सोमवार, 9 जून 2008

अगर


पाँच तारीख ! कोई पाँच-सात दिन बाद आज डॉक्टर के पास आना हो पाया है। जेब पर हाेथ फेरते हुए मैं सीढ़ियाँ चढ़ जाता हूँ। वहाँ मरीजों का हुजूर होता है। ठीक मेर सामने दरवाजे पर, दो हिस्सों में बंटा पर्दा पड़ा है। दोनों टुकड़ों के बीच से डॉक्टर का चेहरा साफ नज़र आ रहा था। क्लीनिक के बरामदे में दो नर्सें दिखती हैं-एक खड़ी है और एक स्टूल पर बैठी हुई।

मैं थोड़ा आगे बढ़ डॉक्टर के कमरे पर सरसरी नज़र डालता हूँ। फिर कुछ सोचने के बाद काऊंटर के पास ठहर जाता हूँ। इत्मीनाम से नोट व रेज़गारी गिनता हूँ नब्बे रूपये साठ पैसे । काफी हैं । मन ही सोचता हूँ और नोट व रेज़गारी जेब के हवाले कर देता हूँ हाँ देने के बाद भी काफी बच जायेंगे। मैं अंदर चला आता हूँ। दो-तीन मरीज डॉक्टर के पास बैठे हैं। कोई बात नहीं। डॉक्टर तो अपने को जानता है। एक गर्व सा महसूस होता है। मैं दांये हाथ की ऊँगलियों से पर्दा खिसकाकर अंदर दाखिल हो जाता हूँ।

-‘आइये....आइये ....बैठिये....।’ कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए डॉक्टर कहता है। -‘काफी दिनों बाद आ पाया डॉक्टर.....आप तो जानते हैं....काम ही कुछ....।’ वाक्य अधूरा छोड़ते हुए मैं अपनी व्यस्तता दर्शाता नहीं, पैसों की व्यवस्था थी। घड़ी घड़ी पर बार-बार नज़र डालते हुए मैं अपनी व्यस्तता का अहसास दिलाना जाता हूँ। दूसरी ओर लगता है कि पता नहीं कितने रूपये लगेंगे...कुछ बचेगा भी या नहीं...ज़्यादा पैसे भी ले लिये तो कुछ कहते नहीं बनेगा.....मैं अपने को तरह-तरह की शंकाओं से घिरा पाता हूँ। उधर डॉक्टर मरीजों से उलझा होता है।

- ‘चश्मा बन गया....?’ काफी कश्मकश के बाद कूछ पाता हूँ।
- ‘अरे साब, कब का बन गया।’ वह स्वर में पूरी लापरवाही उड़ेल देता है।
- ‘मैं ही नहीं आ पाया....कुछ लेट हो गया।’ वह ढीला पड़कर कहता है।
- ‘बाहर सिस्टर के पास है...ले लीजिएगा...मैंने समझा था...आप ले गये होंगे।’
- ‘नहीं....आजी ही इधर आ पाया।’
- ‘अच्छा-अच्छा...।’ डॉक्टर फिर मरीजों से उलझ जाता है।
मैं उठकर झटके से बाहर चला आया। नर्स के सामने पहुँच कर पेशेंट का नाम लिया ही थी कि वह एकदम सधे हाथों से चश्में का पैकेट सामने कर देती है। जिस ढंग से वह पैकेट सामने बढ़ाती है, ससे लगता है जैसे मेरा इंतजार था। मैं महसूस करता हूँ कि दिन में ज़रूर यह पैकेट उसके सामने से दो-चार बार गुज़रता रहा होगा।

- ‘बयासी रूपये।’ रबर में फंसे दो चश्मे वह हाथों में धर देती है।
- ‘बयासी रूपये.....?मैं अवाक्-सा रह जाता हूँ। बयासी ही हैं न...ठीक से जोड़ लीजिए।’सहज विश्वास नहीं होता।
- ‘हाँ बयासी ही हैं।’
- ‘ये देखिये...पन्द्रह और सोलह इकतीस लिखा है...कुछ इकत्तीस तो नहीं।’
- ‘ये कांच की क़ीमत है...फ्रैम का चार्ज अलग....।’
- ‘ठीक है, एक बार डॉक्टर से पूछ लूं....कहीं कुछ ऊपर नीचे न हो....।’ ख़ुद को धीरज बंधाता हूँ। हालाँकि, यह भी लगती है कि अब इसमें कमी की कोई गुंजाइश नहीं।

नर्स मेरे साथ-साथ अंदर चली आती है। पूछने पर डॉक्टर भी बयासी का अंक दुहरा देता है। अब क्या हो सकता है। हताश से स्वर में कहता हूँ- ‘ठीक है।’ एक बार मन होता है कि दो में से एक ही ले लूं। अगर एक रहने दूँ तो....। नहीं, डॉक्टर क्या सोचेगा....? मैं भी कहाँ आ फंसा ? पहचान थी तो सोचा, कुछ फायदा होगा...यहाँ तो उल्टा हुआ...। क्या हुआ जांच फीस नहीं ली....। इधर तो कसर निकाल ली...। तरह-तरह के अच्छे-बुरे ख्याल मन में आते रहे । सारे ख्याल एक विवशता के आगे लिपटने और गड्ड-गड्डा हो जाते हैं । मैं काफी देर तक चश्मे और उसकी क़ीमत के बारे में सोचता रहा।

