सोमवार, 9 जून 2008

नौकरी


‘भाई साहब... जवाब....साहबान....एक मिनट रुकिये... ये गोलियाँ देखिये...। बिल्कुल मँहगी नहीं... इसके साथ आपको उपहार भी मिलेगा । दूकानों से सस्ते में पड़ेगी... देखिये भाई साहब... देखने में बुराई नहीं... फिर लीजिए न लीजिए...। साहबन, आप भी आ जाइए...। सर्दी-खांसी के लिए इससे अच्छी गोलियाँ नहीं ...। सिर्फ़ एक गोली ही काफी... पर आप पूरा पाकेट ले जाइये... घर-गृहस्थी में काम आएंगी ...। बाबूजी, आप भी आइये...। अरे माताजी, आप किनारे से देख रही हैं... आगे आ जाइये...। मुन्ने को भी लेती आइये बहन जी...बहुत कम गोलियाँ बची हैं । ले लीजिए जनाब... घाटे का सौदा नहीं...। कोई धोखा-फरेब नहीं...। बिल्कुल कंपनी की क़ीमत पर...। उपहार का गिलास भी साथ लीजिए...। सोचिये नहीं...। सर्दी-खांसी की शर्तिया दवा है ।’
सरद इलाके में वह एक दूकान के चबूरते के सामने पूरी ताकत के साथ और बड़ी आत्मीयता से सामने जुट आई थोड़ी सी भीड़ से यह सब कह रहा था । कुछ उसे ध्यान से देख रहे थे ।कुछ सुन रहे थे । कुछ समझ रहे थे । वह चिल्ला रहा ता । समझा रहा था । गोलियों के पैकेट में से गोलियाँ, तो किसी को पूरा पैकेट दे रहा था । समझान और गोलियाँ बेचने का काम साथ-साथ जारी था । उसने ढीली शर्ट.... तंग पैंट और कोट पहल रखा था । एक पुरानी टाई गले से पैंट की ओर झूल रही थी । वह बार-बार गले के पास टाई को छू रहा था । शायद टाई कस गई थी । जब-तब भीड़ से नज़र बचाकर वह टाई पर हाथ फेर लेता . ऐसे ही एक बार सड़क चलते लोगों को ध्यान से देखता और एकाध पहचाल का कोई निकल आता तो वह झट से नज़रें चुरा लेता । वह यही कोशिश करता कि नज़रें मिलने न पायें ।
सड़क की बत्तियाँ जल रही थीं । सामने फोल्डिंग टेबिल पर सर्दी-खांसी की गोलियाँ और प्लास्टिक के गिलास सजे थे । वह एक-दो लोगों को निपटाता और एक बार फिर नये सिरे से उलट-पलट कर गोलियाँ जमाने लगता । इस सबके साथ वह भीड़ में से लोगों को ताड़ता रहता । उसकी नज़रों में वह बात आ गई थी कि भीड़ में से उस चेहरे को खींचकर निकाल लेता जिसमें थोड़ी बहुत भी गुंजाइश दिखती । फिर वह उसे तरह-तरह से समझाने लगता । इसके साथ ही वह भीड़ से अपना संपर्क बनाये रखता । जिसे वह समझाता उसके हाथ में वह गोलियाँ का पैकेट या दस-पाँच गोलिकां ज़रूर थमा देता । समझाने की कोशिश में वह पच्चीस-पचास गोलियाँ ऐसे ही बाट दिया करता । हालाँकि वह उससे ज़्यादा भी बाँट सकता था और इससे ज़्यादा गोलियाँ उसे बाटने को मिलतीं भी । लेकिन वह सारी की सारी बाँटता नहीं । बल्कि, ताड़ता रहता । किसे देना चाहिए और किसे नहीं । वह भीड़ के बीच पूरी तरह विश्वास पैदा करने की कोशिश करता और अक्सर वह विश्वास पा भी लेता । उसने एक रिक्शा कर रखा था... जिसे एक जगह पहुँच ने के बाद दो-तीन घंटे के लिए छोड़ दिया करता और उसके बाद फिर उसी रिक्शे पर वह दूसरी ओर कूच करता जाता । हर वक्त उसने सामने नये चेहरे होते और वह हर एक को एकजैसे अंजाज से समझाता ।
