सोमवार, 9 जून 2008

ठहरा हुआ वक्त


परिचित शहर भी कभी-कभी कितना अपरिचित जान पड़ता है । सड़कें...इमारतें... एक-जैसे चेहरे और दिन भर के एकरसता में पगे पल । लगातार एक सी गति से गुज़रना, जो गुज़रने जैसा कहीं से नहीं लगता । कहीं कुछ थमा-थम सा... रुका-रुका... सा जान पड़ता है ।हर दिन की भागमभाग । पता नहीं क्यों महसूस होता है कि अभी-अभी कुछ हमारे हाथों आकर फिसल गया है । ओझल हो गया है । अनिमेष रोज़ की तरह आज शाम भी यही सोच रहा है । खाली शामें हमेशा उसे ऊब से भर देती हैं । ऑफ़िस से लौटने के बाद के पल वह गिन-गिन कर बिताता । थोड़ा इधर-उधर जाना और फिर लौटकर पलंग पर पड़ जाना । फिर घंटों दीवारों को घूरते रहना । यह आदत हो गई थी ।
वह सोचता है । आज ज़िंदगी किस कदर घटना-शून्य हो चली है । रोज़ निश्चित जगह से निकलना... निश्चित जगह पर ठहरना और वापस लौट पड़ना । इन सारे पलों में ऐसा कुछ भी तो नहीं लगता जो नया जान पड़े । कुछ बदलता हुआ महसूस हो । कभी कोई छोटी-बड़ी घटना भी हमारे आसपास नहीं घटती । कुछ नहीं तो न सही, यह भी तो नहीं होता कि हम रास्ता चलते बस या ट्रेन के नीचे आ जाएं... या तेज़ी से भागती हुई कोई गाड़ी हमें कुचलती हुई निकल जाए... । कोई चाकू घोंप दे हम पर । कुछ.... कुछ तो नहीं होता दिन भर में ऐसा ।
याद करो तो लगता है कि परिचत सड़कें एक वक्त तक हमें ढो़ती रहती हैं और इसके बाद घरों में ढकेल देती हैं हमें...। या कहें घर आकर गुम हो जाती हैं ।हम घरों में कैद हो जाते हैं चाहरदीवारी की बंधी-बंधाई ज़िंदगी में । कभी कहीं से कुछ झकझोरता नहीं । एक कोफ्त सी होती है । अनचाहा सा सब कुछ हमारे आसपास! होता रहता है । होता रहता है । अनिमेष कुछ हिसाब सा लगाता हुआ सोचता है .आज का दिन तो गया ...। कल छुट्टी । और हाँ, परसों हर्ष आ रहा है । दो दिन पहले उसका पत्र आया था । कुछ दिन रुकने का इरादा भी जाहिर किया है उसने । चलो अच्छा है, ‘कुछ दिन’ तो अच्छे होंगे । एक अरसे के बाद आ रहा है वह । हर्ष और उससे जुड़ी यादों के टुकड़े आँखों के सामने झूलते रहते हैं और पता नहीं कब नींद लग जाती है ।
सुबह वह काफी देर से उठा । छुट्टी थी । फिर रात देर तक जागते रहने का असर भी ।
- ‘दस बज गये ।’ आँख मलते हुए वह दरवाजे तक आता है । सामने पड़ा ताजा अख़बार उठाता है और मोटी लाइनों पर सरसरी निगाह फेंकता है ।- ‘केई हॉट न्यूज नहीं ।’ वह बुदबुदाता है ।- ‘आज भी साली वही बकवास.....मंत्रियों की....नेताओं की.... भाषणबाजी.... निरी बकवास है सब ।’ वह अभबार मेज़ की ओर उठाल देता है । देर से उठने कारण मुँह का जायका बिगड़ा-बिगड़ा लगता है । वह कुछ सोचता है और आप ही आप मुस्करा पड़ता है । वह बढ़कर बाथरुम में घुस जाता है ।
