सोमवार, 9 जून 2008

फाईल


- ‘...नींद नहीं आ रही...?’ रात..., बल्कि आधी रात के आसपास तीन-चार बार बाहर आने-जाने पर रेणु ने टोका ।
- ‘न....ई...। काम में थोड़ा मन उलझा है ।’ उसने कहा ।
‘अच्छा...।’ कहकर रेणु फिर नींद में सो गई ।
रात दो सवा दो बज गये होंगे । उसने अनुमान लगाया । फिर कमरे के भीतर स्विच आन कर लाईट जलाई । ...दो बजकर दस मिनट । वह बाल्कनी पर निकल आया । उसने ईजी चेयर खींच ली । पास पड़े टेबल को उसने पैरों के पंजों से अधलेटे-अधलेटे खींचा और उस पर पैर फैला लिये । सामने खुला आकाश था । पूर्णिमा के बीच की रात । सर्दी ख़त्म होने और गर्मी शुरू होने के बीच की यह रात । गर्मी की घट-बढ़, उमस...और मौसम के बदलने ने दो-चार दिनों में उसकी रोज़ की दिनचर्या को अस्त-वयस्त कर दिया था । दिन को सोना, रात को जाग जाना । फिर चहलकदमी करने लगना । उसने महसूस किया कि वह अटपटे से काम इस बीच कर रहा है । उसने पैरों को थोड़ा मोड़ा और एक पैर ज़मीन पर रख लिया । हल्की हवा बह रही थी । चारों ओर असीम शांति । उसने अपनी आंखे दूर बादलों के बीच डाल दीं । फिर उसे लगा कि उसने हवा में ख़ुद ही यह सवाल जैसे उछाला हो –
-‘ ...मुझे नहीं पहचानते...?’ मैं...श्याम किशोर...आपको याद नहीं!...मैं श्याम-किशोर...। याद करें तो याद आएगा आपको...मैं श्याम किशोर...। कितने साल हो गये...। कितना समय बीत गया...। नहीं याद आया न आपको । ...खैर, धीरे से आ जाएगा । ...यह भी याद या जाएगा कि श्याम किशोर को आप जानते थे...पर, शायद आप अभी ठीक से याद नहीं कर पा रहे हैं...कि, कौन श्याम किशोर...?
उसने तय किया कि वह अगली सुबह सारी बातें स्पष्ट कर देगा । एक पूरे दिन के भीतर वह इतना कुछ कर डालेगा कि उसे न तो फिर कुछ मलाल रहेगा और न ही बेचैनी, कि वह अपनी बात कभी नहीं कह सकता । या फिर, वह सिर्फ़ राय मानकर चलने वाला एक आदमी भर रह गया है...। कल, जो कुछ भी वह करेगा, उसके बाद कोई उससे यह नहीं कह सकेगा कि उसके पास स्पष्ट सोच नहीं है...। कोई यह भी नहीं कह सकेगा कि उसका फैसला गलत था...? वह यह भी स्पष्ट कर देगा कि वह सिर्फ़ ‘पुर्जा’ नहीं है!