पैकेट हाथ में लिये मैं काफी देर तक बरामदे में खड़ा रहा जाता हूँ। मेरी इस स्थिति को क्लीनिक में आते-जाते लोग साश्चर्य देखते और बढ़ जाते। काफी देर बाद मुझे अपनी इस स्थिति का अहसास हो पाता है-‘ये लीजिये....।’ मैं नब्बे रूपये नर्स को देता हूँ। फिर बाक़ी बचे रूपये भारी हाथों से लेकर बाहर निकल आता हूँ। बजट के बुरी तरह लड़खड़ा जाने से मैं अवयक्त पीड़ा झेल रहा था। कह भी क्या-किससे सकता हूँ ? आठ रूपये नब्बे पैसे बचे थे...और बचा था पूरा माह...। फिर उधार लेना होगा।

कह ही सोचा था कि अब उधार नहीं लूँगा...। तगादे सुन-सुन कर जी भीर गया था। उधार को लेकर जब कोई कर्जदाता परिचितों के बीच टोक देता तब लगता-मैं भरी भीड़ में नंगा हो गया हूँ..., इज्जत के तथाकथित कपड़े तार-तार होकर हवा में बिखर गये हैं....और में अपनी स्थिति...अपनी विवशता को छुपाने के लिये बहाने-पे-बहाने बना रहा हूँ। लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को महसूस कर रहा हूँ। मेरी स्थिति अद्दश्य रूप से बार-बार हाथ जोड़ने जैसी हो जाती । ऐसी स्थिति से अनेक बार गुज़रने के बाद ही तो मैंने निश्चय किया था- ‘अब उधार नहीं लूँगा।’ ‘उधार नहीं लूँगा’ क्या सिर्फ़ भर लेने से उधार नहीं लेना हो जाता है।’ नियति तो अलग है।

‘दोनों चश्मे अब भी मेरे हाथों में दबे हैं। एक पास की नज़र का....और दूसरा दूर की...।इस मामले को दो-तीन महीने से टालता आ रहा था। अब हार कर बनाना ही पड़ा।’ घर में सही क़ीमत बताते भी नहीं बनेंगी। -‘इतना महंगा बनवाने की क्या ज़रूरत थी। पहुँच ते ही माँ की पहली शिकायत होगी।’ और ऐसी ही तमाम बातें जो अब तक होती रही हैं।

‘खैर, बना दूँगा-बहुत सस्ता है। अरे...वो पहचान का ’डॉक्टर था न....फीस ही नहीं ले रहा था, ना-ना करते-करते पचीस दे ही दिये....। वह तो ये बी न लेता...पहचान है...। सोचते-सोचते मैं ख़ुद ही हँस पड़ा। एकदम खोखी हँसी। ठीक है....काम निकलना चाहिए...। ठीक है...तकलीफे हैं...कम नहीं होना है तो नहीं होंगी ....ज़िंदगी ख़ुद भी तो लकलीफों का आगार है। इस ख्याल से काफी संतोष मिलता है। ैसे ही न जाने कितने विचारों का बल है जो मुझे खींचे हुए है। नहीं तो बाक़ी क्या था। इस एकाकी जीवन में ख़ुद के विचार सोचने-समझने का ढंग ....कितना सहारा नहीं देते.....विचारों का ही तो बल है कि हम तमाम मुश्किलातों से लड़ जाते हैं। तमाम झंझावतों से गुज़र जाते हैं। अगर हम अपनी स्थिति से थोड़ा पहुत संतुष्ट न हों तो ज़िंदगी कितनी न कठिन हो जाए......? हाँ, सही भी है। जीने के लिये सहारा तो चाहिए ही न, भले वह कैसा भी क्यों न.....।
मैं अपने चिंतन से एक सुकून महसूस करता हूँ । सब अच्छा है..... सब ठीक हो जाएगा । इतना सब सोचने के बाद चश्मा मुझे भारी नहीं लगता ....। बोझ नहीं जान पड़ता । एक ज़रूरी चीज़ जान पड़ता है । अब मैं घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ । हाथों से दरवाजे पर दो-तीन थपकियाँ देता हूँ ।
- ‘कौन....नीलू....?’ माँ की आवाज़ आती है और दरवाजा खुल जाता है ।
- ‘ये रहा तुम्हारा चश्मा.... अब तुम्हें कुछ ढूंढना...टटोलना नहीं पड़ेगा ....।’
- बस, पचीस...।
- महंगा है. लाख मना किया पर तू माना नहीं.... अब बता इस उमर में चश्मा की क्या ज़रूरत थी ।
- ठीक है, न लगाना रख तो लो । मैंने स्नेह से भरे शब्दों में कहा ।
- देख नीलू, तेरी दीदी आई है, जा भागकर सब्जी और सामान तो ले आ....।
- अभी लाया ।
- और हाँ, जाते समय कुछ देना भी तो होगा ?
- कब जा रही है ?
- हफ्ते भर बाद ।
- ठीक है ......।
एक आश्वासन उछाल कर मैं बाहर निकल आया । अब नही समस्या । क्या आफते हैं ? असमय दीदी को भी आना था ? दीदी का आना मुझे आफ़त-सा लगा । चल रहा था मगर क़दमों का जोश जाता रहा था । अब क्या करुँ ? मेरे सामने एक बार फिर चश्मा घूम गया । अगर कुछ दिन और रुक जाता तो कितना अच्छा होता ? फिर मैंने देखा एक-एक कर ढेर से अगर ‘अगर’ मेरे सामने उभरे । वे दीर्घाकार लेते हुए आँखों के सामने घूमने लगे । अगर एक ही चश्मा ले लेता तो... अगर ज़ल्दी कोई व्यवस्था नहीं हुई तो..... अगर उधार ले लिया तो फिर अगले महीने..... अगर दीदी ही अगले महीने आती तो....। मैं महसूस करता हूँ धीरे-धीरे मेरा समूचा अस्तित्व ही ‘अगर’ में समाता चला जा रहा है ।
(प्रकाशितः ‘देशबन्धु’ रायपुर, 12 जून 1983)

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