एक बार फिर उसे हर्ष याद आता है । कल आ रहा है वह । रिलीव करने जाना होगा ।पता नहीं गये सालों में कितना न बदला हो । पहले जैसी नाटकीयता... फिजूल बातें और उनमें मशगूल रहना... बात-बात में ऊंचे ठहाके लगाना । बस स्टैण्ड में दिन भर की मौजूदगी...। और उस सबके बाद भीतर से काफी थका और टूटा-टूटा सा हर्ष । पता नहीं अब ‘कौन सा हर्ष’ बाक़ी बचा होगा । एक अंतराल आदमी को कितना नहीं बदल देता । मुझे ही लो । इस बीच क्या कुछ नहीं खोता आया हूँ । हँसी-ठहाके...खुशी...चैन...और निकल गये तमाम लोग ...। कुछ ‘अच्छे पल’ भी तो नहीं समेट पाया । इस बीच जो पास था, सब बिखरा ही है ।
शादी हुई । दो साल बाद अर्चना साथ छोड़ गई । गुड्डू भी पीछे-पीछे चला गया । माँ-बाप को वह छोड़ आया था । उन्हें अर्चना पसंद नहीं थी और उसे घर का रूढ़ियों से ग्रस्त वातावरण । वह टकराया था और छिटक गया था । एक ज़िद थी जो बनी रही । सब कुछ खोकर भी वह नहीं लौटा । हार कर भी उसने समझौता नहीं किया । आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने दी । आत्मसम्मान जिसे वह मानता है उसी वजह से वह रुका रहा, रुका रहा... और अब चार साल बीतने को हैं । अर्चना और गुड्डू की याद तो अब भी आती है । पर ज़्यादा परेशान नहीं करती । शुरु-शुरु में दिन भर सताती रहती । घर-बाहर कुछ भी अच्छा न लगता । फिर समय के साथ सब सामान्य होता चला गया । और अब...। ये दो शब्द उसकी आँखों के आगे प्रश्न चिन्ह बन घूमते रहे ।
सिर के ऊपर शॉवर के पानी की धार क्रमशः पतली होती हुई बूंदों में बदल गई थी । हल्कापन महसूस करते हुए वह उठा । झटपट बाहर आया । फिर आगे की प्लानिंग तय करने लगा । कुछ पल बाद वह सिर को झटका हआ पलंग पर बैठा । सिरहाने पड़े तकिये को दुहरा मोड़कर सिर के नीचे कियाऔर लेट गया । उसकी आँखों के सामने कमरे की छत थी....और उस पर उभरते अतीत से जुड़े द्रश्यों के टुकड़े.... जो उभरते...कुछ पल स्थिर रहते और शून्य में फिर खो जाते ।
पहला द्रश्य । बस स्टैण्ड का बुक स्टॉल... चार-पाँच चेहरे । अविनाश...हर्ष...अजय... मनीष और ख़ुद उसका अपना चेहरा...। हर दिन दिनचर्या की शुरुआत यहाँ से होती । बेवजह की बातें... और बहसें... और बीच में सब कहकहे लगाने से भी न चूकते । ऐसे मौके पर सभी जोरों से हँसते और हँसते रहते । बस स्टैण्ड पर की कई जोड़ी आँखें हम पर आ टिकतीं । पर सभी जानकर भी बेअसर रहते । उसे लगा इन बातों को याद कर वह अब भी हँस पड़ेगा ।
फिर एक दूसरा द्रश्य । हर्ष और मनीष सामान्य कहे जाने वाले एक विषय पर उलझे हैं ।- ‘सब फ़ालतू बातें हैं...ढोंग है...। कोई किसी का साथ नहीं देता...। पूरी व्यवस्था... पूरा समाज ही ऐसा है ।’
-‘तुम दो-एक उदाहरण दोगे बस ना... क्या तुमने पूरी तरह से महसूसा है...। आजमाया है । आख़िर, क्या आधार है तुम्हारे पास...।’
-‘होश संभालने के बाद से यही सब तो देखता आया हूँ । सहयोग और मानवता जैसे शब्दों के अर्थ अब बदल गये हैं, सब ओर छलावा है, ढोंग है । शोषण करने वाले मानवता की दुहाई दे रहे हैं । समाज में बने वर्ग क्या इनकी देन नहीं ? क्या है आज योग्यता का मापदण्ड ? औसत आदमी को अपनी योग्यता का प्रतिफल मिल रहा है तो कहाँ...? नौकरी में...? व्यवसाय में...? सरकारी या निजी संस्थानों....? और कहीं भी...नहीं ना....आख़िर क्यों ?
