सोमवार, 9 जून 2008

पतले तारों सी ज़िंदगी


चलो, एक कहानी यहीं से शुरु करें । वैसे कहानी कहीं से भी शुरु हो सकती है । मसलन घर की सुबह । ऑफ़िस की सुबह । या फिर, किसी सड़क पर से गुज़रते हुए । रात नौ बजे घर लौटा । शाम से ही प्रोग्राम बनाना शुरु कर दिया था कि ऑफ़िस से आठ बजे झुटने के बाद घर पहुँच कर क्या-क्या करना है । वैसे करने को कुछ खास रहता नहीं । पढ़ने का माहौल नहीं बन पाता । मसलन टी.वी. का शोर और बेडरूम में पहुँच ते ही लाइट बंद करने का जोर । लाइट बंद न करो तो मुँह बनाती हुई नीरजा । उसका चेहरा यूँ लटका होता जैसे पहाड़ टूट पड़ रहा हो । उसके सामने कल ऑफ़िस जाने की तैयारी और आँखों में गहरी नींद हमेशा बनी रहती । हर रात वह इसी चिंता में डूबी रहती और अखिल को । आख़िर सामा्य क्रम कैसे बने, यह ऊहापोह बनी रहती । बातों के तार कुछ इस तरह से पतले और उलझने-उलझने को तैयार रहते कि उन्हें छुआ नहीं कि, वे उलझे नहीं.... यानी कि बातों के तार को छूना ही अपने ऊपर मुसीबत को बुलावा देना है ।
ऐसा हर सुबह, हर शाम और कभी तो दऋपहर अथवा देर रात भी होता । आख़िर ऐसा क्यूं होता है ? इसकी वजह तलाशना अखिल के लिए मुश्किल था । फिर उसे लगता कि ‘क्या सोचता था’ और ‘हुआ क्या...।’ सोचा था-‘ऐसा होगा’ और हुआ ठीक उल्टा...। हर दिन कुछ न कुछ ऐसा ही होता रहता । सब कुछ अनायास सा...जैसे अपने हाथों में कुछ हो ही नहीं । पर ऐसा होना एक सिलसिले की तरह बन गया ।
अखिल को आप अखिल मानिये अथवा न मानिए ! आप स्वयं भी अखिल हो सकते हैं या बन सकते हैं । वजह साफ है कि बातों के तार कब सुलझे-सुलझे उलझ जायेंगे, आपको मालूम नहीं होगा । अखिल सोचता है कि आख़िर ऐसा क्यूं होता है ? क्या दिनभर मन में बैठी कोई खीझ अथवा चिढ़ मौका पाते ही निकलने को बेताब नहीं हो जाती ? अगर भीतर कुछ जल अथवा तप नहीं कर रहा हो तो ठंड़ी बातों पर तीखी प्रतिक्रिया क्यूं कर आती है ? क्या, ऐसा उसी के साथ होता है...या फिर सभी के साथ ऐसा होता होगा ? पर कुछ तो है जो सामान्य सी बातों को उलझाकर असामान्य बना देता है ? फिर व्यर्थ की अंतहीन बहसें...। फिर-फिर समझौता...टूटती-बनती बातों के बीच हार-जीत अथवा व्यर्थता से बीते क्षणों का अहसास...। ऐसा अहसास जो पूरे दिन भर की बोझिलता तो और बोझिल बना जाता । अखिल को लगता कि क्या ऐसी स्थितियों को टाला नहीं जा सकता...? फिर उसे लगता कि आख़िर ऐसी स्थिति क्यों बनती है...? क्या सारा दोष उसी का है...? नीरजा कहीं के भी दोषी नहीं है ? वह तो लगता है किसी बहाने का इंतजार करती बैठी रहती है । कब बहाना मिले और बातों का बतंहड़ बना दे । पर, क्या वास्तव में उसके मन के भीतर ऐसा करने का भाव रहता है...? या फिर, अनायास बन जाता है । चाहे जो होस पर नीरजा और अखिल वार्तालाप से उकताने लगे हैं । ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा तकरार के हवाले चढ़ जाता । दिन की तकरार का रात तक असर रहता और रात की तकरार का दिन भर । फिर समझौते की राह । न चाहते हुए भी बात खींचने की बजाए टालने की विवशता से भरी ज़िंदगी लम्बे समय तक जी जा सकती है ? क्या यह टकराव विचारों का टकराव है अथवा अहम् का ? पूर्वाग्रहों की वजह से उपजा टकराव है ? या फिर ‘आत्मोपलब्धि’ में खोये वजूद से न छूट पाने से बनते-बिगड़ते विचारों का टकराव है ? पर, अखिल और नतीजा को तकरार के बीते क्षणों के बाद हर बार महसूस होता है कि टकराव टाला भी जा सकता था...। अखिल और नीरजा अलग-अलग यह बात महसूस भी करते । झुकने और हारने को तैयार कोई नहीं होता ।
नीरजा डिप्टी कलेक्टर है और अखिल बैंक में बड़ा-सा अफसर । दोनों का अपना अलग स्टेटस । कहीं से उनकी दिनचर्या में यही स्टेटस ही आड़े आता रहता है । इसे ‘इगो क्लैश’ भी कहा जा सकता है । कहानी के मुख्य बिन्दु पर आते हैं । रात नौ बजे अखिल घर लौटा । टी.वी. पर कोई सूरियल चल रहा था घर के बाक़ी लोग टी.वी. में उलझे थे । नीरजा किचन में मशगूल थी । अखिल ने दफ़्तर के कपड़े बदले । फिर वह सीधे किचन में पहुँच गया । रिंकू वहीं खाना खा रहा था । नीरजा ने अखिल से पूछा-
- ‘खाना लगा दूँ । खा लो...अभी गरम है ?’
- ‘हाँ खा लूँगा...’ अखिल ने भीतर के भाव को छिपाकर सादगी से कह दिया । उसे मालूम था कि नीरजा मुझे ज़ल्दी खाना देकर किचन से फारिग हो जाना चाहती थी...जबकि अखिल का मन था कि वह दफ़्तर से आने के बाद कुछ देर बैठे । पहले मुँह धोये । टी.वी. पर आता सीरियल थोड़ी देर देखे । फिर एकाध घंटे बाद खाना खाये । या फिर, ज़रा मैग्नीज के पन्ने ही उलट ले । पर ऐसा हो नहीं पाता । मन मार कर रोज़ आते ही सबसे पहले उसे खाने के लिए ‘हाँ’ करना पड़ती । बिल्कुल मशीनीकृत व्यवस्था की तरह । अखिल कई बार सोचता कि दफ़्तर से लौटने के बाद इससे अलग भी कुछ हो सकता है ? पर नहीं...लगातार और रोज़ होता है वैसा ही...वैसे का वैसा । वह कर भी क्या सकता है ? कुछ कहा नहीं कि नीरजा ने ताव दिखाया । कोई पाँच मिनट के भीतर अखिल के सामने खाने की थाली थी । पूरा का पूरा खाना गरम...मगर हड़बड़ी में परोसा गया ।
-‘ज़रा सलाद भी दे देना ।’ अखिल ने कहा ।
-‘ये रही सलाद...।’ रिंकू ने सलाद लाकर दी ।
-‘रोज़ रात इतनी देर कैसे हो जाती है...इतना काम आप ही को करना पड़ता है, सुबह से रात तक...।’ नीरजा ने दूसरी रोटी थाली में डाली ।
-‘ऐसा नहीं है...कभी सात तो कभी आठ बजते हैं...। फिर शहर में इक्के-दुक्के लोगों से मिलकर लौटते थोड़ा समय हो ही जाता है ।’ अखिल ने कहा । आधी बातें सुनते हए नीरजा किचन में चली गई थी ।