वह कल दिन भर में दो दर्जन लोगों से मिलना चाहता है । वह कल की सुबह चार बजे ही उठ जाएगा । वह पूरा ‘शेड्यूल’ पहले ही बना लेगा । आजकल यूँ ही किसी के पास चले जाने से समय खराब हो जाता है । उसके साथ तो अक्सर यही होता है कि वह कभी भी, और कहीं भी ‘यूँ ही’ चला जाता है । वह सोचता है कि उसे ठीक से ‘दूकानदारी’ चलाना कभी नहीं आया । लोग कैसे सालों साल बाबू-मास्टरी जैसी एकरस जगहों पर अपना समय काट लेते हैं, और ख़ुश हैं । समाज में यही लोग प्रतिष्ठित भी हैं । वह ठीक से अपनी दूकान या यूँ कहें अपनी व्यवस्था कभी जमा नहीं पाया । उसे अपने आसपास की हर एक चीज़...रिश्ते-नाते...कारोबार...बात-विचार...मेल-मुलाकात...और भी तमाम तरह की बातें...,एक तरह की ‘दूकानदारी’ लगती । कभी लगता कि नहीं, यह ‘दूकानदारी’ नहीं है । यह तो दस्तूर है । किसी ऑफ़िस की व्यवस्था है...बल्कि, किसी भी ऑफ़िस की व्यवस्था है...वह ‘व्यवस्था’ क्या है, इस बात को कभी ठीक से समझ नहीं पाया, जो काम लोग अपने नौकर-बाबुओं से करवा लेते हैं, वह ख़ुद होकर भी वह काम नहीं कर पाता । वह सोचता है कि कल दिन भर में वह बहुत सारे काम कर लेगा ।
वह मन ही मन कामों की सूची बनाने लगा ।...अरे! अब याद आया आपको...? ...श्याम किशोर...? फिर, याद नहीं आ रहा है न आपको...! ...कितनी बार तो आप उससे मिल चुके हैं । ...कलेक्टर बंगले में...। कलेक्टर-एस.पी.ऑफ़िस में । ...मंत्री-बंगलो में । अभी आपने दो दिन पहले ही उसे सी.एम., गवर्नर हाऊस में देखा था । बीते महीने वह आपको ‘पी.एम.हाऊस’ के गलियारे में मिला था । ...बिल्कुल याद नहीं आ रहा है न आपको! ...याद करें...श्यामकिशोर...श्या...म...कि...शो...र...।’ खैर, छोड़िये भी । धीरे-धीरे याद आ जाएगा । थोड़ी देर के लिए मान लीजिए, मैं ही तो हूँ श्यामकिशोर...! कितनी बार आपसे मिला हूँ । ...आगे भी आपसे मुलाकात होगी । उम्मीद है धीरे-धीरे आपको सब याद आ जाएगा ।
-‘…हाँ...।’ उसने मन ही मन दोहराया । कल दिन भर में मुझे दो दर्जन लोगों से मिलना है । ...इतना बड़ा शहर । राजधानी वाला यह शहर । दर्जन भर लोग उसे अपने मतलब के नहीं मिल पाते, तो फिर दो दर्जन लोगों से मुलाकात...! वह मन में प्राथमिकता सूची बनाने लगा । तीन लोगों से फ़ोन पर भी चर्चा कर लेगा । दो मंत्रियों से भी उसे मिलना है । डायरेक्टर साहब ने भी उसे मिलने का समय दिया है । उसने प्राथमिकता सूची पर नज़र दौड़ाई । फिर झट से उसने सूची के सबसे ऊपर के क्रम में डायरेक्टर से मिलने का मन बना लिया । रास्ते में वह एक मंत्री से भी मिलता जाएगा । उसे लगा कि आज उसके मंत्रियों से रिश्ते कितने काम आ रहे हैं । वह सोचता है कि जब वह बेहद अपनों की भीड़ में ‘अकेला’ पड़ जाता है तो मंत्रियों को बंगले की चमक के बीच मौजूद भीड़ में उसे सुकून मिलता है । ...कई बार ऐसे समय वह किसी पेड़ की छांव में दीवार से पैरों के उलटे पंजे लगाकर उतनी देर खड़ा रह जाता, जब तक पंजों में दर्द न शुरू हो जाए । फिर वह पैरों का दर्द दूर करने के लिए इधर-उधर टहलने लगता । इस बीच नज़र भीड़ के चेहरों को पढ़ने का प्रयास करती रहतीं । वह महसूस करता कि भीड़ उतनी-की-उतनी बनी रहती है, घटती तो कभी नहीं है । वह अक्सर प्रयास करता है कि मंत्री के बंगले से फौरन निकल ले । उसे हमेशा कोई डर बना रहता कि कोई चेहरा आगे बढ़ेगा, उसके पास आएगा और अपना काम बता देगा...