-बस-बस भाषणबाजी में उतर आये, यह तो एक पहलू है सिक्के का ?’
-‘लेकिन कितना काला ?’मनीष की बात कटाते हुए हर्ष बोला- जब ख़ुद की ज़िंदगी में कालापन हो तो बाहर का उजासा कोई मायने नहीं रखता ?
‘व्यवस्था और आज की ज़िंदगी जीता आदमी’ लगभग इसी शीर्षक में उनकी बातों को समेटता जा सकता था और यह बहस अविनाश के हस्तक्षेप के बाद आगे बढ़े बिना स्थगित हो गई । ‘चाय’ के ऑफर पर सबके सब रेस्तरां की ओर बढ़ गये । ऐसा अक्सर होता । अंतहीन व निष्कर्षहीन बहसों में उलझना..., विभिन्न मुद्दों पर टकराना और जूझना...। और इसके बाद वही ‘जैसे थे’ वाली स्थिति । सबने चाय पी । अपने-अपने पैसे चुकाये और फिर वापस । भुगतान के लिए हमने सहकारिता पर अमल करना तय किया था और वह हर दिन जारी रहता । कभी-कभी पाँच-दस पैसों तक के लिये छीना-छपटी होने लगती । यह हमारा अति उत्साह ही तो था । इन सब बातों को याद कर वह आप ही आप मुस्कुरा उठा । मन ही मन हँसता रहा । फिर यकायक गंभीर हो गया ।
एक नया द्रश्य । अब उसने सामने अर्चना और गुड्डू थे । अर्चना से उसकी मुलाकात एक संयोग थी । वह मंच से ‘साहित्य अपने दायित्व में कितना सफल’ विषय पर पक्ष प्रसुत्त कर रहा था । कुछ ठोस मुद्दे उसने रखे, कमजोरियाँ उजागर कीं । एक विचारोत्तेजक माहौल बन गया । निर्णय हुआ जो उसके पक्ष में गया । बाद में अर्चना मिली थी । इस बार उसमें वह उत्तेजना... वह जोश नहीं था । इसके बाद वह कभी-कभी आते-जाते मिल जाती । फिर ‘कभी-कभी’ शब्द हटता गया । मुलाकातों के दरम्यान वे एक-दूसरे के बारे में काफी कुछ जान गये थे ।
अर्चना एक स्टेज आर्टिस्ट थी । वह नाटक खेला करती । इसके आगे उसका एक छोटा भाई था और घर का तन्हा और उदासी में डूबा वातावरण । भाई पढ़ रहा था और वह माँ-बाप की भूमिका एकसाथ अदा कर रही थी । उनकी मुलाकातें निकटता में...और निकटता संबंध में बदल गई । सब कुछ इस तरह हुआ कि समझने जैसा कुछ बाक़ी नहीं रहा ।
अर्चना से विजातीय संबंध के कारण घर से मतभेद हो गया । भला-बुरा सुनना पड़ा और इसके आगे अलगा कदम गृह-त्याग । फिर एक-एक दिन का समय अपने आप से लड़ने...जीन के संघर्ष और तकलीफ में गुज़रता रहा । साल भर में स्थिति संभली । उसने काम चलाऊ नौकरी पा ली । अर्चना रंगमंच से जुड़ी रही । कुछ दिन कटे । फिर गुड्डू आया । घर के वातावरण के बोझिलता उठती गयी । पर अच्छा होता समय ‘और अच्छा’ नहीं हो पाया ।
अर्चना एक बार बीमार पड़ी । फिर बीमार का जाल कसता गया । रंगमंच छूट गया । वह सूखने लगी । और, फिर एक दिन शरीर का सारा रक्त ही सूख गया । फिर गुड्डू बीमार पड़ा... और ऐसा बीमार पड़ा कि दुबारा उठ नहीं पाया । तीन सालों में संजोयी खुशी एक-एक कर बिखर गयी । वह घर लौट सकता था पर लौटा नहीं । इधर सभी पुरानेसाथी कहीं-न-कहीं जम गये थे । वह अपनी दुनिया में खोया रहा और दोस्तों की महफिलों से एक फासला बना रहा । मुलाकातें जो हीतीं वे निहायत औपचारिक और ऊँगलियों में गिनी जाने वाली बोतीं ।