-‘ये रोटी लेना...।’ नीरजा ने गरम रोटी ऊपर से छोड़ी । चूंकि अखिल के हाथ में कौर था इसलिए रोटी आधी थाली में गिरी और आधी ज़मीन पर । अखिल को कुछ अखरा । कोई चलता हुआ विचार जैसे उसके मन में यकायक टूटा हो ।
-‘प्लेट में रखकर भी रोटी दी जा सकती थी...। ये क्या हाथ में लिए दौड़ते-फेंकते दो...। नहीं चाहिए अब...।’
अखिल ने तीसरी रोटी थाली में आने के बाद मना किया । हालाँकि वह एकाध रोटी और खाने के मूड में था- ‘एक रोटी और दूँ ।’ यह कहते हुए रिंकू ने चौथी रोटी प्लेट में लाकर थाली में परोसी । नीरजा यिल बार रोटी लेकर नहीं आई । अखिल जान गया था । हमेशा की तरह किसी गलती पर टोका नहीं कि नीरजा को बुरा लगा और उसने उसे अपमान का कारण बना लिया। नीरजा ने फिर खाना नहीं परोसा । आगे जो कुछ लगा, रिंकू लाकर देता गया । अखिल थाली से उठा और टी.वी वाले कमरे में आ गया । नीरजा किचन में बनी रही। अखिल ने रिंकू से खबर भिजवाई कि वह नीरजा से कहे कि खाना खा ले। लौटकर वह जवाब लाया कि नीरजा की तबियत ठीक नहीं है। वह खाना नहीं खायेगी । अखिल को बात समझते देर नहीं लगी । वह जान गया कि आगे क्या होने वाला है । वह थोड़ी देर देखता रहा । फिर उठकर कमरे में चला गया ।
अखिल ने एक पत्रिका उठाई और उसे पढ़ने लगा । नीरजा पानी का जग लेकर आई । धम्म से जग रखा टेबिल पर । फिर वह दूध का गिलास ले आई । गिलास में वह चम्मच जिस तरीके से हिला रही थी, युससे साफ लग रहा था कि उसके दिमाग के भीतर भी कई बातें तेज़ी से चल रही हैं । अखिल ने इधर ध्यान नहीं दिया । वह पत्रिका पढ़ता रहा । हालाँकि वह पत्रिका पढ़ता दिखता रहा था, लेकिन अब शब्दों के अर्थ उसकी समझ में नहीं आ रहे थे । वह एक-एक लाइन कई-कई बार पढ़ता रहा । फिर उसे लगा कि सामने बनती परिस्थितियों में वह आगे और नहीं पढ़ पायेगा । उसके मन में कई एक बातें घूमने लगीं ।
अखिल ने पत्रिका से सिर उठाकर नीरजा पर नज़र डाली । वह सिर पर हाथ रखे आँखें बंद कर निढ़ाल सी सोफे पर बैठी दिखी ।
-‘क्यूं क्या हो गया...। ऐसे सिर पर हाथ रखकर जब-तब नहीं बैठते...।’ अखिल ने समझाना चाहा ।
-‘आप कहाँ-कहाँ से पता कर आते हैं ऐसी बातें ....। फिर कौन सिर पर हाथ धरे बैठा था ।’ वह हमेशा की तरह किसी बात को न मानने के अंदाज़ में आ गई ।
-‘अरे, तुम तो बुरा मान गई...मेरा मतलब ऐसा नहीं था ।’ अखिल ने कहा । वह जानता था कि नीरजा अब मानने वाली नहीं । वह कोई न कोई ऐसी नई पुरानी बात छेड़कर एक-दो घंटे उस पर जिरह करेगी । काफी ऊब भरी जिरह । न जाने कैसे-कैसे तर्क और ऊटपटांग विचार ...। वह सुनी-सुनाई आत्मेकन्द्रित बातें...।
-‘मैं कौन होती हूँ, बुरा मानने वाली । पढ़ो भई, खूब पढ़ो । जब पढ़ाई ख़त्म हो जाए तो बुला लेना ।’ नीरजा ने एक झटके से कहा और बाहर कमरे में निकल गई ।
अखिल ने पत्रिका को आगे पढ़ने का प्रयास किया लेकिन उसके दिमाग में बाहर मुँह फुलाकर बैठी नीरजा की आकृति घूमती रही । पता नहीं बैठे-बैठे क्या सोच रही होगी । उसे लगा कहीं उससे कुछ गलत तो नहीं हो गया । फिर लगा कि बार-बार बेवजह मनाना ठीक नहीं । इसी से आदक बिगड़ती है । उसने फिर पत्रिका में ध्यान लगाना चाहा लेकिन मन लगा नहीं । पत्रिका बंद करके उसे टेबिल पर सरका दिया ।
अखिल उठकर बाहर चला गया । पहले उसे लगा था कि जब इच्छा होगी, नीरजा ख़ुद आ जायेगी । मन नहीं माना । अखिल ने खोचा मैं ही झुक जाता हूँ । बुला लेता हूँ उसको ।
-‘चलो भीतर, लाइट बुझा दी है ।’अखिल ने कहा ।
- .....नीरजा चुप रही ।
-‘नाराज़ हो क्या ? अखिल ने बात बढ़ाई ।’
-‘नहीं तो, हो गई पढ़ाई ख़त्म...?’ टेढ़े से अंदाज़ में उसने कहा ।
अखिल ने कुछ कहा नहीं । वह भीतर कमरे में लौट आया । थोरी देर में नीरजा लौटी । अनमनी और गुससे में तनी गई । अखिल ने सोचा-चलो मैं ही मनाता हूँ । मान जाए शायद ।
-‘क्या भाई, गुस्सा गया कि नहीं ?’
-‘आपको क्या....कोई मरे या जिये...?’
-‘खाना क्यूं नहीं खाया ?’
-‘नहीं खाया...मर्जी...।’
-‘फिजूल बात क्यूं बढ़ाती हो ।’
-‘आप पढ़ो न...खूब लाइट जलाओ ।’
-‘और तुम बस आते ही झगड़ने लगो, टांट मारो और समझाओ तो उल्टी-पुल्टी बातें करो ।’ अखिल को गुस्सा आ गया ।
-‘कौन कहता है समझाओ ।’ नीरजा बोली ।
-‘तो खाना क्यूं नहीं खाया ?’
‘नहीं ...खाना मुझे ।’
‘आज क्यूं लगा कि रोटी फेंककर दी मैंने । रोज़ यूँ ही खा लेते थे, पर लड़ने का मन जाता नहीं आपका ।’
‘लड़ कौन रहा है...मैं या तुम...?’
‘नहीं मैं तैयारी करके आता हूँ लड़ने की । कब घर पहूँचूं और लडूं।’
‘मैं कल चली जाऊंगी, फिर नहीं लौटूंगी । आप ख़ुद देख लेना । अपनी मर्जी चला लेना ।’
‘अरे यूँ नाराज़ नहीं होते । चलो मैं ही सारी कहे देता हूँ ।’
‘बस सारी...कितनी बार सारी कहोगे । मुझे नहीं करना सारी-वारी ।’
‘अरे मान जाओ ।’
कोई दो घंटे की तकरार के बाद नीरजा मान गई । पर उसका गुस्सा पूरी तरह गया नहीं । वह एक ओर मुँह फेर कर सो गई और अखिल दूसरी ओर । अखिल सोच रहा था कि कैसे सब बातें सामान्य बनाने का प्रयास किया जाए । वह सोचता कि तकरार न हो । पर, न जाने किस बात को लेकर और न चाहते हुए तकरार हो जाती है । नीरजा के सामने अपने सहयोगी, अपना घर...अपने विचार और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने की तमन्ना होती और वह उसमें अखिल को शामिल करना चाहती । दूसरी तरफ़ अखिल के पास अपना दफ़्तर अपना बैंक...अपनी समस्याएं और दिन भर की किलकल से निपट कर निकला समय होता...। इस सबसे परे वह सुकून के दो-चार पल तलाशता...। लेकिन ऐसे पल उसे बहुत कम नसीब होते । तकरार, झल्लाहट से दिन शुरू होता और वैसा ही बीतता ।