और, उसके लिए उसे टालना कठिन हो जाएगा । वह आजकल लोगों से मिलने से बचने लगा है । उसके सामने काम, आजकल ‘चेहरों’ में बदल गया है । फलां काम यानी फला चेहरा...फलां स्टाइल वाला चेहरा । उसके सामने अक्सर या तो कोई काम झूलता रहता...या फिर कोई चेहरा । या फिर, इन दोनों से जुड़ी गुलाबी...हरी...नीली-पीली फाईल ।
उसने तय किया था तो आज सुबह वाकई चार बजे उठ बैठा । सबसे पहले वह बाल्कनी पर आया । इजी-चेयर खींची और पैर फैलाकर अधलेटा-सा आकाश की ओर निहारने लगा । स्याह चादर पर टके चमकीले मोती...। और, चमकीले मोतियों की कतारें । उसे बेचैनी के समय में आसमान अपने बहुत करीब लगता । वह आज का शेड्यूल बनाने लगा ।
- ‘श्याम...। आज तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या...? घड़ी देखी ?’ रेणु ने अचानक पास आकर कहा ।
- ‘नींद...तो ठीक से, कई दिनों से नहीं आ रही है...। हाँ, चार सवा चार बजा होगा ।’ उसने बात यूँ टाली ।
- ‘श्याम! क्यूं परेशान होते हो...समय अभी खराब है तो कभी अच्छा भी आ जाएगा ।’
- ‘तुम सो जाओ रेणु...मैं कुछ देर यूँ ही बैठूंगा ।’
- ‘जैसी तुम्हारी मर्जी...।’ रेणु ने इतना कहा और भीतर चली गई ।

उसे लगा कि उसकी स्थिति आज ऐसी हो गई है कि कोई उसे ठीक तरह से समझना क्यूं नहीं चाह रहा है । जैसा वह अपने बारे में समझना चाहता है, उस पर कोई ध्यान क्यों नहीं देता ? सामने देखा तो उसे घड़ी कुछ ऐसी चलती नज़र आई, जैसे उसके काँटों पर बड़े-बड़े पत्थर रख दिये गये हों । वह सोचने लगा कि सुबह कब होगी...! उतरती रात की ठंडी हवा उसे इस बेचैनी के बीच कुछ राहत दे रही थी ।
ऑफ़िस समय के बीच वह सड़क पर था । उसने मन ही मन मुलाकातों का क्रम जमा लिया था । मंत्री जी से उसकी मुलाकात अपेक्षाकृत और भी सुकून से भरी हुई । वह दो मित्रों से भी औपचारिक मुलाकात कर आया । एक रेडियो के अफसर से मिला । दो अन्य दफ्तरों के काम भी उसने निपटा लिये । इस बीच उसने अपनी प्राथमिकता सूची के क्रम में सबसे ऊपर वाले नाम यानी डायरेक्टर से तीन बार मिलने का प्रयास किया । पर, वह हर बार वहाँ से यही जवाब लेकर फिर सड़क पर निकल आया कि-‘अभी मीटिंग चल रही है ।’ चौथी बार जब वह गया तो चपरासी ने बताया कि ‘साहब अभी तीन ऐसे लोगों के साथ बैठे हैं, कि उन्होंने साफ मना करवा रखा है कि अब जो भी मिलने आये, उससे कहो कि शाम पाँच या छह बजे के बीच आये ।’
श्यामकिशोर के सामने आज के दिन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा डायरेक्टर से मिलने का था । वह चाहता था कि आज बहुत ज़रूरी-सी बातें कर लेगा । चार बार, जब वह नहीं मिल पाया तो उसके मन में आया कि आज इस मुलाकात को टाल देना चाहिए । पर, मन माना नहीं । उसे यह डर भी था कि बार-बार एक ही दफ़्तर के चक्कर काटने से उसका अपमान भी हो सकता है । ...