वह अब भी समझा रहा था- ‘ले ही लीजिए भाई साहब....। फिर मैं इधर आया न आया..। बरसात का मौसम है ठण्ड भी है.... सर्दी-खांसी तो लगी रहती है ....घर में छेटे बच्चे होंगे ...। इन गोलियाँ सो ज़रा भी डरने की बात नहीं...। नुकसान तो करती ही नही...। शर्तिया इलाज है सर्दी-खांसी का...साहबान ज़्यादा बोलना क्या ...? आप ख़ुद आजमा कर देखिए ...। मैं अभी आपके शहर में हफ्ते भर हूँ ...। कहीं धोखा हो..... बेईमान की गुंजाइश हो...। आप मुझे ढूँढ़ निकालिए और चाह जूते लगाइये, जो कहीं मेरी बात झूठ निकले । साहबान, चोखी बात और एकदम चोखा धंधा ...। निखालिश ईमानदारी का सौदा है । आप विश्वास कीजिए और ले जाइये... । आप मुझे याद करेंगे... फिर-फिर आएंगे ... मैं अभी आपके शहर में हूँ...। डरिये नहीं भाई साहब... देखिए... फिर लीजिए न लीजिए...। फायदे का सौदा है, फायदे का ।’
वह बिना रके सभी को समझा रहा था । नये सिरे से...एक जैसे अंदाज़ से । सदर इलाके में धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी थी । थोड़ी देर में दूकानों के पट औंधे होने लगे । कुछ दूकानें बन्द हो गई थीं । कुछ हो रही थी । उसने अपने रिक्शे में सामान लादा और चल पड़ा । रिक्शे वाले को उसने इसारा काया, एकदम सीधा चलने का । अब वह दिन भर का हिसाब देगा और बचा-खुचा समान एजेन्सी में जमा करेगा । बस, उसके बाद छुट्टी...आज का काम ख़त्म । हर दिन वह ऐसा सोचता है और हर दिन लगभग इसी तरह निपट कर घर लौटना है । पिछले एक साल से वह यही धंधा कर रहा है । हालाँकि धंधा अच्छा नहीं, फिर भी पहले से अच्छा है । मेहनत ज़रूर है पर, सारे समय की किच-पिच नहीं । बस यही बात उसे अच्छी लगती है । और यही कारण है कि एक साल से वह शहर....शहर की सड़करें और शहर के चौराहे बदल रहा है ।
‘ठीक है.....जैसा भी है..। अभी तो ठीक है...।’ उस हरामखोर सेठ के यहाँ से तो कहीं ठीक है । यह अलग बात है सभी सेठ एक-से होते हैं । जब नया-नया आया था तब यह सेठ भी ‘बीस’ था, किसी मामले में उन्नीस नहीं । ज़रा भी जगह दिखी नहीं कि टांग अड़ाई उसने । पर, थोड़ी सी राहत है यहाँ... गला ज़रूर फाड़ना पड़ता है पर...। हाँ, इतना तोचलता है । सभी जगह चलता है... मनपसंद बात होती ही कहाँ है ? वह सड़क से घर का फासला तय करते हुए रास्ते भर सोचता जाता है ।
सर्दी-खांसी की गोलियाँ और इन्हें बेचने का धंधा उसने एक साल पहले ही शुरु किया । इसके पहले वह जूते की दूकान में नौकर था । सात बीस पैसे रोज़ का नौकर । एम.एस.सी पास करने के बाद भी उसने यह नौकरी कुबूल कर ली थी । उसे तरुंत काम चाहिए था और कोई जगह ऐसी नहीं थी जहाँ तुरंत नौकरी मिल सके । थोड़े से प्रयास के बाद उसे जूते वाली नौकरी मिली और उसने एक झटके में कुबूल भी कर ली । पहले कुछ अखर, फिर...।
आज उसने सेठ की नज़र बचाकर दो रूपये खिसका लिये । रूपये उसने बचाए ज़रूर, पर चुराये नहीं । वह सोचता है यह ठीक नहीं । फिर उसे लगता है – ठीक है मुफ्त में गोलियाँ बाँटना भी......बांटो.......। क्या हुआ उसमें से दस-बीस किनारे भी कर लो तो । बाँटने में से कुछ बचा लेना क्या अच्छा नहीं । यह प्रश्न काफी देर तक उसने मस्तिष्क में चक्कर काटता रहा । वैसे वह इस धंधे में पन्द्रह से बीस रूपये रोज़ बना लेता है । सौ के पीछे बीस परसेंट कमीशन का धंधा । पहले तो उसे बमुश्किल सात रूपये बीस पैसे मिला करते । उस पर छुट्टियों की कटौती अलग । रोज़ की कमाई का हिसाब लगाते समय उसे अक्सर वह जूते वाली नौकरी याद आ जाया करती । उस नौकरी के प्रमुख पृष्ठों की रील उसके समने घूम जाया करती ....। जब-तब और कभी भी ।