अखिल को लगता कि वह जोर-जोर से चिल्लाये । खाली सड़क पर दूर-दूर तक दौड़ता चला जाए । वह चीख-चीख कर कहे कि उसे नहीं चाहिए यह सब शानो-शौकत और घर-परिवार । सब खोखला है । सिर्फ़ भागमभाग...रोज़ की भागमभाग...इससे आगे कुछ नहीं है ज़िंदगी । रोज़ की जोड़-तोड़ । गणित का सवाल । हल निकालने का प्रयास...और हर बार गलत होता जोड़-घटाना । हल निकलता ही नहीं । हल निकलेगा भी कैसे ? एक तार बुनो तो दूसरा टूट जाता है । दूसरा जोड़ो तो तीसरा उलझता है । फिर, अखिल को लगता है कि कुछ तार ही नहीं...बल्कि चारों तरफ़ पतले...बहुत बारीक तारों का जाल है...। यूँ ही छोड़ दो सारे तारों को...? फिजूल की मेहनत क्यूं...? नहीं...नहीं सुलझाने चाहिए तार...फिर सुलझते ही कहाँ हैं तार...? और-और उलझ जाते हैं...।
अखिल सोचता चला जाता है । उसके सामने बेतरतीब विचारों की श्रृंखला चल पड़ती है । नीरजा तैश में है, मगर सो गई है । वह उसे उठाना नहीं चाहता । उठाकर करेगा भी क्या...? उसे सुबह ऑफ़िस जाना है । सुबह से जुड़ी दिनचर्या की फेहरिस्त उसके सामने घूम जाती है । वह कमरे के अँधेरे में देखने का प्रयास करता है । कुछ दृश्य बनते-बिगड़ते हैं । अखिल समझने का प्रयास करता है । उसे लगता है, वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा है । फिर उसे लगता है कि समझकर करेगा भी क्या ? किसके लिए समझेगा....? किसे समझायेगा....? सभी तो उससे ज़्यादा समझदार हैं ? उसे लगता है कि सी को समझाना नहीं चाहिए ? नीरजा को भी नहीं ।... सभी बुरा मान जाते हैं । आख़िर उसके भीतर ऐसा क्या है कि उसके विचार को कोई समझ नहीं पाता । क्या ज़िंदगी मिली है उसे । एकदम पतले तारों सी ज़िंदगी । एक छोर तलाशों तो दूसरा नज़र नहीं आता । दूसरा सिरा तलाशो तो पहला उलझता है ।
अखिल अपने सोच में खोता चला जाता है । उसे एहसास होता है कि फिर एक दिन बीता...। रात खूब गहरी हो गई है । थोड़ी देर में बीत जायेगी । अखिल सोचता है दिन और रात के बीच वह सिर्फ़ डोलता भर रहता है । फिजूल सा, अर्थहीन । उसे कोई तरकीब नज़र नहीं आती है । अखिल को लगता है वह और नीरजा दो अलग-अलग खानों में पड़े हुए हैं । एक झीनी-सी आड़ है । यह आड़ हर दिन फैलती जा रही है । फिर लगता है कि क्या वास्तव में समझौता ही ज़िंदगी है ? उसकी नज़र दूर शून्य में कहीं खोती चली जाती है ।
(प्रकाशितः अमृत संदेश, रायपुर, 1993)

1 टिप्पणी:

Shruti ने कहा…

very nice aisa laga jaise apnihi kahani padh rahe hai.aap mane ya naa mane aisi choti moti ladai hamare me bhi hoti hai par shabdo me aapne piroya.
thanx.