श्यामकिशोर को एक बात हमेशा सालती थी कि भले ही उसका कोई काम बने या न बने, पर ऐसी प्रक्रिया के बीच उसका अपमान न हो । वह अपने अपमान के ख्याल तक से डर जाता था । वह याद करता है कि आज वह इसलिए नहीं डर रहा कि कहीं से उसे नीचा देखना पड़ेगा । वह, इस बात से डर रहा है कि उसे किसी अपने आदमी के सामने नीचा न देखना पड़ जाए । समय ने आज उसे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि उसके सामने आग्रह के साथ खड़ी रहने वाली भीड़ न केवल आज गायब है, बल्कि उसे लोगों के सामने ख़ुद आग्रह के साथ खड़े होना पड़ रहा है ।
वह याद कर रहा है, यह भी कि, उसने उस दिन एक फैसला गलत लिया या कि सही...पर, वही फैसला आज उसकी बेचैनी का कारण बना हुआ है । उसने अपने ऑफ़िस में बॉस से यही तो कहा था- ‘आप, मुझसे बड़े हैं, यह बात अलग हो सकती है, पर ‘यह बात’ मैं नुकसान की पूरी स्थितियों को जानकर भी कहना चाहूँगा कि आपको तटस्थ और ऊर्जावान आदमी की ज़रूरत नहीं .....। बल्कि, ‘बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी’ चाहते हैं आप ।... और देखिये..., ऐसे आदमियों की भीड़ लगी हुई है, यहाँ से लहाँ तक । याप क्या, आपका पूरा सिस्टम ही बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी चाहता है । ... टेबिलों के पास झुकी पीठ लेकर खड़े हुए लोग...। ...लोग क्या बटन सरीखे पूर्जे चाहिए आपको ।....और, आप मानिये... मैं आपका पुर्जा नहीं बन सकता...। उसके कानों तक दो ही शब्द आये थे - ‘ठीक है ।’ .... ठीक है....., यह आवाज़ आज तक उसके कानों में गूँजती रहती है ।
‘ठीक है’ के बाद उससे ऑफ़िस में और कोई बात नहीं हुई । उसके घर क्रमशः एक, दो और तीन लिपाफे पहुँचे । पहला, नौकरी से निलम्बन का, फिर बर्खास्तगी का...और तीसरा लिफाफा था, पूरे कामकाज के हिसाब को चुकता करने वाले चेक का । वह कहीं से भी हैरान नहीं था । वह नतीजा जानता था । उसने कहीं भी कोई अपील नहीं की । वह चाहता तो दौड़-भाग कर सकता था ।अपने परिचय का लाभ उठा सकता था । उसके परिचय की लम्बी फेहरिश्त थी । पर, उसने ऐसा कुछ नहीं किया । वह चुप रहा ।
वह धीरे-धीरे करके यह भूलने का प्रयास करने लगा कि वह ‘श्याम किशोर’ है...। या फिर, वह ‘वहीं श्याम किशोर’ है, जिसकी जुबान से कोई बात निकली नहीं... कि वह बात पूरी हुई नहीं...। वह पूरी उम्र न तो कभी गिड़गिड़ाया, और न ही वह तीन लिफाफों को पाकर गिड़गिडा़ने का मन बनाने वाला था । उसने यथास्थिति को स्वीकार कर लिया था । पर, न जाने क्यूं उसे इस जिट्ठी ने परेशान कर दिया था, चिट्ठी थी कि उसे ‘क्लेम’ का कुछ पैसा और मिल सकता है ।... उसे अपनी अर्जी ‘फार्मल’ तौर पर डायरेक्टर को देनी थी ।
लोगों ने श्यामकिशोर को बताया था कि डायरेक्टर बड़ा मूडी है । वह बच्चों- सा मन रखता है, यानी पल में तोला, पल में मासा...। और, चरण स्पर्श उसे अत्यधिक आनंदित कर देता है । वह प्रभु की सत्ता को तो स्वीकार करता है, पर उसे अपनी सत्ता पर भी कम गर्व नहीं । उसके हाथ या तो घंटी के बटन पर होते... या फिर वह फ़ोन पर उलझा रहता ।... फाइलों को वह रद्दी का ढ़ेर समझता ।...और अक्सर आधी रात के समय वह फाइलों पर ‘टीप’ लिखा करता । इस समय उसके सामने सिर्फ़ चरपासी होता... दूसरा कोई नहीं ।