कॉलेज छोड़ने के बाद के दिन । नौकरी की तलाश । जगह-जगह हाथ जोड़कर प्रार्थना और ऐसे ही एक दिन जूते की दुकान पर पहुँचा जाना । उसे बाद सात रूपये बीस पैसे की नौकरी का मिल जाना । इस नौकरी के साथ उसे मिलता हफ्ते में एकाध बार नाशअता और दिन भर में कभी-कभार चाय । सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक काम । पूरे बारह बजे तक नौकरी । कागज-पुट्ठे के डिब्बे । जूते-चप्पल के नंबर । तय जगह से उन्हे लाकर दिखाना और वापस रखना । सेठ की घुसती नज़रें । ग्राहकों की पसंदगी और नापसंदगी को ताड़ना । सबकी बात समझना...गुस्से को बर्दास्त करना...। इन सब का योग था… ‘सात रूपये बीस पैसे ।’
उसे लगता जैसे अब भी वह शोर उसके मस्तिष्क में कहीं घूम रहा है । आवाज़ें एक आकार लेने के बाद उभरती आ रहीं हैं । ‘सुनील...ज़रा सात नंबर का सैंडिल दिखाना...हाँ, वो शाक्स भी...पाँच नंबर का कटराइज शू भी लेते आना....सुनो, बाबा को हवाई चप्पलें भी दिखानी हैं ।’ सेठ की एक-सी रट और उसकी यंत्रवत दौड़ । अच्छी खासी नहीं तो सामान्य भीड़ वाले बाजार के बीच की दुकान । वह फटाफट फरमाइश के मुताबिक जूते-चप्पलें ला-लाकर दिखा रहा था । पैरों में उन्हें पहनाकर नाप रहा था । समझा रहा था । अभी वह जूते पहनाकर अलग भी नहीं हो पाया था कि एक सभ्रांत सज्जन ने पैर पटकते हुए कहा
-कब से काम कर रहे हो...? ज़रा भी तमीज नहीं तुम्हें...पता है जूते के लेस कैसे बांधे जाते हैं ?’
-‘लाइये साहब, ठीक किये देता हूँ ।’ वह बोला ।
- ‘अब रहने भी दो...तुम्हारे बस की बात नहीं यह..मैं ख़ुद ठीक किये लेता हूँ । तुम ज़रा कपड़ा मार दो ।’
- ‘जी साब...! मुझे दुःख है...आपको परेशानी हुई...।’ कातर स्वर में उनसे कहा ।
- ‘हाँ-हाँ ठीक है...अब जाकर बिल ले आओ...और हाँ । बाक़ी के पैसे तुम रख लेना ।
बड़े गरीब मालूम पड़ते हो ।’ जूते पर कपड़ा फिराने से रोकते हुए उसने कहा । फिर वह कार की ओर बढ़ा । कार स्टार्ट हुई और उसके पीछे शोर उछालती हुई दूर होती चली गई ।
उसे लगता है । अब भी वह शोर उसके भीतर कहीं गूँज रहा था और बख्शीस के दो रूपए अब भी जैसे उसके हाथ पर धरे थे, जो सभ्रांत सज्जन ने उसे दिये थे । सभ्रांत सज्जन के जाने के बाद सेठ ने उसे बहुत डाँटा । उसे अपने रिश्ते का हवाला दिया । सुनील के वयव्हार को जी भर के कोसा । इस सबके बाद वह नौकरी से अलग कर दिया गया । उसके हाथ में उस वक्त नौ रूपये बीस पैसे थे । जब भी वह हाथों में रखकर रूपये गिनता उसके आगे जूते वाली नौकरी घूम जाती और घूम जाता नौकरी के साथ जुड़ा एक ऐसा माहौल । बेचैनी और विवशता । बेचैनी और विवशता ही थी कि वह नौकरी जाने के बाद एक दिन भी चुप नहीं बैठ पाया । शाम को नौकरी गई और सुबह नौकरी की तलाश शुरू कर दी ।
