर निकल कर किसी और संसार में खोया हो । मैंने उससे न कुछ पूछा और न ही उसकी विचार श्रृंखला तोड़ी । वह कुछ पल यूँ ही खोया-खोया सा रहा, फिर सामान्य होता चला गया । फिर हम मन बहलाव के लिए आम बातों में आ गये.... झूठी दिलासा....और विश्वास एक-दूसरे को देते रहे । भविष्य के प्रति आशान्वित होते रहे । आज नहीं तो कल शायद कुछ बदले । यही संतोषजनक बिन्दु था जहाँ आकर इधर-उधर की तमाम बातों में विराम लग जाया करता । बातों के बीच बेयरा नाश्ता रख गया था । कबहमने खाना शुरू किया और कब नाश्ता ख़त्म हो गया-अहसास तक नहीं हो पाया । हम उठने को ही थे कि तभी एक बेयरा दौड़ा-दौड़ आया । उसने एक-एक कर सभी बत्तियाँ बुझा दीं । कमरे के सभी चेहरे... टेबिल- कुर्सी... और सारा सामन अँधेरे में डूब गया । हम कुछ पूछें, इसके पहले ही उसने भयभीत स्वर में हिदायत दी-
- पिलुस आ रही है....सोर सत करना ...। सभी चुप थे ।
एक ख़ामोशी ने कमरे को घेर लिया था । ऐसा लग रहा था- लोगों की जुबान से शब्द चुक गये हैं...। भय ने शब्दों को निगल लिया है । गाड़ी रुकी ....। बुटों की आवाज़ उभरी...। थोड़ा डाँट-फटकार हुई । फिर वे नाश्ता-चाय करने लगे । गाड़ी स्टार्ट हुई...और बूटों की आवाज़ उसमें खो गई ।
एक बार फिर कमरे में उजाला हुआ और वही परिचित सा द्रश्य उभर आया – रोज़ ऐसा होता है बाबू । साहब हैं न ...। बेयरा बिना पूछे कह गया और आगे जा कामों उलझ पड़ा । होटल के मालिक ने बताया था – ये तो रोज़ का मामला ठहरा... साब, होटल चलानी है तो इन्हें ख़ुश रखना होगा...। सालों से दुश्मनी भी नहीं ले सकते.... गाली सुनो और मुफ्त में खिलाओ । हमने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । सामान्य सी बात लगी । कुछ भी तो नया नहीं.... किससे यह सब छुपा है ?
होटल मालिक फिर कह पड़ा- पर कहें भी क्या, साब गाली-मार सब सकते हैं .... पेट का सवाल ठहरा.... रात का ही तो धंधा है...। पहले ज़रूर कुछ अखरता था....। आब तो साब, आदत हो गई है । उसने एक साँस में यह सब कह डाला और एक-एक कर तमाम समस्याएं भी रख दी थीं ।
हम मौन थे । राजेश ने यहीं से घर का रास्ता पकड़ लिया था । मैं धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ने लगा । इधर-उधर नज़र डाली... और सही वक्त का अहसास करने लगा । पास से एक रिक्शा गुज़र रहा था । रिक्शे में एक अधेड़ शराबी नशे में धुत्त पड़ा था...। उसका आधा हिस्सा सीट पर आधा पायदान पर धरा था । वह लगातार बड़बड़ा रहा था । रिक्शा दूर होता चला गया ।
इससे आगे घर और कार्यालय के बीच का वही चौराहा था । रिक्शे वाले अब भी गद्दी का सिरहाना बनाये सो रहे थी.... और शायद वातावरण से दहशते की परत भी । मैं सोचने लगा कि प्रभात होते-होते शहर फिर सामान्य हो जाएगा । रोज़मर्रा की ज़िंदगी से उलझे सामान्य लोगों का शहर ! रात और उसके दर्द से बेखबर रहेगा । रात की दहशत इधर ख़त्म हुई, उधर शहर फिर शोर-शराबे में डूबता चला जाएगा । रात भर सोया शहर जागेगा ...। हलचल शुरु हो जाएगी ...। और, शुरु होगी वही रोज़ की अस्त-व्यस्त ज़िंदगी की लड़ाई ।
पर कुछ लोगों के लिए रात ही ज़िंदगी होती है । पल-पल की विवशता और दहशत के बीच वे जीते हैं । नींद और सुकून से उनका दूर तक वास्ता नहीं होता....और यह क्रम तब तक चलता है चब तक अगली सुबह अपनी लालिमा नहीं बिखेर देती... जब तक सूरज आकर कालिमा को ढलेल नहीं देता । हर रात हर सुबह एक जैसी ज़िंदगी... फिर भी ज़िंदगी तो जीना होती है । मैं सोचता, बढ़ता ही जाता हूँ और आकाश की स्याह परत धीरे-धीरे सफेद होती जाती है ।

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