वह सिफारिश से चिढ़ता था ।... उसे इस बात का पूरा अहसासा था कि काम करते समय कम से कम चपरासी तो सिफारिश नहीं कर सकता ...और आधी रात के समय न तो उसकेफ़ोन की घंटी बजेगी और न ही कोई इस वक्त उससे निलने आएगा ।लोग यह भी बताते हैं कि डायरेक्टर न केवल मुडी है, बल्कि ‘न्याय पसंद’ भी है ।... उसे डराया नहीं जा सकता... और न ही व डरता है । उसे ‘जंगल में शेर’ की तरह मानते हैं लोग । वह लोगों को कभी-कभी मिलनसार भी लगता है ।... श्यामकिशोर को भी वह पहली मुलाकात में अच्छा-ही लगा था । पर, श्यामकिशोर को यह नहीं मालूम था कि कोई आदमी जब एक बार अच्छा लगता है तो उसे लगातार कैसे अच्छा बनाये रखा जा सकता है । वह तो अपना छोटा-सा काम कर निकलवाना चाहता था । पर, दफ्तरी किस्सों नें उसकी कचूमर निकाल दी थी ।

श्यामकिशोर ने अपने जीवन में जो सबसे ज़्यादा कोफ्त की जगह पाई थी तो, वह जगह थी दफ़्तर । उसे लगता था कि ‘दफ़्तर’ नहीं... ‘दब कर मर’ जैसी जगह है कोई । .... यहाँ कहीं कोई बात न तो ठीक से सुनता है...और न ही ठीक समय पर किसी समस्या का निपटारा हो पाता है । चौथी बार टर काये जाने पर पाँचवीं बार जब फिर दफ़्तर पहुँचा तो उसने पूछा-
-साहब, बैठे हैं क्या भीतर ?
-हाँ,... मिलना है आपको...! चपरासी ने सफेद कागज की स्लिप उसे पकड़ाते हुए कहा ।
-मिलना है...पर, यह तो बताओ उसका मूड कैसा है ?
-अभी दो लोग बैठे हैं ? चपरासी ने उत्तर दिया ।
-क्या मुलाकात हो जायेगी ?
-आप अपना नाम वगैरह लिख दें । चपरासी ने जोर दिया ।
-अब तो ऑफ़िस बंद होने का समय हो आया... क्या अभी भी मिल लेंगे वो ...। श्याम किशोर ने पूछा ।
-साहब तो मर्जी के मालिक हैं..उनका क्या... । मन आया तो देर तक बैठे रहते हैं ।
-अच्छा...। कहकर श्यामकिशोर ने पर्जी चपरासी को थमा दी ।

श्यामकिशोर ने चपरासी को भीतर डायरेक्टर के कमरे में जाते देखा । वह सोचने लगा कि चार बार वह असफल हुआ । पता नहीं पाँचवी बार उसकी मुलाकात हो पाती है या नहीं । चपरासी फौरन बाहर आया । उसने हाथ से खाली सोफे की तरफ़ इशारा किया ।संकेत साफ था- आप वहाँ बैठ जायें । वह सोफे का एक कोना पकड़कर बैठ गया ।

श्यामकिशोर को आश्चर्य हुआ कि बैठे-बैठे रात के दस बज गये । न भीतर बैठे वे दो लोग बाहर निकले...और न ही डायरेक्टर ने उसे इस बीच बुलाया । वह याद करने लगा कि जब वह अपने हिसाब से काम करता था तो वह कभी भी किसी अफसर या मंत्री के यहाँ पाँच मिनट से ज़्यादा इंतजार में नहीं बैठा । कुछ उसका व्यक्तित्व और कुछ उसकी भाषा से जुड़ी स्टाइल थी कि कोई उसकी बात कभी टाल नहीं पाया । पर, आज न जाने कैसी आफस आई है । न तो जाते बन रहा है और न ही रुकते । अचानक उसे दरवाजे पर हलचल महसूस हुई । डायरेक्टर साहब ख़ुद निकल रहे थे । उनके साथ भीतर बैठ वे दो लोग भी बाहर आते दिखे । उसकी नज़र सोफे पर बैठे एक अकेले आदमी पर पड़ी । डायरेक्टर ने चपरासी को बुलाया और कहा- बुलाओ उसे...। श्यामकिशोर को अपने लिये यह सम्बोधन जंचा नहीं । वह आया तो डायरेक्टर ने सपाट शब्दों में कहाँ- ...बोलिए ! मैं आपकी पर्ची देखना ही भूल गया ...।
-मेरा एक क्लेम था । आप चाहेंगे तो तुरंत मुझे न्याय मिल जाएगा ।