कोई सप्ताह भर भटकने के बाद उसे एक नौकरी भी मिल गई । यह नौकरी उसे कुछ तो पढ़ाई की वजह से और कुछ दयनीयता और हाथ जोड़ने वाली मुद्रा की वजह से मिली । भटकते-भटकते उस दिन शाम वह दवा की एजेंसी में पहुँच गया । दिन भर की दुत्कार और थकान से बेजार । मन में आया-क्यूं न यहाँ भी किस्मत आजमा ली जाए ।
दवा एजेंसी का कार्यालय में घुसते ही सबसे पहले उसने यहाँ-वहाँ नज़र डाली । एकबारगी लगा कि यहाँ भी कुछ नहीं बेनने वाला । फिर उसने एक किनारे बैठे वृद्ध की ओर नज़र डाली और उस ओर बढ़ा गया । अपनी मजबूरी बत्ई और कोई भी काम दिला देने की पुरजोर फरियाद की । वृद्ध को पता नहीं क्यूं दया आ गई । फिर उसने उसे मैनेजर से मिलने की सलाह दी ।
- क्यूं आये हो यहाँ ? मैनेजर ने घूरते हुए पूछा ।
- साब......आपके यहाँ कहीं कोई काम.....? उसने कहा ।
- काम....? अजीब-सा मूंह बनाते हुए मैनेजर ने कहा- कहाँ तक पढ़े हो....क्या उम्र है तुम्हारी ?
- जी, एम.एस.सी. तक...उम्र 23 वर्ष ।
- क्या काम कर सकते हो...। मैनेजर नरम पड़ते हुए बोला ।
- कुछ भी, जो आप कहें ।
- अच्छा....दवा बेच लोगे ?
- जी...।
- घूम-घूम कर सड़क पर बेचनी होगी ।
- जी, बेच लूँगा ।
- देखो एक बार फिर सोच लो भाई....फिर....।
- जी, सोच लिया..... .
- अच्छा तो आब सूनो....करना क्या है......कोट-पेंट तो तुम्हारे पास होगा.....और टाई भी । अब तुम्हें करना क्या है, कि कल से अप-टू-डेट होकर आओ और काम शुरु कर दो । और हाँ, बीस परसेन्ट कमीशन पर तुम्हारा यह काम पक्का ...। हिसाब रोज़ का रोज़ देना होगा ।
- जी मुझे मंजूर है ।
उसने हाँमी तो भर दी लेकिन, फिर वह गहरे सोच में डूब गया । अब क्या होगा ? यह नौकरी तो मिली, मगर मिलते ही गई भी समझो ? उसने अपने कपड़ों पर नज़र डाली । सामान्य सा गंदा पुराना फुलपेंट । अंतिम स्थिति तक आ पहूँची शर्ट । और फटीचर चप्पलें ? कहाँ से हो पायेगा चार-छह घंटों में सारा इंतजाम । यदि कुछ भी न हुआ तो समझ गई नौकरी ? सेठ ने भी क्या खूब मजाक किया है ।
- अब क्या क्यि जाए....क्या न किया जाए..........किससे माँगू, किससे न माँगू ? दवा एजेंसी से बाहर निकलने के बाद वह फिर सड़क पर काफी देर तक खड़ा रहा । लेकिन उसे कोई उपाय न सूझा । फिर एक झटके से उसके मन में ख्याल आया । विकास के यहाँ चला जाए और उसके बाद वह लम्बा फासला तय कर विकास के यहाँ खड़ा था । रात दस बजे के आसपास । विकास के बाहर आते ही वह उसे खींचकर एक कोने में ले गया ।
- यार कोट-पैंट और जूते की ज़रूरत थी...अभी और इसी वक्त......। जो तुमसे बन सके, जमाओ । एक नौकरी मिल रही है, जो इन सबके बिना गई भी समझो ।
देखता हूँ, तुम यहीं ठहरो...। विकास ने कहा और बीतर चला गया ।
उसके बाद भीतर एक-एक कमरों की लाइट जलाई-बुआई गई । इधर-उधर ढूंढा़खखोरी की गई । फिर विकास के बोलने-बात करने की आवाज़ बाहर आने लगी । थोड़ी देर बाद वह टाई और जूते लिए सुनील के सामने था । टाई के बारे में उसने हिदायत दी थी- जीजा की टाई है...दो-तीन दिन में लौटा देना... नहीं तो मेरी फजीहत हुई समझो ?