वह लंबी साँस खींचकर छोड़ता है । - ‘सब कुछ तो छूट गया । लाख चाहो पर क्या कुछ होता है मर्जी का...?’ वह सोचता है । सोचता चला जाता है । मन अवसाद से भर उठता है । ऊब औ घबराहट से बचने के लिए वह सड़क पकड़ लेता है । कुछ देर टहलता है । ज़रूरी सामान ख़रीदना है । लौट आता है ।
अगले दिन वर प्लेटफार्म पर होता है । गाड़ी रुकती है । हर्ष, एक महिला और साथ में छोटा बच्चा उतरता है । वे उसकी ओर बढ़ते हैं ।पास आकर ठहर जाते हैं । हर्ष पहले जैसे अंदाज़ में परिचय कराता है- ‘ये रहीं मेरी श्रीमती सुधा...और ये संजू, मेरा बाटा ।’ वह देखता रह जाता है । अपलक देखता है । सुधा और संजू के चेहरे...। यह चेहरे अर्चना और गुड्डू के चेहरे में बदल जाते हैं । वह उन्हें एकटक देखता होता है ... एकटक । औपचारिकता निबाहना भी उसे याद नहीं रह जाता । संचित उत्साह चुका-चुका सा लगता है । वह महसूस करता है, अभी-अबी वह उनके साथ ट्रेन से उतरा है । एक महीने का सफर । दक्षिण भारत की सैर... फिर वापसी । वह कितना थक गया था । प्लेटफार्म में एक पल रुकना भी नहीं चाहता ता । उसने अर्चना से कहा... ‘चलो अर्चना ज़ल्दी से निकल चलें ।’ इतना कह उसने हाथ थाम लिया था । लेकिन इस बार हाथ, हाथ से उलझा नहीं रहा..., छिटक आया । भूल से उसने सुधा का हाथ अपने हाथ में ले लिया था... और अब वह उसे ताक रही थी, भौंचक्क सी । ‘ओह माफ कीजिएगा...’ उसने कहा था ।
उसे लगा था । अभी-अभी अर्चना आई थी । उससे बात कर रही थी । गुड्डू भी साथ था । पर कहाँ चली गई इतनी ज़ल्दी ...! अरे, दो पल भी बात नहीं हुई । नहीं यह निरा भ्रम है । ऐसा नहीं हो सकता । फिर उसे लगा चार सालों से ढकेल-ढकेल के दूर किया वक्त एक बार फिर उसके पास आकर ठहर गया है । उससे लिपट गया है । लेकिन अब वह ‘वह’ कहाँ रहा है...? उन्हें साथ लिये वह आगे बढ़ने लगा ।
-‘हर्ष तुम काफी बदल गये हो ।’ उसने पूछना चाहा था पर शब्द अंदर घुटकर रह गये । - मैं ? नहीं तो...? जवाब सुनकर वह चौंक पड़ा । उसे लगा हर्ष ने उसका प्रश्न सुन लिया और उसने जवाब दिया है ।फिर लगा- ‘हर्ष नहीं...। वह ख़ुद ही बदल गया है...।’ लगातार बदलता ही तो रहा है ।चार साल हो गये । लगातार ख़ुद को बदल लेने की कोशिशें कर रहा है ।लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला । हर समय अर्चना और गुड्डू से जुड़ा वक्त उसकेपास आ-आकर ठहर जाता है । तब यह शहर... सड़कें...लोग और सारा वातावरण कितना अपरिचित और घुटन भरा मालूम होता है । ऐसे में ऊब और घबराहट दोनों पूरी ताकत से उसे भींचने लगते हैं । भींचते चले जाते हैं । एक जैसे अनुभव का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा है ।
(प्रकाशितः देशबंधु रायपुर, 1983)

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