-हाँ, देखते हैं...। कल एक अर्जी बनाकर लेते आना । डायरेक्टर ने बस इतना ही कहा ।फिर वह चपरासी से मुखातिब हुआ- गाड़ी लगाने को कहो । पल भर में गाड़ी सामने आई श्याम किशोर ने देखा । गहरी हो चली रात के बीच गाड़ी एक फर्राटे के साथ न्यॉन लाइट की कतार नापती हुई न जाने कहाँ खो गई ।
श्यामकिशोर सूने दफ़्तर से अकेले निकल रहा था । चपरासी अब दफ़्तर में ताला लगाने में जुटा था । पर, उसके हाव-भाव ऐसे नहीं थे कि लग रहा हो कि उसे घर जाने की बहुत ज़ल्दी हो । श्यामकिशोर के मन में सवाल आ-जा रहे थे । पर,उसने चरपासी के सामने कोई सवाल रखना ठीक नहीं समझा । भारी क़दमों से वह आगे बढ़ने लगा । उसने एक आटो रिक्शा को रुकने का इशारा किया ।

आज रात उसे फिर नींद नहीं आ रही थी । आधी रात के करीब वह उठ बैठा । फिर बॉल्कनी के छोटे से हिस्से में यहाँ से वहाँ डोलता रहा । तकरीबन बेचैनी में उसने पूरी रात गुजारी । उसने आज सुबह ज़ल्दी निकलने का मन बना लिया था । उसने सड़क पर आने के पहले दो लिफाफे तैयार कर लिये थे . वह चाहता था कि पुराने सभी पेंडिंग काम आज ख़त्म कर लिये जाएं । जिस किसी काम में नतीजा आता हो आये, जिसमें नतीजा न आना हो, न आये । ...पर, वह आज पुराने सभी कामों को अंजाम देने के मूड में था ।कामों के पेंडिंग रहते चले जाने ने उसे कमजोर बना दिया था । वह ठीक से फैसला नहीं कर पा रहा था कि क्या वह वही श्याम किशोर है, जो कि चुटकियों में सारा काम निपटा लेता था । उसके सामने पड़ते ही काम मानो...यूँ... हो जाता करते थे ।....आज उसके छोटे-छोटे काम नहीं निपट पा रहे हैं । श्यामकिशोर को लगा कि- उसे श्यामकिशोर हो जाना जाहिए । दिनिया दो-बातों से ही डरती है- एक दो बेहद सादगी से...और दूसरी बात, पावर से ...। सादगी और पावर दोनों का उपयोग उसे बखूबी आता है . पर, इन दिनों उसे हो क्या गया है कि वह सही बातों के लिए भी ठीक से पेश नहीं आ पाता है ।

उसने तय किया । वह अपने आपको बदलेगा । उसे अपने आपको बदलना पड़ेगा । पेंडिंग कामों ने उसका जीना मुश्किल कर दिया है । उसे कल दिन भर का वाक्या याद हो आया । किसी फिल्म की रील की तरह ह्श्य उसके सामने चलने लगे । उसे लगा कि आज वह सबसे पहले डायरेक्टर से मिलेगा । काम होना हो तो, और न होना तो हो तो न हो, पर वह बात को आज से आगे नहीं बढ़ने देगा ।
उसने आज दोपहर का वक्त मुलाकात के लिये चुना । वह दोपहर एक बजे के आसपास डायरेक्टर के दफ़्तर के सामने खड़ा था । एक बार उसने चारों तरफ़ नज़र डाली । ऑफ़िस में सामान्य दिनों जैसी हलचल थी । बाहर ऊंघते चपरासी थे... और इधर-उधर इंतजार में घूमते-बैठे लोगों के लटके चेहरे ।.... उसे लटके चेहरे और ढीले लोग कभी पसंद नहीं आये । पर, वह ख़ुद बीते कुछ समय से काफी डीला चल रहा है । थोड़ी गड़बड़ है, पर उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि वह श्यामकिशोर है...। वही श्याम किशोर... जिससे आप पहले भी कई बार मिल चुके हैं । आपको याद आ रहा है न.....। कल डायरेक्टर से ठीक बात न हो पाने के कारण मायूसी से जाते अथवा लौटते देखा था आपने उसे । आज... सब याद आ रहा है न आपको...!