- कैसी बात करते हो । लौटने में मिलट भर की देर नहीं होगी । उसने कहा और एक झोला माँगकर उसने टाई व जूते उसमें ठूंस लिये । इसी तरह तीन- चार दोस्तों से माँग-माँग कर उसने रात 12 बजे के आसपास पेंट और कोट का इंतजाम कर लिया । रंग-बदरंग लगभग सारा सामान समेट कर वह करीब एक बजे सड़क पर था । सारा कुछ हाथ आ जाने के बाद उसने सोचा-घर कितनी दूर है? फिर उसने अंदाज़ लगाया-‘पाँच किलोमीटर ज़्यादा ।’
रात तीन बजे वह खाट पर था । ज़मीन पर सटकर तीनों बहनें सोई थीं । सरकारी नौकरी की सीमा रेखा तक आ पहूँते पिता को जोर की खांसी आई थी । उसने करवट बदल ली । उसी कमरे में बहनों के पास गठरी बनी माँ पड़ी थी । बहन शादी की उम्र छू चुकी थीं पर...। छोटा भाई उसकी खाट के एक ओर सोया था । उसे नींद नहीं आ रही थी । उसे लगा कि शायद माँ और बाबू जी भी नींद का बहाना कर जाग रहे थे । अलग-अलग सारी समस्याओं पर सोचते हुए ।
उसे इतनी रात गये जूते का ख्याल खाये जा रहा था । चार-छह जगह से मरम्मत करानी है । सुबह छह बजे उठना होगा । आयरन सुलगाकर कपड़ा सलीके से करना होगा । कोट और पेंट के साथ जब वह टाई पहनेगा तो कैसा लगेगा ? घर से बाहर कैसा दिखेगा ? निकलते ही कहीं लोग ठहाका मारकर हँस पड़े तो ? जूते भी वह इतने सालों में पहली बार पहनेगा ? जूते पहनकर वह ठीक से चल पायेगा कि नहीं ? सब कुछ पहन ओढ़ने के बाद कहीं उसकी सूरत जोकर जैसी तो नहीं हो जाएगी ? और उसकी यह सूरत देखकर सेठ ने मना कर दिया तो...? और यदि नौकरी उसने दे भी दी तो क्या वह दवा आसानी से बेच सकेगा ?
सैकड़ों सवाल उसके दिमाग में घूमते रहे और वह पूरी रात सो नहीं पाया । दवा एजेंसी की तरफ़ पढ़ते हुए वह रास्ते भर विश्वास बनाता-बिगाड़ता रहा । मन ही मन दुआएं माँगता रहा । और आख़िर दस बजे वह शहर की मुख्य सड़क पर दवा के साथ था । कोई दो साल तक दवा बेचने के बाद उसे वहाँ से हटा दिया गया । बताया गया कि दवा एजेंसी घाटे में चल रही है और बंद किया जा रहा है । उसके बाद वह फिर सड़क पर था । ऐसा नहीं कि वह नौकरी छोड़ने के बाद एकदम सड़क पर आ गया । और भी नौकरियाँ कीं उसने । पर, दिनों की गिनती वह दूर नहीं खीच पाता । दवा का धंधा छोड़ने के बाद उसने एक के बाद एक कई नौकरी करीं और छोड़ीं ।
वह अख़बार के दफ़्तर में भी नौकरी माँगने गया । उसने वहाँ प्रूफ पढ़ने की नौकरी की और इसके पहले कि मालिक से दो-दो बातें हों या मालिक उसे निकाले, उसने नौकरी छोड़ दी । फिर वह घूम-घूमकर व्यावसायिक थियेटर में काम करने लगा । पर नाटकों के शो माह में एक या दो बार होते, बस । इससे उसके लियेख़ुद का और घर का ख़र्च चल पाना संभव नहीं था । उसने नाटकों पर ज़्यादा ध्यान देना छोड़ दिया । उसने टेलीविजन में केजुएल आर्टिस्ट की नौकरी की और समय पर पैसा न मिलने के कारण छोड़ भी दी ।
