सोमवार, 9 जून 2008

बदलती तस्वीर

आईने को ध्यान से देखा तो पहले लगा कि कुछ नहीं है । फिर लगा- नहीं, वह हिल रहा है । उसमें कोई अक्स नहीं था । आईने के ठीक बगल से कूलर चल रहा है उससे लगकर रखी सुंदरता की देवी का प्रतीक हिलता नज़र आया । उसे लगा उसका सिर घूम रहा है । उसने दोपहर में ही कमरे की लाईट जला ली । फिर ध्यान से देखा-कुछ खास नहीं है । टेबिल के पास रखा वीनस की आकृति कम्पन के साथ अजीब-सी आवाज़ पैदा कर रही थी । उसने सोचा कोई खास बात नहीं है । आजकल उसे हर छोटी-मोटी बात परेशान कर जाती है । वह काफी देर तक कमरे की सारी चीज़ों को बारी-बारी से देखता रहा । सोफा, आलमारी, बिखरी पड़ी किताबें, फाइलें । यहाँ-वहाँ फैले पन्ने, डस्टबीन, उसी के पास रखा टेलीफ़ोन .... देवी- देवताओं की तस्वीरें सभी जानी-पहचानी निश्चल और कमरे भर में फैली पड़ी चीज़ें ।

उसे लगा कि कमरा अगर ज़्यादा से ज़्यादा खाली होता तो कितना अच्छा था । रीडिंग टेबिल और एक ईजी चेयर होती.....बस । वह कुर्सी पर लेटकर कोई बढ़िया नावेल या शार्ट स्टोरी पढ़ता । झूल-झूलकर कुर्सी पर पढ़ने की तम्मना उसे अरसे से थी । वह सोचता था कि एक दिन लंबे पुट्ठे वाली एक चेयर ज़रूर ख़रीदेगा ।

ईजी चेयर में ऐसी क्या बात है, वह नहीं जानता । लेकिन उसे फिर लगता कि ईजी चेयर में कोई बात तो है । ईजी चेयर वह नहीं जो कि बगीचे अथवा लॉन में बेठने की होती है बल्कि, वह चेयर जो ‘एक्जीक्यूटिव पर्सनाल्टी’ दर्शाती है । उसने महसूस किया कि उस दिन आपने आप को उसने कितना अजनबी महसूस किया जब जतिन को लंबी पीठवाली मखमली कुर्सी पर बैठे पाया । उसका बात करने का अंदाज़ कितना बदल गया था । कितना अकड़ कर बैठा था जतिन । तभी उसने महसूस किया था कि कुर्सी से....और बढ़िया कुर्सी से व्यक्तित्व कितना निखर आता है । एक बढ़िया कुर्सी.... एक बढिया रीडिंग रुम और एक बढ़िया सा निजी कहलाने वाला दफ़्तर । यह सपना उसके सामने था ।

वह जब भी सड़क पर होता और अपने दफ़्तर की तरफ़ बढ़ता तो सबसे पहले उसकी नज़रों के सामने बॉस की कुर्सी होती । मुलायम और पूरे दफ़्तर में सबसे अलग दिखने वाली कुर्सी.... और उसकी कुर्सी थी कि टिन की जँग लगी हुई । जगह-जगह उखड़ता रंग । बैठो-उठो तो चूं-चूं करती । उसे लगता कि दफ़्तर में कुर्सी से उसके अस्तित्व और व्यक्तित्व को समझा जा सकता है । वह जब तक दफ़्तर में रहता, बेचैन रहता । उसे लगति कि वह बॉस सरीखी कुर्सी में क्या कभी बैठ पाएगा..... या फिर उसकी सारी ज़िंदगी उस टिन की कुर्सी पर बैठे-बैठे बीत जाएगी ।
गाँव जैसे लगने वाले छोटे से शहर में जब वह आया तो उसे सिर्फ़ नौकरी की तलाश थी नौकरी ले-देकर मिली तो वह उसी में खोया रहा । कई साल निकल गये । वह सिर्फ़ नौकरी करता रहा । कभी वह बॉस के बहुत करीब अपने को पाता को कभी से लगता कि वह फिजूल में समय बर्बाद कर रहा है । दफ़्तर से घर.... और घर से दफ़्तर ! बस यही तो उसकी दिनचर्या रह गई है । उसने अपने चारों तरफ़ नज़र डाली । कितना बदल गया है सब । पर वह सालों-साल एक सा काम करता चला आ रहा है । उसी के साथ के बहुत से लोग दीगर काम करके न केवल बड़े बन गये बल्कि आज मज़े में हैं । बॉस के सामने जब वह कोई फाइल लिये अथवा किसी बात के लिए खड़ा होता तो उसे अपने साथ के लोग याद आते । उसे लगता कि अब वे लोग फाइल लिये नहीं खड़े हैं । वे अपने दफ़्तर में ईजी चेयर में बैठे हैं । एक वह है कि जब-तब फाइल लिये छोटी-छोटी बात के लिए खड़ा रहता है बॉस के सामने । और, ये बॉस भी है जो कभी उसकी परवाह करता है और कभी तो बिल्कुल नहीं ।

उसे लगता कि उसमें आदमी कहलाने के जीन्स नहीं रह गये हैं । वह औरों की तरह पीठ को सीधा करके नहीं बैठ सकता है । बॉस के सामने लगातार झुक-झुक कर बाते करने से उसकी ऊँचाई कुछ नहीं तो आधा फीट कम हो गई है । वह दफ़्तर के भीतर और दफ़्तर के बाहर आने के बाद जब तब अपना कद नापने का प्रयास करता ।

वह सोचा करता कि बॉस की तरह.... या फिर जतिन की तरह उसके पास भी लम्बे पुट्ठों वाली कुर्सी होती तो कितना अच्छा होता । वह भी महसूस करता कि उसका कोई अस्तित्व है । वह सिर्फ़ हुक्म बजा लाने वाला कारिन्दा नहीं है । वह भी निर्णय ले सकता है, या फिर उसके निर्णय भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं ।

आज उसे बॉस ने फटकारा था कि व केवल लेटलतीफ़ है बल्कि वह लापरवाह होता जा रहा है...। सालों का अनुभव उसने ख़ाक में मिला दिया है ....। और किसी जूनियर साथी के साथ भी काम के मुकाबले लायक नहीं रहा । वह समझ नहीं पाया कि बॉस बर्ताव उसके साथ यकायक क्यूं बदला । फिर उसने महसूस किया कि बाजार की स्पर्धा में बॉस पिछड़ रहा है । इसलिये वह कई बार अपनी परेशानी को पचा नहीं पाता । नए प्रोडक्ट के सामने उसका प्रोडक्ट कमजोर पड़ने लगा है । कारोबारी गणित लड़खड़ाने के कारण वह जब तब किसी पर नाराज़ हो जाया करता था । फिर कई दिनों बाद जब वह सामान्य होता तो असलियत का कछ हिस्सा जाहिर करता.....। पर, ज़्यादातर बातें वह दबा जाया करता । उसने दफ़्तर में बड़े पैमाने पर साफ-सफाई भी कर डाली थी । ढांचा बदलने का प्रयास बड़ी तेज़ी से करने के बावजूद वह जिन्हें किन्हीं कारणों से हटा नहीं पाया, उन पर न केवल उसने काम का बोझ ज़्यादा डाल दिया था बल्कि उनके साथ अपमानजनक बर्ताव भी करने लगा था । कभी-कभी वह अपने बर्ताव में इस हद तक नीचे उतर आता कि अपनी साख का ख्याल तक भूल जाता । उसे तब बॉस किसी कंजड़ की तरह मालूम होता ।

बॉस के करीब दो दर्जन लोगों को एक-एक करके हटा दिया । अलग-अलग सेक्शन से आधा स्टाफ साफ कर दिया । बदलते व्यवहार और अपमान के कारण एक चौथाई लोग इधर-उधर जाकर शिफ्ट हो गये । जतिन भी था इनमें से एक । उसने बॉस का साथ छोड़कर मैग्जीन का दफ़्तर डाल लिया । शुरु की खींचतान के बाद तीन-चार बरसों में वह जम गया । बढ़िया कहलाने वाली कॉलोनी में उसने एक बंगला बना लिया । पुरानी कार ख़रीद ली । साथ ही बाजार के आवाजाही वाले इलाके में उसने दफ़्तर डाल लिया था । अपना दफ़्तर........। अपना काम । उसे लगा कि जतिन आज कितना ख़ुश है । अब उसका अपना काम और अपना रुतबा है ।

उसे लगा कि वह भी अपना काम करता तो कितना अच्छा होता....। पर, वह हिलते डुलते जहाज के मस्तूल पर आख़िर तक बैठा रहा । उसे जहाज के संभलने का पूरा यकीन रहा । वह सोचता रहा कि यह जहाज कभी न कभी तेज़ लहरों के जाल से निकल आयेगा ....... संभलेगा और सामान्य नहीं, तेज़ गति से चलने लगेगा । उसे बॉस की काबिलियत पर भरोसा था । वह कभी भी बॉस से अपने को अलग करके नहीं देख पाया । दफ़्तर की जगमगाती न्यॉन लाइट । दफ़्तर की बिल्डिंग । खिड़कियों से बाहर आने वाली रौशनी..... भीतर अलग-अलग हिस्सों में बंटकर बैठने लाले लोग.... और उन्हीं में अपने को पाकर उसने आगे बहुत ज़्यादा सोचा ही नहीं ।

अगर वह फैसला करता तो जतिन की तरह फैसला कर सकता था । वह पहले पहले फैसला करता तो बहुत से सालों को यूँ ही बर्बात करने से बच सकता था और कुछ होता या न होता, वह रोज़-रोज़ की जलालत से तो बच जाता । उसे कम से कम जब तब फाइल लिये तो खड़े नहीं रहना पड़ता ।

दफ़्तर में रहने पर उसे घर की याद आती और घर में रहने का दफ़्तर की । तनख्वाह भी इतनी नहीं बी कि वह सुकून दे पाती । स्टेट्स और वेतन के बीच उसे सारे संतुलन बनाये रखना पड़ता । कम्पनी में काम करने वाले स्टाफ एवं मजदूरों के बीच का अंतर बॉस ने धीरे-धीरे करके मिटा दिया था । किसी भी आदमी को कभी भी छट्टी करके, आलीशान कंपनी धीरे-धीरे करके किसी सस्ते हॉटल के रूप में तब्दील हो गयी थी । उसने महसूस किया कि बॉस की नरम, मुलायम ऊँची पुट्ठों वाली ईजी चेयर के चारों तरफ़ जाले लग गये हैं । कभी-कभी मकड़ियाँ टेबिल अथवा फाइलों पर चढ़ जातीं । धूल और जाले के कारण ईजी चेयर की रंगत अजब सी लगने लगी थी । वह बार-बार बॉस की तरफ़ से ध्यान हटाना चाहता था । लेकिन जब तब उसका ध्यान उसी तरफ़ जाने लगता । बॉस के बारे में सोचता तो उसे जतिन याद आ जाता । उसे फिर लगता कि वह जतिन क्यूं नहीं हो पाया । जतिन ने समय को समझ लिया था । उसने सामने बॉस और जतिन की नरम कुर्सी और उसका पुट्ठा घूमता रहा । वह दफ़्तर से वापस घर आया तो बड़ा बेजान सा था । घर का कमरा उसे अपना नहीं लगा । उसी इच्छा हुई एक कप चाय पी जाए । घर पर कोई नहीं था और पास-पड़ोस से उसका वास्ता नहीं के बराबर था ।

उसने थरमस उठाया। सोचा बाहर चाय पी लूँगा और लौटाते समय ले भी आऊँगा घर आने के बाद फिर चाय की इच्छा हुई तो पी लूँगा । उसने महसूस किया कि नौकरी करते-करते वह बुरी तरह से टूट गया है। उसे लगा कि उससे कहीं भला तो वह तब था जब नौकरी में नहीं था। उसे एकबारगी अखरा भी कि उसने सरकारी नौकरी के लिए क्यूं ट्राई नहीं किया। तब तो धुन थी कि चाहे कुछ भी हो सरकारी नौकरी करना नहीं है....। इधर लोग हैं कि सरकारी नौकरी पाई और पूरी की पूरी उम्र उसी के भरोसे काट ली। पर उसे नौकरी का ख्याल कभी जमा ही नहीं। सरकारी दफ़्तर के माहौल में उसे मिलती आने लगी। ढेर के ढेर लिजलिजे लोगों की शक्ल उसके सामने घूमने लगती।

वह न जाने क्यूं सोचता रहा कि सरकारी नौकरी में प्रतिभा दिखाने का कोई अवसर नहीं होता। शायद दरबारी न बन पाने के अपने स्वभाव के कारम उसने नौकरी नहीं की। वह चाहता तो ऐसा कर सकता था। उसके सामने आज अपनी पुरानी सोच और नई तस्वीर दोनों है। वह चाहता तो अभी जैसी तकलीफ़ों से निजात पा सकता था। पर, उसके भीतर अलग दिखने की होड़ थी। उसने कई बार सोचा भी कि अलग दिखने के लिए इतनी ज़्यादा जोहमत मोल लेने के बजाय ‘जंजीर का कुत्ता’ हो जाना चाहिए। जंजीर से बंधे होने पर चाहे कितना भी खूंखार स्वभाव हो, अपने आप किनारे चला जाता है। जंजीर कभी कितनी ज़रूरी होती, वह न तो पहले समझ पाया और न ही अभी।

उसे असल में बंधना कभी रास ही नहीं आया। वह अपनी डिग्रियों के बोझ से भी नहीं दबा। वह दूसरी तरफ़ खोया रहा। असल में दबना उसकी फितरन में नहीं था। वह दबा नहीं, पर उसने समझौते ज़रूर किये। यही समझौते उसे कमजोर करते चले गये। पर, आज लगता है कि उस सबसे ज़्यादा नुकसान अपने आप से समझौता करे के कारण पहुँचा है।वह लगातार समझौता ही करता रहा है। सबसे । समझौतों ने उसके स्वभाव को कितना बदल दिया है। वह अपने भीतर का परिवर्तन महसूस करने की कोशिश करता है। वह सोचता है कि वह बदला है या समय बदल गया है। वह दोनों बातों में से सही-गलत का फैलसा नहीं कर पा रहा है।

उसे न जाने क्यूं आजकल यह लगने लगा था कि उससे कहीं अच्छा जतिन है। जतिन उससे तमाम में अच्छा है। उसमें जो खास लगा वह यह कि वह जंजीर से बंधा नहीं रहा । उसने स्वभाव बदला....और फिर वह देखते-देखते कितना बदल गया....। अगर वह भी उसकी तरह बंधा रहता तो वह आज का जतिन नहीं होता। उसके पास आज जैसी ईजी चेयर नहीं होती। जतिन वह बना नहीं, उसके निर्णय और विश्वास ने उसे जतिन बना दिया।

उस लगता कि जतिन गलत नहीं है। जतिन आज जतिन तो कहता रहा है और एक वह...। उसे बताना पड़ रहा है किवह ....वह...। जतिन जैसा भी, और उससे हटकर भी...। वह सोचता है कि उसे भी जतिन से ज़्यादा न सही पर जतिन जैसा सम्मान मिल सकता है, वह उससे किसी मायने में कम नहीं है। पर, वह जब भी जतिन के सामने अपने को पाता तो भीतर से बेचैन हो जाता । उसे जति न जाने क्यूं बिना बोले बेचैन कर जाता। वह मुस्कुरा कर बात करता तब भी उसे बैचनी होती। वह बेचैनी को छुपाने का प्रयास ठीक से नहीं कर पाता....। आख़िर कहीं न कहीं से वह झलक पड़ती।

वह बनी बनाई लकीरें काटना चाहता था। लकीरें काट कर नई तस्वीर बनाना चाहता था पर, उसे काफी देर बाद अहसास हुआ कि तस्वीर को लकीर से और लकीरों को तस्वीर से अलग नहीं किया जा सकता...। तस्वीर में कहीं न कहीं लकीरें आ ही जाती हैं। कहाँ,मुक्त हो पाती है लकीरों से कोई तस्वीर...। उसका मस्तिष्क भी लकीरों के जाल में उलझा पड़ा है। सोच की लकीरें और चेहरे पर झलक आने वाली लकीरें।

फिर उसे लगता कि नहीं, जतिन कितने मज़े में है। उसने सब सेट कर लिया है। उसकी अपनी पहचान बन गई है। उसे कोई बार भीतर से लगा कि उसे जतिन हो जाना चाहिए। फिर उसके भीतर से आवाज़ आई कि उसे जतिन हो ही जाना चाहिए। जतिन की स्टाइल ही शायद सच्चाई है। उसे अपने जतिन न हो पाने पर कई बार कोप्त भी होती।

अचानक उसे लगा किवह जतिन हो जाएगा। वह महसूस करने लगा कि वह धीरे- धीरे करके बदलता हुआ, जतिन हुआ जा रहा है। वह ईजी चेयर पर बैठा हुआ है। वह फाइल लिये नहीं खड़ा है, बल्कि उसकी टेबिल पर ज़रूरी फाइलों की कतार लगी है। वह फाइलें निपटा भी रहा है। उसकी पीठ ईजी चेयर पर तनी हुई है। उसकी नज़रें अब जतिन की तरह चमक लिये हुए जान पड़ती हैं। वह बात-बात पर अब किलक पड़ता है। उसके चेहरे की लकीरें गायब हैं। वह एक ऐसी तस्वीर के सामने बैठा है, जहाँ घनी-गहरी लकीरें और उदासी नहीं है। तस्वीर पर नीला साफ आकाश है...। और सफेद पंछी कहीं दूर उड़े जा रहे हैं। वह महसूस करता कि वह अब ‘वह’ नहीं है। उसके सामने अब घर दफ़्तर कुछ नहीं है। सिर्फ़ आकाश है। बिल्कुल साफ और धवल आकाश।
(प्रकाशित ‘लोकमत समाचार’ नागपुर, 26 सितंबर 1999)

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