श्यामकिशोर को लगा कि उसे डायरेक्टर से मुलाकात के लिए अब एक मिनट की भी देरी नहीं करने चाहिए । उसने आज चपरासी के हाथों अपने नाम की पर्ची भीतर नहीं भिजवाई । वह पहले कुछ सोचता रहा । फिर उसनेदरवाजे पर लगी तख्ती पर नाम पढ़ा- एस सुदर्शन...। कल भी यही तख्ती थी । पर, कल उसने मन में नाम पढ़ने का ख्याल नहीं आया । ...न ही सच मायने में, कल उसका ध्यान नाम की तख्ती पर था । नीचे लिखे डायरेक्टर शब्द को वह ठीक से पढ़ पाता, इसके पहले उसने दांये हाथ से दरवाजे को धकेला....और अब वह भीतर डायरेक्टर केसामने था ।
दरवाजा खुलने से डायरेक्टर की निगाह एकाएक उस पर गई । डायरेक्टर को कल रात वाला श्यामकिशोर का चेहरा अभी याद था । उसने आश्चर्य भरे भाव से श्यामकिशोर को देखा, जैसे सवाल कर रहा हो- अचानक आप भीतर कैसे चले आये ? डायरेक्टर ने पानी लाने को कहा । चपरासी आया। डायरेक्टर ने पानी लाने को कहा । चपरासी चला गया । श्यामकिशोर की तरफ़ अब डायरेक्टर की नज़र थी। डायरेक्टर अपने आपको व्यस्त दिखाने का पूरा प्रयास कर रहा था। उसने फ़ोन मिलाया। कुछ फाइलों पर दस्तखत किये । पी.ए को बुलाया। उसने श्यामकिशोर से दो-तीन मिनट तक कोई बात नहीं की। कुर्सी खींचकर श्यामकिशोर सामने बैठ गया। श्यामकिशोर को यह अहसास कहीं से हो रहा था कि- ‘उसका यह बर्ताव ठीक नहीं है।’ पर उसे भीतर से लगा कि- ‘डायरेक्टर ही कौन-सा शिष्टाचार बरत रहा है।’ वह भी चाहता तो कह सकता था- ‘बैठो।’ पर...नहीं। उसने इतना भी नहीं किया।

श्यामकिशोर ने अब और समय गंवाना ठीक न समझकर अपने हैण्ड बैग से दो लिफाफे निकाले। उसने पहले सोचा कि दोनों लिफाफे डायरेक्टर के हाथ पर रख दे । ...पर, उसे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि डायरेक्टर ही कौन-सा शिष्टाचार बरत रहा है।’ वह भी चाहता तो कह सकता था- ‘बैठो।’ पर...नहीं। उसने इतना भी नहीं किया।

श्यामकिशोर ने अब और समय गंवाना ठीक न समझकर अपने हैण्ड बैग से दो लिफाफे निकाले। उसने पहले सोचा कि दोनों लिफाफे डायरेक्टर के हाथ पर रख दे।... पर, उसे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि डायरेक्टर उन्हें बिना पढें ही कहीं रख दे। ....या, जान –बूझ कर पढ़ना न चाहे तो....। श्यामकिशोर ने लिफाफों के भीतर के दोनों कागज अलग-अलग निकाले ....और उन्हें एक-एक करके डायरेक्टर के सामने रखा । पहले लिफाफे में दो लाइनें लिखी थीं और दूसरे लिफाफे में भी उतनी ही लाईनें थीं। पहले लिफाफे में लिखा था-‘आशा है कि मेरी फाइल पर (विवरण सहित) दोपहर तक आप निर्णय ले लेंगे। अर्जी, फाइल के ही साथ है।’ और दूसरे लिफाफे के कागज पर लिखा था- ‘मंत्री जी, चाहते हैं कि आप डेढ़-दो बजे के बीच उनसे ज़रूर बात कर लें। याददाश्त के लिए नम्बर है....। टेलीफ़ोन के नम्बर और ‘नम्बर से जुड़े आंकड़े डायरेक्टर की आँखों के सामने घूम गये। कल डायरेक्टर से ठीक मुलाकात न होने के दरम्यान उसे मालूम हुआ था के डायरेक्टर की मंत्री जी से कहा-सुनी हो गई थी। कुछ कड़े निर्देश उन्हें मिले थे। श्यामकिशोर को लगा था। कि उसकी आज की तरकीब काम कर जाएगी...। उसे विश्वास था कि उसकी स्थिति कल-जैसी नहीं होगी। कल दिन भर में उसने छह-सात बार डायरेक्टर से मिलने का प्रयास किया था। कितनी कोफ्त के साथ उसका कल का समय बीता था। आज उसे इतनी तसल्ली तो हुई कि उसमें श्यामकिशोर वाली बात अब भी है.....। वह अपने आपको जैसे भरोसा दिलाना चाहता है कि उसके भीतर का श्यामकिशोर अभी मरा नहीं है।वह हमेशा श्यामकिशोर है...औ, श्यामकिशोर बना रहेगा।....आपको याद है न....कल का दिन श्यामकिशोर ने कितनी बेचैनी से गुजारा था। और फिर, उसे रात भर ठीक से नींद नहीं आई थी। आज सुबह वह घर से ज़ल्दी निकल गया था उसने सोचा खा कि आज वह अपने सारे पेंडिंग काम निपटा लेपटा लेगा। वह रोज़ की तुलना में आज कुछ ज़ल्दी में था। उसे बीतर ही भीतर लग रहा था कि वह वापस फिर श्यामकिशोर बन जाएगा..रखा क्या है श्यामकिशोर बनने में। उसने मन ही मन दोहराया कि- ‘रखा क्या है श्यामकिशोर बनने में ।’

उसने हाथ की ऊंगलियाँ फ़ोन के डायल पर घूम रही थीं। शाम उतरने में अभी घंटे भर की देरी है। डायरेक्टर ऑफ़िस में उसने फ़ोन मिलाया। यह अत्तफाक भी हो सकता है, पर उसे भरोसा था, डायरेक्टर से फौरन उसकी बात हो गई । डायरेक्टर ने बताया कि- फाइल पर निर्णय हो गया है । क्लेम का चेक लेकर चपरासी उनके दफ़्तर की ओर निकल गया है । श्यामकिशोर को लगा कि चपरासी उसके दफ़्तर की तरफ़ नहीं रहा है .... बल्कि, भीतर से वापस श्यामकिशोर निकल कर चला आ रहा है । वही श्यामकिशोर जिससे आप बार-बार मिल चुके हैं । पहले कलेक्टर बंगले में...कलेक्टर-एस.पी. ऑफिस में.... फिर मंत्री, सी.एम. हाऊस में उससे आप मिलते रहे हैं । और, बीते माह उससे आप पी.एम.हाऊस के गलियारे में भी तो मिले थे । ... श्यामकिशोर को अब तो नहीं भूलेंगे न आप ! याद आया न अब आपको श्यामकिशोर ...
डायरेक्टर से फ़ोन मिलाने के बाद वह ऊपर से नीचे तक अपने आप पर नज़र डालने के बाद यह सोचने लगा कि उसने उस दिन गलत नहीं कहा था – आप सिर्फ़ बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी चाहते हैं....। आप क्या आपका पूरा सिस्टम यही चाहता है । श्यामकिशोर को लगा कि उसने शायद ठीक ही कहा था कि वह जीवन भर बिना रीढ़ की हड्डी वाला आदमी नहीं बनेगा । घर लौटते समय आज उसके बर्ताव में गजब की फुर्ती थी ।
(प्रकाशितः मई 2002 को आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित)

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