इन सब के बाद वह रेडियो में केजुएल आर्टिस्ट बना । वह ज़िद में था । जितना भी काम मिले, अब वह यहीं करेगा । ड्यूटी के दिन का काम निपटा लेने के बाद वह वरिष्ठ साथियों के साथ लगा रहता । उनसे सीखता । धीरे-धीरे वह सबकी नज़रों में चढ़ गया । उसकी प्रतिभा निखरने लगी । उसने आगे चलकर स्टाफ एनाउंसर के लिए एप्लाई किया । अब वह ज़्यादा ही रेडियो में जुटा रहता । उसकी उम्मीदें जुड़ गयी थी । फिर वह दिन आया जब पाँच सौ प्रतियोगियों के बीच एक अकेले पद के लिए वह चुन लिया गया ।
‘वे’ दिन थे और ‘आज’ का दिन था । वह अंतर महसूस कर रहा था । उसे लगा अब उसकी प्रतिभा की पहचान होगी....वह यहाँ से और आगे निकल जाएगा...आगे और आगे...। सुनील को अच्छी नौकरी मिलने की खबर तमाम अच्छे-बुरे लोगों को मिली और उसके आगे मिलने वालों की एक कतार थी । कुछ स्वार्थवश, कुछ निःस्वार्थ । सुनील, घर....बाहर...और अपने भीतर अलग तरह का बदलाव महसूस कर रहा था । अब उसे हज़ार रूपये से ऊपर मिलने लगा था । उसे यह नौकरी अच्छी लगी । एक साल बड़ा अच्छा गुज़रा । फिर उसने पाया कि वह एक कमरे में कैद होता जा रहा है । अच्छा काम करने के बाद भी अफसर उसकी गलतियाँ छांट रहे हैं । ज़्यादा ईमानदार होने से वह कुछेक की आँखों का काँटा बनता चला गया । बड़े अफसर के मुँहलगे साथी उसे तंग करने व अपमानित करने की योजना बनाने लगे हैं ।
एक दिन वह अपने मित्र व एकाउंसरों के साथ खड़ा बात कर रहा था कि एस.डी.(केन्द्र निदेशक) का मुँहलगा अफसर वहाँ से गुज़रा । उसने पहले तो अजीब-सा मुँह बनाया । फिर रुककर सुनील से बोला- सुनील तुम लंच पर जा रहे हो न...? ज़रा बस स्टाफ तक चले जाना...वहाँ, मोची के पास बच्चों के जूते पड़े हैं... साथ लेते आना । एक झटके से उसने कहा और दूर निकल गया ।
सुनील को लंच के बाद नौकरी करनी थी और वह उसका ड्यूटी अफसर था । नई नौकरी थी । सुनील को बहुत जोर का गुस्सा आया । उसे एकबारगी लगा- बढ़कर एक तमाचा रसीद कर दे उसको... और यह नौकरी उसके मुँह पर मानकर चलता बने । ......समझ क्या रखा है उसने ? फिर पता नहीं क्या हुआ.... उसका उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे झुकता चला गया । उसने अफसर को एक भद्दी-सी लागी दी और मुट्ठी उछाली । ..........उसे लगा जैसे उसने एक घूंसा मारा हो । उसके दिमाग में अचानक....नामदेव ढसाल की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ घूमने लगीं,....वह बुदबुदाया- ‘नौकरी गई माँ की.........।’ उसने देखा अफसर दूर होता जा रहा है ।
फिर उसके सामने एक झटके से दवा और जूते वाले सेठ का चेहरा उभर आया और उनसे मिलता ड्यूटी अफसर का चेहरा । फिर तीनों चेहरे ऊपर-नीचे घूमने लगे । लगातार काफी देर तक । फिर रह-रहकर उसे लगा...तीनों चेहरे में कहीं कोई अंतर नहीं है । उसके सामने नौकरी का अर्थ स्पष्ट था ।
(प्रकाशितः ‘अमृत संदेश’ रायपुर, 1988)

कोई टिप्पणी नहीं: